पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/२६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गोधी. गोनिया

..::" में रहता है और जिसका शब्द बहुत कठोर होता है । ३. है । लदने पर इसका एक भाग बैल के एक तरफ और दूसरा
- एक प्रकार का गिरगिट।

दूसरी तरफ रहता है। उ०-भरी गोन गुड़ तजै तहाँ से - गोधी-संवा बी० [सं० गोधून] एक प्रकार का गेहूँ।। साँझ भागे ।-पलटू, भा० १, पृ० १०७ । २. साधारण विशेप-यह दक्षिण भारत में अधिकता से होता है और इसकी बोरा। खास वोरा । ३. टाट का कोई थैला ।-(लश)।४. भूसी जल्दी नहीं छूटती । इसमें विशेपता यह है कि यह खरीफ अनाज की तौल जो १६ भानी (२५६ सेर) की होती है। ... .की फसल है और कहीं कहीं यह साल में दो बार भी वोवा गौन-संवा सी० [सं० गुण ] मूज प्रादि की बनी हुई वह रस्सी जाता है । यह बहुत ही साधारण भूमि में भी, जहाँ और गेहूँ जिसे नाव खींचने के लिये मस्तूल में बांधते हैं। - नहीं हो सकता, उत्पन्न होता है। ऊपरी छिलका बहुत कड़ा गोन-संवा बी० दिश०] एक प्रकार की पास। . होने के कारण इसकी फसल को पक्षी भी हानि नहीं पहुंचा विशेप-यह यूथी की तरह की होती है और इसका साग ___बनता है। गोधुम-संश पुं० [सं०] गोधूम । गेहू को। गोन -संगा पुं० [सं० गमन, प्रा० गमण, ] दे॰ 'गमन' । उ०- गोधूम-मा पुं० [सं०] १. गहूँ। २. नारंगी। करी सेन गोनं मिलानं दवानं । बढ़ी वैय बाजू सरिता .. गोधूमक-संशा पुं० [सं०] नहुधन या गोहुमन नाम का साँप । कि जानं 1-पृ० रा०, १२ । १८० ।।

गाघूमचूर्ण-संश पुं० [सं०] गेहू का आटा किो ।

. गोनरखा-संज्ञा पुं० [हिं० गोन=रस्सी+रखना] नाव का बह --- गोवुमसार - संचा पुं० [सं०] गेहूँ का सत [को०] । मस्तूल जिसमें गौन बाँधकर उसे खींचते हैं। - गोवूरक -संश मो० [सं० गोधूलि दे० 'गोधुलि' । उ०-- चहुबान गोनरा-संज्ञा पुं० [सं० गुन्द्रा] उत्तरी भारत में होनेवाली एक रत्त तोरन समय, लगन गोधरक संधयो!-पृ० रा०,१४।२२ प्रकार की लंबी धास। वि० दे० गोंदरा'। गोलक -संक्षा श्री० [सं० गोधूलि ] दे० 'गोधुलि' । उ०-वैत विशेष—यह पशुओं के चारे के काम में आती है। इससे चटाई सुकल पखंतीज, लगन गोधुलक रजिजय ।-पृ० रा०, १६ भी बनती है जो बहुत मुलायम और गरम होती है। १४.. गोनर्द-संज्ञा पुं० [सं०] १. नागरमोथा। २. सारस पक्षी । ३. एक धूलि-संचासी० [सं०] वह समय जब जंगल से चरकर लौटती प्राचीन देश जहां महर्षि पतंजलि का जन्म हुआ था। ४., हुई गायों के खुरों से धुलि उड़ने के कारण घुघली छा जाय। - महादेव । 'संध्या का समय । __ गोनीय-संज्ञा पुं० [सं०] महाभाष्यकार पतंजलि को। ... विशेप-(क) ऋतु के अनुसार गोधूलि के समय में कुछ अंतर गोनस-संज्ञा पुं॰ [सं०] १.एक प्रकार का साप । २. वैक्रांत मरिण। . भी माना जाता है। हेमंत और शिशिर ऋतु में सूर्य का तेज गोनसा-संज्ञा श्री [सं०] गाय का मुह (को०)। बहुत मंद हो जाने और क्षितिज में लालिमा फैल जाने पर, गोना'-@-क्रि० स० [सं० गोपन] छिपाना । लुकाना ! पोशीदा ... वसंत और ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य प्राधा अस्त हो जाय, और करना । उ०---(क) मुकुलित कच तन धनिक यौट है वर्पा तथा शरत् काल में सूर्य के बिलकुल अस्त हो जाने पर . अँसूवन चीर निचोवति । सूरदास प्रभु तजी गर्व से भए प्रेम गोधूलि होती है। (ख) फलित ज्योतिप के अनुसार गोधुलि गति गोवति ।- सूर (शब्द॰) । (ख) ऐसिउ पीर बिहंसि तेई .... का समय सब कार्यों के लिये बहुत शुभ होता है और उसपर गोई । चोर नारि जिमि प्रकट न रोई।—तुलसी (शब्द॰) । 'नक्षत्र, तिथि, करण, लग्न, वार, योग और जामित्रा प्रादि के गा tatta .. दोप का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। इसके अतिरिक्त इस गोनाथ संज्ञा पुं० [सं०] १ बैल । साँड़। २. भूमिपति । ३. पशुपा- - संबंध में अनेक विद्वानों के और भी कई मत हैं। .. . लक । गोपालक [को०] । गोधूली-संज्ञा जी० [सं०] दे० 'गोधूलि' । गोनाय--संज्ञा पुं० [सं०] ग्वाला [को०] । गोधनु-संज्ञा ली [सं०] सवत्सा दुधारू गाय (को०)। गोनाशन-संज्ञा पुं० [सं०] वृक । भेड़िया (को०] । गोवर-संश्चा- पुं० [सं०] १. रक्षक । २. अभिभावक [को०] 1. .. गोनास--संज्ञा पुं० [सं०] ३० 'गोनस' (को॰] । गोंध्र-संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ । पर्वत । गोनासा--संज्ञा पी० [सं०] गोजसा । गाय या बैल का मुह (को०)। .. गोनंद-संधा. पं० [सं० गोनन्द] १. कार्तिकेय के एक गरण का नाम। गोनिया-संघा श्री० [सं० कोण, हिं० कोना---इया (प्रत्य॰)] ....२.; अनेक पुराणों के अनुसार एक देश । बढ़ई, लोहार और राज यादि का एक प्रीजार जिससे वे किसी गोनंदा- संज्ञा स्त्री॰ [सं० गोनन्दा] पार्वती । दुर्गा (को०] । दीवार या कोने की सिधाई जाँचते हैं । साधन । गोनंदी-संशा बी० [भ० गोनन्दी] सारत की मादा । सारती [को०]... विशंप--यह समकोण होता है और बिलकुल लकड़ी या' लोहे गान --- संधास्त्री० [सं० गोणी] १. शाट, कवन या चमड़े यादि की का अथवा आधा लकड़ी का और प्राधा लोहे का बनता है। . .. बनी हुई वह परजी जिसमें दो और अनाज आदि भरने का. गोनिया--संवा पुं० [हिं० गोन-बोरा+इया (प्रत्य) स्वयं . स्थान होता है और जो भरकर बैलों की पीठ पर रखी जाती अपनी पीठ पर या बलों की पीठ पर लादकर बोरे ढोनेवाला।