पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/२६६

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गोडी १३४३ गोत्रज लगाकर ता" मुहा०-गोडी जमना या लगाना= उद्योग में सफलता होना। सतगुर बस गोता खावे । (२) धोखे में पाना। फरेव में धाना। फायदे के लिये जो चाल चली गई हो उसका सफल होना। गोता देना = (१) डुबाना । (२) धोखा देना । गोता. लाभ होना। गोडी हाय से जाना=कुछ हाथ न लगना। कुछ मारना=(१) डुबकी लगाना। डूबना । (२) स्त्रीप्रसंग 'लाभ न होना। करना (अशिष्ट)। (३) बीच में अनुपस्थित रहना । नागा गोड़ी संशा स्त्री० [हिं० गौड पर। चरण। करना। गोता लगाना= दे० 'गोता मारना' . मुहा०--गोडी अ.गा या पड़ना-चरण पड़ना । किसी का किसी यो०-गोताखोर । गोतामार । स्थान पर प्राप्त होना। गोताखोर-संश्था पुं० [अ० गोताखोर दुबकी लगानेवाला। दुबकी गोडुबा--संज्ञा स्त्री॰ [सं० गोडुम्या तरवूज [को॰] । मारनेवाला। गोड़त--संज्ञा पुं० [हिं० गोडइत] २० 'गोड़ इत' । उ०-गोईत और विशेष-गोताखोर प्रायः कुएँ या तालाव आदि में गोता लगाकर सिपाहियों की दौड़धूप चलने लगी।-पाकाश०, पृ० १०८ । उनमें से कोई गिरी हुई चीज लाते अथवा समुद्र आदि में गोता गोढ़ -वि० [सं० गूढ, हिं० गूढ़] दे० 'गूढ़' । उ०-ईण सू हंसि लगाकर सीप; मोती आदि निकालते हैं। न वोलज्यो, राजनि उइ भीतरी गोढ़।-वी० रासो, पृ०५१। गोतामार-संषा पुं० [हिं० गोता+मार] दे० 'गोताखोर'। गोढ@---क्रि० वि० [हिं०] दे० 'वंडे'। उ०--पंचोली हरिकिसन गोतिया-वि० [सं० गोत्र+इया (प्रत्य॰)] [वि० स्त्री गोतिनी ] बड़े पण, गोढ़े इंद्रभाण साचै गुण । - रा० रू०, पृ० ३१६। अपने गोत्र का । गोती। गोरणी-संशा स्त्री० [सं०] १. टाट का दोहरा बोरा जिसमें अनाज गोती-वि०सं० गोत्रीय] अपने गोत्र का। जिसके साथ शौचाशोच पादि भरा जाता है। गोन । २. एक पुरानी माप या तोल का संबंध हो । गोत्रीय । भाई बंधु । उ०-विधु मानन पर जो सुश्रुत के अनुसार दो सूप के बराबर होती थी। ३ मीना दीरप लोचन नासा मोती लटकत री। मानो सोम संग करि कपड़ा । छनना । लीनो जानि आपनो गोती री ।-सूर (शब्द०)। गोत-संज्ञा पुं० [सं० गोत्र] १. कुल । वंश । खानदान । उ०-राम गोतीत-वि० सं०] जो ज्ञानेंद्रियों द्वारा न जाना जा सके।ज्ञानद्रियों . भक्त वत्सले निज बानो। जाति गोत कुल नाम गनत नहि द्वारा न जानने योग्य । अगोचर । उ०-भक्त हेतु नर विग्रह रंक होइ के रानो।--सूर (शब्द०)। २. समूह । जत्था । सुर वर गुन गोतीत। -तुलसी (शब्द०)। (ख) देव ब्रह्म . गरोह । उ०- (क) सुनि यह स्याम विरह भर ।.......... व्यापक यमल सकल पर धर्महित ज्ञान गोतीत गुन वृत्ति सखिन तव भुज गहि उठाए कहा बावरे होत । सूर प्रभ तुम हा।-तुलसी (शब्द०)। (ग) अतुलित बल वीर्य विरक्ति । चतुर मोहन मिलो अपने गोत । सूर (शब्द०)। (ख) दिन वरं । गुण ज्ञान गिरा गोतीत परं ।-विथाम (शब्द०)। रैनि मै भावन के रचे गीत उदोत मई नित जान्यो पर।- गोंतीर्थ-संघा पुं० [सं०] गोशाला (को०] । हरिसेवक (शब्द०)। गोतीर्थक-मंधा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार फोड़े आदि चीरने का गोतउचार@-संज्ञा पुं० [सं० गोत्र+उच्चार] दे० 'गोत्रोच्चार"। एक प्रकार जिराके अनुसार कई छेदोंवाले फोड़े चीरे जाते हैं। उ-दुहू ना होह गोत उचारा। करहिं पदुमिनी मंगल- गोत्र-संसा पु० [सं०] १. संतति । दान । २. नाम । ३. बन चारा ।--जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१५ । वर्म । ४. राजा का छत्र । ५. सम्ह । जत्या । गरोह । ६. गोतम--संज्ञा पुं० [सं०] १. गोत्रप्रवर्तक एक ऋपि। २. एक मंत्रकार वृद्धि । बढ़ती । ७. संपत्ति। धन । दौलत । ८. पहाड़ । ६. . ऋपि । बंधु । भाई। १०. एक प्रकार का जातिविभाग। ११. वंश । गोतमक-संज्ञा पुं० [सं०] गौतम बुद्ध के अनुयायी। उ०-युद्ध के कुल । खानदान । १२. कुल या वंश की संज्ञा जो उसके किसी धर्मप्रचार के समय भारतवर्ष में ६२ विविध संप्रदाय ये मूल पुरुष के अनुसार होती है। .. जिनमें मागंदिक, गोतमक. आदि मुख्य थे।---प्रा० भा०, विशेष-ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विजातियों में उनके भिन्न पृ० १४० । - भिन्न गोत्रों की संा उनके मूल पुरुष या गुरु ऋषियो क गोतमपुत्र--संज्ञा पुं० [सं०] शतानंद [को०)। नामों के अनुसार है। गोतमस्तोम-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ । गोत्रकर-संचा पु० [सं०] गोत्रप्रवर्तक ऋषि । उ०-ये सारे गोत्रकर गतिमा-संज्ञा स्त्री० [सं०] गौतम ऋषि की स्त्री अहिल्या कापि गंगा के आसपासवाले प्रदेश में १५०० ६० पू०१ एक नाम । आसपास दासता और सामंतवादी युग में हुए थे।-भा० इ० ‘गोतर -मंगा बी० [सं०] दे० 'गोत्र'। उ०-ऐसे ढीठ ढिग ढुको रू०, पृ० २०। ताके होइ तिहारी गोतर ।--घनानंद, पृ० ३६०। गोत्रकर्ता मंचा पुं० [सं० गोत्रक] गोत्रप्रवर्तक [को॰] । 'गोता--संक्षा पुं० [अ० गोतह.] जल आदि तरल पदार्थों में डूबने को गोत्रकार-संचा पुं० [सं०] गोत्रप्रवर्तक [को०)। क्रिया । डुब्बी। गोत्रकारी-संक्षा पुं० [सं० गोत्रकारिन] गोत्र प्रवर्तक ।को०] । - मुहा०---गोता खाना=(१) जल आदि तरल पदार्थों में डूबना। गोत्रज-वि० [सं०] एक ही गोत्र में उत्पन्न एक ही पूर्वज का दुबकी लगाना। उ०--यह जग जीव थाह नहि पावै । बिन एक ही वंशपरंपरा का ।