पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/२२

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क्षायण क्षयरण-संवा पुं० [सं० १. शांउ जलाशय । २.निवास का स्थान ३ .. करा लेते हैं। मैंनु जी ने इसे पुरुषानुक्रमिक बतलाया है और बंदरगाह या खाड़ी [को०] 1.. . इसके रोगी के विवाह प्रादि संवध का निषेध किया है। क्षयतर-संशा पुं० [सं०] स्थाली का वृक्ष । बेलिया पीपल ! डाक्टरी मत से इस रोग की तीन अवस्थाएं होती हैं। मार- क्षयतिथि-संश. सी० [सं०] वह चांद्र तिथि जिसमें प्रात: काल मिक अवस्था में रोगी को खूनी शांती पाती है, थकावट सूर्योदय नहीं होता। तिथि फ्रेम में इसकी गरगना नहीं की मालम होती है, नाड़ी तेज चलती है और कभी कभी मुह से . जातीयाह [को०)। .... .. .. कफ के साथ रक्त भी निकलता है । मध्यम अवस्था में खांसी क्ष यथु-संवा पुं० [सं०] खांसी! कास । क्षय की खांसी। .. - 'बढ़ जाती है, रात को ज्वर रहता है. अधिक पसीना होता है. क्षयनाशिनी-संज्ञा सी० [सं०] जीवंती या डोडी का वृक्ष । शरीर में बल नही रह जाता, छाती और पसलियों में पीड़ा होती है, मुह से कफ की पीली गां निकलती हैं और दस्त क्षयपक्ष-संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण पक्ष । अंधेरा पक्ष । प्राने लगता है । इस अवस्था के प्रारंभ में यदि चिकित्सा का क्षयमास-संज्ञा पुं० [सं०] वह चांद्र मास जिसमें दो संक्रांतियाँ पढ़ती ...... ठीक प्रबंध हो जाय, तो रोगी बच सकता है । अंतिम अवस्था हैं। यह मास ३४१. वर्षों के पश्चात् आता है। कभी कभी . . . में रोगी का शरीर विलकुल क्षीण हो जाता है और मुंह से .. यह उन्नीस वर्ष भी पड़ता है [को०! .. अधिक रक्त निकलने लगता है । उस समय यह रोग बिलकुल क्षयरोग-संज्ञा पुं० [सं०] यक्ष्मा का रोग । तपेदिक [को०)। असाध्य हो जाता है। यदि अधिक प्रयत्न किया जाय, तो क्षयरोगी-वि० [सं० क्षयरोगिन् ] क्षयरोग से ग्रस्त [को०]i रोगी कुछ काल तक जी सकता है। क्षयवान-वि० [सं० क्ष यवत् ] [ बौः क्षयवती.नाशवान् ! नष्ट क्षय्य-वि० [सं०] क्षय होने योग्य । जिसका क्षय हो सके। होनेवाला! 'क्षर-वि० [सं०] १. नाशवान् । नष्ट होनेवाला । 3०-क्षर देह क्षयवायु-संवा स्त्री० [सं०] १. प्रलयकाल में चलनेवाली वायु । प्रलय यहाँ का यहीं रहा।-साकेत, पृ० १६३ 1 २. चल । जंगम । की वायु [] क्षर-संवा पुं० १. जल । २. मेघ । ३. जीवात्मा। ४. शरीर। क्षयसंपद्-संवा सी० [सं० क्षयपसम्पत्] विनाश । सर्वनाश [को०)। ५. अंज्ञान । ६. कार्य कारण रूप वस्तु या द्रव्य जिसका क्षण क्षयाह-संशा पुं० [सं०] १. क्षयतिथि' [को०] 1..: ... " .. क्षण अवस्थांतर हया करता है। क्षयिक-वि० [सं०] क्षयरोगग्रस्त वियपीड़ित (को०] . रण-संवा पुं० [सं०] १. रस रस के चूना ।