पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/२१४

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गौत १२६१ गोदड़ स्वर निकालनेवाले (बीन, सितार, हारमोनियम यादि) गीतायन--संज्ञा पुं० [सं०] गायन के साधन, मृदंग, वीणा, बाँसुरी. बाजों से उत्पन्न ध्वनिसमूह या गीत को यंत्र और मनुष्य के आदि को । गले से निकले हुए को गात कहते हैं। पर साधारण बोलचाल गीति-संशा श्री० [सं०] १. गान । गीत । २.'यार्या छंद के भेदों में . में यंत्र को कोई गीत नहीं कहता, केवल गात को गीत से एक जिसके विषम चरणों में १२ और सम चरणों में १८. कहते हैं। मात्राएँ होती हैं। इसे उद्गाहा या उद्गाया भी कहते हैं। . क्रि० प्र०--गाना। ३. एक साम मंत्र (को०)। महा०—गीत गाना-बड़ाई करना। प्रशंसा करना । जैसे,- गीतिका-संधा पुं० [सं०] १. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में - जिससे चार पैसा पाते हैं उसके गीत गाते हैं । अपना ही गीत २६ मात्राएँ होती हैं, १४ तथा १२ पर यति होती है और . गाना अपना ही वृत्तांत कहना । अपनी ही बात कहना, अंत में लघु गुरु होते हैं। उ० घन्य श्री वसुदेव देवकि, पुत्र . दूसरे की न सुनना। करि जिन पाइया । धन्य यशुमति नंद जिन पय प्याय गोद २. बड़ाई। यश । उ०-गीध मानो गुरु, कपि भालु माने मीत खिलाइया ।-(शब्द०)। २. एक परिणक छंद जिसके प्रत्येक कै, पुनीत गीत साके सब साहेब समत्य के--तुलसी ग्रं, पृ० . चरण में सगण, जगरण, जगण, भगण, रगण, सगण और २०४.। ३. वह जिसका यश गाया जाय। लघु गुरु होते हैं 1३. गीत । गान । गायन ! .... गीत--वि० १. गाया हुमा । २. घोषित । कथित को। गीतिकाव्य-संथा पुं० [सं०] ऐसा काव्य जो गीति प्रधान अथवा गेय .. गीतक' संज्ञा पुं० [सं०] १. गीत । गाना। २. प्रशंसा [को०] । हो और आत्मपरक हो। उ०-गीति काव्य और नेय काव्य गीतकर-वि०१. गीत गानेवाला । २. गीत बनानेवाला [को०। दोनों एक ही वस्तु नहीं हैं। -पोद्दार अभि० प्र०, गृ. १६७ ॥ गीतकार-संज्ञा पुं० [सं०] गीत लिखने वाला ! गीतों की रचना करने- गीतिनाट्य--संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा नाटक जिसमें काव्य की प्रधानता वाला (को०] । हो । काव्य नाटक । उ०—यह दृश्य काव्य गीतिनाटय के .. गीतकीर्ति-वि० [सं०] बहुत प्रसिद्ध । विख्यात (को॰] । ढंग पर लिया गया है ।--फरुणालय, (सूचना) : ... गीतकम-संघा पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार की तान । गोतिरूपक--संधा पु०म०] १. एक प्रकार का रूपक जिसमें गद्य कम गीतगोविंद-संज्ञा पुं० [सं० गीतगोविन्द जयदेव कृत संस्कृत का और पद्य या गान अधिक होता है। २. काव्यरूपक (को०)। .. प्रसिद्ध गीत काव्य । गीता-पि० [सं० गीतिन् ] गाकर पाठ करनेवाला। गाकर पढ़ने- गीतप्रिय'- वि० [सं०] गीतों का प्रेमी । गीतों में रुचि रखनेवाला वाला [को०] । गीत्यार्या--संचा पुं० [सं०] एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ५ नगण (को०]। मौर एक लघु होता है । इसे प्रचलधुति भी कहते हैं। गीतप्रिय-संहा पुं० १. शिव । २. श्रीकृष्ण । उ०-गोपीनाथ पानाथ गीथा-संवा प्रो० [सं०] १. गीत । गाना। २. वचन । वाणी को०]। या . गोविंद गोपसूत गुनी गीतप्रिय गिरिबरधर रसाल के।- सोशिनीfr. मिहथिनी गिरस्तिन। गिरस्ती घनानंद, पृ० ३६५ संभालनेवाली क्षी। गीतप्रिया--संशा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम । गीथिनी-संशात्री० [सं० गृहस्थ] गृहस्थिनी। गहिणार गीतभार---संघा पुं० [सं०] गीत की प्रथम पंक्ति जो टेक के रूप में ... घरनी। उ०--पलटू भूली गीथिनी क भात कहु दाल - होती है। टेक । ०-देखता हूँ मरना ही भारत की नारियों पलटू, भा० १, पृ० १०४ . ". . का एक गीतभार है।-लहर, पृ०७१ । ... गीद --संशा पं० [हिं० गीध] दे० 'गीध' 1 30--रज्जब पहुँच गोद । गीतमोदी-संज्ञा पुं० [सं० गीतमोदिन] किन्नर [को०)। ज्यों अति चलते के पाय ।--रज्जव०, पृ०.१७ । ..... गीतशास्त्र--संशा पुं० [सं०] संगीत विद्या [को०] । .. गीदड़-तथा पुं० [सं० गृध्र-लुब्ध या फा० गोदी] [लो गीदड़ी- गीता--संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह ज्ञानमय उपदेश जो किसी बड़े से सियार । शृगाल। भेड़िए या कुत्ते की जाति का एक जानवर मांगने पर मिले । जैसे,--रामगीता, शिवगीता, अनुगीता, जो लोमड़ी से मिलता जुलता होता है। ::: उत्तरगीता अादि । २. भगवद्गीता । ३. संकीर्ण राग का एक विशेष---यह झुंडों में रहता है और एशिया तथा अफिका में .. भेद । ४.२६ मात्रा का एक छद जिसमें १४ और १२ मात्रायों सर्वत्र पाया जाता है। दिन में यह मांद में पड़ा रहता है और पर विराम होता है। उo---मन बावरे अजहूँ समझ संसार रात को झुड के साथ निकलता है: और छोटे छोटे जंतु | भ्रम दरियाउ । इहि तरन को यहीं छोड़ के कछु नाहिं और जैसे, भेड़ मुर्गी, बकरी प्रादि पकड़कर खाता है। कभी कभी उपाय ।-(शब्द०)। ५. वृत्तीत । कथा । हाल । उ०- यह मुर्दे तथा मरे हुए जीवों की लाश खाकर ही रह जाता है। | . सोता गीता पुत्र की सुनि सुनि भई अचेत । मनो चिन की यह कुते के साथ जोड़ा खा जाता है। गीदड़ बहुत. डरपोक .. पुत्रिका कन क्रम बचन समेत ।-केशव (शब्द॰) । समझा जाता है। गीतातीत-वि० [सं०] १. जो गाया न जा सके। गान के परे । २. यौगीदड़ भवको मन में डरते हुए भी कार से दिख ऊ साहस जिसका वर्णन न किया जा सके। अकथनीय [को०] या क्रोध प्रकट करने की क्रिया। ..... .. ... जीत