पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/१९

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, १०६५ क्षत्रए क्षणिका क्षणिका-संज्ञा श्री० [सं०] बिजली । विद्युत् । क्षतहर-संना पु० [सं०] अगर का पेड़ । क्षणिनी-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] रात । क्षणदा। क्षता--संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कन्या जिसका विवाह से पहले ही किसी क्षणी-वि० [सं० क्षणिन्] १. अवकाशयुक्त 1 २. क्षणस्थायी ।३. पुरुप से दूपित सबंध हो चुका हो। उत्सव या पानं वाला कोना क्षतारि-वि० [सं०] जेता । विजयी । विजेता (को०] क्षत-वि० [सं०] जिसे क्षति या प्राधात पहुँचा हो । जो किसी क्षताशीच संज्ञा पुं० [सं०] वह अशीच जो किसी मनुष्य को घायल या प्रकार टूटा फूटा या चीरा फाडा हो। जख्मी होने के कारण लगता है। इस अशीच में मनुष्य किसी क्षत-संज्ञा पुं० १. घाव । जख्म । २.द्रण। फोड़ा । २. एक प्रकार का श्रीत या स्मृत्ति कार्य नहीं कर सकता। प्रकार का फोड़ा जो गिरने, दौड़ने या किसी प्रकार का कर क्षति-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हानि । नुकसान । २ क्षय । नाश । ३. कर्म करने से हृदय में हो जाता है। इसमें रोगी को ज्वर .. चोट । घाव (को०)। ४.ह्रास । न्यूनता (को०)। पाता है और खांसने से मुंह से रक्त निकलता है। ४.मारना। क्रि०प्र०—करना ।—पहुँचना।-पहुँचाना ।-होना। . काटना । ५. क्षति या प्राघात पहुँचाना । ६. भय । खतरा। क्षतिग्रस्त-वि० [सं०] किसी प्रकार की क्षति उठानेवाला। . डर (को०)। ७ दुःख । कष्ट (को०)। क्षतिपूर्ति-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] क्षति या हानि पूरी करना । मुनायजा । क्षतकास-संज्ञा पुं० [सं०] क्षत या पाघात से होनेवाली खांसी (को०] । क्षतोदर-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का उदररोंग । . क्षतघ्न-संज्ञा पुं० [सं०] कुकारौंधा। विशेष-इसमें अन्न के साथ रेत. तिनका, लकड़ी, हड्डी । कांटा क्षतघ्नी-संज्ञा श्री० [सं०] लाख । लाद। .. .' 'अादि पेट में उतर जाने, अधिक जंभाई याने या कम भोजन क्षतज-वि० [सं०] १. क्षत से उत्पन्न । जैसे—क्षतज शोथ, क्षतज करने के कारण प्रांते छिद जाती हैं और उनमें से जल विद्रधि । २. लाल । सुर्ख । उ-क्षतज नयन उर बाहु रसफर गुदा के मार्ग से निकलता है । इसे परित्राव्युदर भी विशाला। हिमगिरि निभ तनु कछु इक लाला।-तुलसी : कहते हैं। . . (शब्द०)। क्षत्ता-संक्षा पुं० [सं० क्षत] १. द्वारपाल! दरवान । २.मछली। क्षसज-संज्ञा पुं० १.रक्त । रुधिर । खून। २. मवाद ! पीब । ... ३. नियोग करनेवाला पुरुप । ८. दासीपुत्र । ५. वह वर्णसंकर ३. एक प्रकार की खांसी जी क्षत रोग में होती है। इसमें जिसकी उत्पत्ति क्षत्रिय माता और शूद्र पिता से हो। ६. खखार के साथ रुधिर निकलता है और शरीर के जोड़ों में ग्रह्मा (को०) १७.कोचवान । सारथी (को०) 1 ८ रय द्वारा पीड़ा होती है 1४. सात प्रकार की प्यास में से एक, जो युद्ध करनेवाला । रथी (को०)। ६. कोशाध्यक्ष (को०)। १०. शरीर में शस्त्रों का घाव लगने या बहुत अधिक रक्त निकल 'क्षत करनेवाला काटने या घाव करनेवाला (को॰) । जाने के कारण लगती है। यह प्यास शरीर पर गीला कपड़ा क्षत्र-संज्ञा पुं० [सं०] १. बल । २ राष्ट्र। ३. धन । ४. शरीर । ५. लपेटने से बुझती है। जल । ६.तगर का पेड़ ७.[खो० क्षत्रानी क्षत्रिय । क्षतजतृष्णा -संक्षा श्री० [सं०] चोट लगने या शरीर से अधिक रक्त क्षत्रकर्म-संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रकर्मन्] क्षत्रियोचित कर्म । वह कर्म ५ निकल जाने से उत्पन्न प्यास 1-माधव०, पृ०.१०७ । जिसका करना क्षत्रियों के लिये आवश्यक हो; जैसे, युद्ध से क्षतजदाह-संज्ञा पुं० [सं०] किसी घाव के कारण होनेवाली जलन कभी न हटना, यथाशक्ति दान देना, शत्रुओं का दमन करना, जिसमें दाह के कारण प्यास, मूर्छा और प्रलाप आदि उपद्रव इत्यादि। ...होते हैं। माधव०, पृ०१२०! .. -: . क्षत्रधर्म--संबा पुं० [सं०] क्षत्रियों का : धर्म । यथा-प्रध्ययन, दान, क्षतयोनि-वि० स्त्री० [सं०] जिस स्त्री का पुरुष के साथ समागम हो यज्ञ और प्रजापालन करना, विषय वासनामों से दूर रहना, पादि। क्षतरोहण-संज्ञा पुं० [सं०] घाव का पूरा होमा घाव भरना [को०]। क्षत्रधर्मा-वि० [सं० क्षत्रधर्मन् ] १. क्षत्रियों के धर्म को पालन क्षतविक्षत-वि० [सं०] १. जिसे बहुत चोटें लगी हो । धायल । लहू- करनेवाला । २.वीर । योद्धा। .. लुहान । २. जिसे बहुत प्राघात पहुंचा हो। जो बहुत नष्ट- क्षत्रधति--संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जो सावन की पूर्णिमा - भ्रष्ट किया गया हो। को किया जाता है। क्षतवृत्ति-संक्षा श्री० [सं०) जीविका का नष्ट होना। रोजी का सहारा क्षत्रप-संज्ञा पुं० [सं० या पु. फा०] ईरान के प्राचीन मांडलिक नरहना (को०]। राजाओं की उपाधि । उ०-साम्राज्य में २१ प्रांत थे जिनपर . क्षतवण-संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यम से छह प्रकार के फोड़ों में से एक। , . क्षत्रपों (प्रांतीय शासकों) का शासन था।--प्रार्य० भा०, 1. किसी स्थान के कटने या उसपर चोट लगने के बाद उस . १० १९४ । स्थान के पक जाने की क्षतता कहते हैं। . विशेष---प्रागे चलकर भारत के शक तथा गुजरात के एक क्षतवद-संज्ञा पुं० [सं०] अवकीर्ण व्रत। - : .. 'प्राचीन वंश के राजाओं ने भी यह - उपाधि धारण कर क्षतसर्पण-संवा पुं० [सं०] गतिहीनता । गमनशक्ति का नाथ [को०] 1 ली थी। .... ....... ... ... ... .