नाव होना । रसना। क्षयित-वि० सं०] १. नष्ट । २. क्षय रोग से पीड़ित (को०] 1 २. झगड़ा। ३. विकार प्राप्त होना नाश या क्षय होना। ४ क्षयित्व -संबा पुं० [२०] क्षय का भाव। ... ......... छूटना। . क्षयिष्ण-वि० [सं०] क्षय होनेवाला । नष्ट होनेवाला।... क्षरपत्राक्षरपत्री-संशा सी० [स०] दे० 'क्षवपत्री'। क्षयी-वि० [सं० क्षयिन] १. क्षय , होनेवाला । नष्ट होनेवाला। २. क्षरित-वि० [सं०] टपका हुमा । चुमा हुपा । नवित (को०] । क्षय रोग से ग्रस्त । जिसे क्षय या यक्ष्मा रोग हो । क्षरी-संवा पुं० [स०क्षरिन] वर्षाकाल । बरसात । क्षयी-संबा पुं० [सं०] चंद्रमा । क्षव-संधा. (स०] १. छौंक ! २. खासी । ३. राई [को०] 1 विशेप-पुराणानुसार दक्ष के शाप से चंद्रमा को क्षय रोग हो 'क्षवक-संघा पुं० [सं०] १. अपामार्ग। लटजीरा। २. राई । गया था इसी से उसे क्षयी कहते हैं। ...: ...३. लाही . क्षयो-संशा श्री [सं० क्षय] एफ प्रसिद्ध रोग । यक्ष्मा.। राजयक्ष्मा। क्षवकृत-संथा पुं० [सं०] नचिकनी नामक पौधा । क्षय । तपेदिक । क्षवथ संथा पुं० [सं०] नाक के ३१ प्रकार के रोगों में से एक प्रकार विशेष--इस रोग में रोगी का फेफड़ा सढ़ जाता है और सारा का रोग जिसमें छींके बहुत अधिक घाती हैं। शरीर धीरे घेरे गल जाता है। इसमें रोगी का शरीर गरम ': । विशेष-सुश्रुत के अनुसार अधिक तीक्ष्ण पौर चरपरे पदार्थ रहता है, उसे यौसी पाती है और उसके मुंह से बहुत बंदळदार उघने, सूर्य की मोर देखने और नाक में अधिक बत्ती जाति कफ निकलता है जिसमें रक्त का भी कुछ अंश रहता है। ठूसने से उसके प्रदर का मर्मस्थान दुपित हो जाता है और धीरे धीरे रक्त की मात्रा बढ़ने लगती है और रोगी कभी कभी : अधिक छींक माने लगती है । इसी को क्षवयु कहते है। . रक्तवमन भी करता है। ऋग्वेद के एक सूक्त का नाम क्षवपत्रा-संवा सौ [सं०] दे० 'क्षवपी'। 'यक्ष्मान' है, जिससे जाना जाता है कि वैदिक काम में इसका क्षवपनी-संशश की[स०द्रोणपुप्पी । गूमा। रोगी मंत्रों से साया जाता था। चरक ने इस रोग का कारण विशेष-द्रोणपुष्पी की पत्ती पने से छींक पाती है, इसीलिये - वेगावरोध, घातुक्षय, दुःसाहस पौर विपक्षण प्रादि बतलाया उसे क्षवपया कहते हैं। कोई कोई इसे 'क्षरपत्रा' भी कहते है। है। और सुश्रुत के मत से इन कारणों के अतिरिक्त बहुत क्षविका-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का बनभंटा । कटाई वटा अधिक या बहत कम भोजन करने से भी इस रोग की उत्पत्ति विशेष-देखने में यह भटकटया से मिलता जपता होतात होती. वंद्य लोग इसे महापातकों का फल समझते हैं और इसके परी वैगन के पत्तों से मिलते हैं पीर फल भटकटयारे इसके रोगी की चिकित्सा करने के पहले मससे प्रायश्चित्त '. समान, पर उससे कुछ ही बड़े घोर चितकबरे होते है या