पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/१२७

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गवार गडासा गडासा-संज्ञा पुं० [हिं० गेंडी+सं० प्रसि तलवार] [ली. अल्पा मति० ग्रं०, पृ. ३००। (ख) वसि निकुंज में रास रचायो। गडासी] चौपायों के खाने के लिये चारे या घास के टुकड़े विया गमाई मेंन की ।--पोद्दार अभि० ग्रं०, मृ०२२८ । करने का हथियार 1. गंव-संशा स्त्री० [सं० गम्य] १. गात । दाँव । २. मतलव । प्रयोजन . विशेष---यह एक हाथ के लगभग लंबा होता है। यह एक लकड़ी जैसे,-(क) वह हमारी ग का है । (ख) वह अपनी नवे का.' में, जिसे जाली कहते हैं, जड़ा हुमा एक चौड़ा लोहे का यार है। धारदार टुकड़ा होता है। इससे कोल्ह में डालने के लिये गन्ने कि०प्र०-गांठना ।—साधना। की गड़ेरी भी काटते हैं और लाठी में लगातार हथियार का ३. अवसर । मौका । जैसे- देखकर काम करना चाहिए। काम भी लेते हैं। कि०प्र०-लगना ।-मिलना । गँडासी--संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गड़ासा'। मुहा० - गेवे से=(१) ढंग से। युक्ति से । (२) धीरे से। गड़ियल–वि० [हिं० गाँड़+इयल (प्रत्य॰)] १. गुदामंजन कराने चुपके । उ०-(क) बैठे हैं राम लखन अरु सीता । पंचवटी वाला। कायर। डरपोक । वर परनकुटी तर कहै कछु कथा पुनीता । कपट कुरंग कनक : गंडिया-संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गांडू' । . मनिमय लखि प्रिय सों कहति हंसि बाला । पाए पलिवे जोग :- गंडूष@--संश्चा पुं० [सं० गण्डूष दे० 'गंडूप' । उ०-मुख भरि नीर मंजु मृग मंजुल छाला। प्रिया वचन सुनि विहसि प्रेमवत' परसपर डारति, सोभा अतिहिं अनूप बढ़ी तब । मनहुचंद गन गवहि चाप सर लीन्हें । चल्यो सो भाजि फिरि फिरि हेरत : सुधा गुडूपनि; डारति हैं अानंद भरे सव । —सूर०, १०। मुनि रखवारे चीन्हे । —तुलसी (शब्द०)। (ख) रावण बान १७५३। महाभट भारे। देखि सरासन ग वहि सिधारे। -तुलसी'.. गडेरी-संज्ञा स्त्री० [सं० काण्ड या गण्ड--हिं० एरी (खा० प्रत्य०) (शब्द०)। . १, ईख या गन्ने का छोटा टुकड़ा जो चूसने या कोल्हू में पेरने गवई-संज्ञा सी० [हिं० गांव] [वि०गवइयाँ] १.छोटा गाँव २०- के लिये काटा जाता है। २. छोटा लंबोतरा टुकड़ा। कर ले सुधि सराहिक, सर्व रहै गहि मौन । गंधी अंघ गुलाब यो०-गडेरी का लड्डू एक मिठाई जो गूथे हुए मैदे के छोटे को, गवई गाहक कौन ।-विहारी (शब्द०)। २. गांव। . :: टुकड़ों को घी में छान और चासनी में मिलाकर लड्डू की गवनना-कि० अ० [सं० गमन से नामिक पातु ] गमन करना । की तरह वाँधने से बनती है । जाना। .... गंडोरा–संहा पुं० [सं० गर डोल-ईख या गुड़ ] हरा कच्चा खजूर। गवना@+-मि० अ० [सं० गमन, प्रा० गवरण] जाना ।गमन करना। ... गडोलना संभा पुं० [हिं० गाड़ी] बच्चों के खेलने की छोटी गाड़ी। गँवरदल-वि॰ [हिं० गवार गंवर +दल] १. गवारों का सा। गंदला-वि० [हिं० गंदा+ला (प्रत्य०] मैला कुचला । गंदा। गँवारों के समान । २.गवार । ३. भद्दा बेहूदा । . मलीन । जैसे,-तालोव का पानी गॅदला हो गया। गँवर मसला-संचा पुं० [हिं० गवारगंवर+० मसल] गवारों का गंदीला-संसा पुं० [सं० गन्ध] एक घास जो काली मिट्टी में तथा कहावत । ग्रामीणों की उक्ति । ऊसर और तर भूमि में उपजती है । मधिया । गाँधी। गँवह्यिाँ -मंधा पुं० [सं० गोन-अतिथि अतिथि । महमाना गंदोलना-क्रि० स० [फा० गंदह, से नाम०] तालाव आदि के पानी गॅवाऊो-वि० [हिं० गंवाना गॅवानेवाला । उड़ानेवाला । उड़ाऊ । को मथकर मटमैला करना । गंदा करना । गॅदला करना। गवाना-वि० स० [सं० गमन, ५० हि० गयन। १. (समय) वितला. गंधिया'--संज्ञा पुं० [हिं० गंध-+इया (प्रत्य॰)] १.गुबरैले की (समय) काटना। उ०-दई दई कसो रितु गवाई । सिरा जाति का एक छोटा कीड़ा। यह बरसात के दिनों में रात पंचमी पूजी आई।-जायसी (शब्द०)। २. पास की वस्तु को उड़ता है और बहुत दुर्गध करता है। २.हरे रंग का को निकल जाने देना ! खोना । जैसे,-लोभ से उसने अपन.. एक कीड़ा जो भुनगे के आकार का होता है और धान मक्के हाथ की पूजी भी गधा दी। आदि को हानि पहुंचाता है। गवार-वि० [हिं० गाव+पार (प्रत्य॰)][ौ० गवारी, गवाति क्रि०प्र०—लगना। वि० गवारू, गवारी] १. गांव का रहनेवाला । ग्रामाए गंधिया-संघा क्षी एक बरसाती घास । इसकी पत्तियां पतली पतली देहाती। असभ्य । जैसे-वह गवार यादमी सभ्यों की बात : होती हैं और इसके बीच में एक सींका निकलता है। यह क्या जाने। उ०--(क) बरने तुलसीदास किमि अति मतिमद, उत्तरी भारत के मैदानों में नीची उपजाऊ भूमि में होती है। गवार ।-तुलसी (शब्द॰) । (ख)तुम तो ही अहोर बुंदेलखंड में भी यह बहुत मिलती है । गांधी । गवारी। और मथुरा की हैं सुदर नारी!-लल्लू (शब्द०). गंभीर -मंधा पुं० [सं० गम्मीर) दे० 'गंभीर' । उ०-चतुर गंभीर मुहा०-गवार का ल =उजड्ड । उजवक । .... राम महतारी। बीचु पाइ निज वात सवारी ।—मानस, २. वेवकूफ। मूर्ख । ४. अनाड़ी। अनजान । नासम. २।१८। . गँवारता -संवा स्त्री० [हिं० गवार-+-ता (प्रत्य॰) । जमाना@-क्रि० स० [हिं०] दे० 'गवाना' । उ०—(क) जाके लिए उ०-उत्तर कौन सो देहौं कहा मैं गॅवारतो कसा रहा गृह काज तज्यो, न सिखी सखिंयान की सीख सिखाई। वर री।-सेवक (शब्द०)। कियो सिगरे ब्रजगाम सौं, जाके लिए कृल कानि गॅमाई ।-- गॅवारि@-वि० [हिं०] मूर्खा । फूहड़ । नॅवारी। हि० गवार-+ता (प्रत्य॰)] गंवारपन । भारती कसी रही ठहराइ ° मूर्खा । फूहड़ । पॅवारी। 30-नंददाडे.