पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/२७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गोमर १३५१ गोमेघः गोमर--संज्ञा पुं० [हिं० गौ+मर (प्रत्य०)] गौ मारनेवाला । बूचर। गोमूढ़--वि० [सं० गोमूढ ] बैल के समान मूर्ख को०]। .. कसाई । गोहिंसक । उ०—हा वल सिंधु लखन सुखदाई। परी गोमूत्र--संवा पुं० [सं०] गाय का मूत्र [को०] | तात गोमर कर गाई ।-विश्राम (शब्द०)। " गोमूत्रक---संवा [सं०] १. वैदूर्य मरिण का एक भेद। २. गदायुद्ध गोमल-संज्ञा पुं० [सं०] गोवर। का एक दाँव [को०)। गोमा-संज्ञा सं० [देश॰] गोमती नदी। गोमूत्रिका-संवा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसके गोमाता-संथा स्त्री० सं० गोमातृ] १. मातृतुल्य गोजाति । २. गोवंश अक्षरों को पढ़ने में उस कम से चलते हैं, जिस क्रम से बैलों के की प्रादिमाता । ३. कश्यप की पत्नी जिसका नाम सुरभि मूतने से बनी हुई रेखा जमीन पर गई रहती है। '.. था [को। गोमाय -संज्ञा पुं० [सं० गोमायु] दे॰ 'गोमायु'। उ०-उचित होय विशेष-इस चित्रकाव्य के पढ़ने का क्रम यह है कि पहली पंक्ति सो करिय करत लाजहिं नहिं मरिय। बारन वृद विदारन का एक अक्षर पढ़कर फिर दूसरी पंक्ति का दूसरा, फिर पहली का तीसरा, फिर दूसरी का चौथा फिर पहली का पांचवां और दलि गोमायन डरिय।-नंद० ग्रं०, पृ० २०६। दूसरी का छठा और फिर आगे इसी क्रम से पढ़ते चलते हैं। गोमायु--संज्ञा पुं० [सं०] १. सियार । गीदड़ । शृगाल । उ०—(क) ऐसी कविता के पद बनाने में यह आवश्यक होता है कि उसके चल्यो भाजि गोमायु जंतु ज्यों लै केहरि को भाग । इतने पहले और दूसरे (और आवश्यकता पड़ने पर तीसरे, चौथे ।' रामचंद्र तह पाए परम पुरुष वड़ भाग (--सूर (शब्द०)। और पांचवें, छठे अादि ) चरणों के दूसरे, चौथे, छठे आठवें २. एक गंधर्व का नाम । ३. एक प्रकार का मेंढक (को०)। ४. दसवें, वारहवे, चौदहवें और सोलहवें (और यदि चरण अधिक । गाय की खाल (को०)। गोभो-संज्ञा पुं०सं० गोमिन्] १. शृगाल । सियार । गीदड़ । २. लंबा हो तो समसंख्या पर पड़नेवाले सभी) अक्षर एक हो । .... पृथ्वी । - (डि.)। इसे वरधामूतन भी कहते हैं। .. गोमीन-संथा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली (को०] । २. एक प्रकार की घास जिसके बीज सुगंधित होते हैं और गोमुख-संदा पुं॰ [सं०] १. गौ का मुंह । जो औपध के काम में आती है। वैद्यक में इसे मधुर, . मुहा०-गोमुख नाहर, गोमुख व्याघ्र-वह मनुष्य जो देखने में वीर्यवर्धक और गौमों का दूध बढ़ानेवाली कहा है। . ...... बहुत ही सीधा पर वास्तव में बड़ा क्रूर और अत्याचारी हो। पर्या-रक्ततृणा । क्षेत्रना । कृष्णभूमिजा। उ०-देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनि के न्याय !---तुलसी ३. कौटिल्य कथित सर्पसारी नामक व्यूह । ४. पीतमणि (शब्द०)। जिसका रंग लाली लिए पीला होता है (को०)। ५. शीतलः .. २. बजाने का एक शंख जिसका आकार गौ के मुह के समान चीनी (को०)। होता है। उ०-गोमुख, किन्न रि, झांझ, बीच विच मधुर गोमृग-संज्ञा पुं० [सं०] गवय । नीलगाय को०] । उपंगा ।-नंद० ग्रं॰, पृ० ३८६ । ३. नरसिंहा नाम का गोमेद संधा पुं० [सं०] १. गोमेदक मरिण । २. शीतल चीनी । कवाब...' बाजा । उ० ---एक पटह एक गोमुख एक आवझ एक झालरी। एक अमृत कुंडली रवाब भांति सों दुरावे। सूर (शब्द०)। गोमेदक-संगा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध मणि जिसकी गणना नो .. ४. गौ के मुख के आकार की वह थैली जिसमें माला रखकर रत्नों में होती है । उ०-हीरे के थे कुसुम फल थे लाल गोमे- जप करते हैं । गोमुखी । ५. नाक नामक जलजंतु । ६. योग दकों के 1-प्रिय०, पृ० १३२। का एक प्रासन । ७. एक प्रकार की सेंध जो गी के मुह के विशेष- इसका रंग सुर्जी लिए हुए पीला होता है और यह प्राकार की होती है। ८. टेढ़ा मेढ़ा घर। ६. ऐपन । १०. एक हिमालय पर्वत तथा सिंधु नदी में पाई जाती है । जो दोप यज्ञ का नाम । ११. इंद्र के पुत्र जयंत के सारथी का नाम । हीरे में होते हैं वे ही इसमें भी होते हैं । सुश्रुत के मत से इस गोमुखी--संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊन आदि की बनी हुई एक प्रकार की 'मणि से गंदा जल वहुत साफ हो जाता है । यह राहु ग्रह का : थैली जिसमें हाथ रखकर जप करते समय माला फेरते हैं। " मणि मानी जाती है, इसीलिये इसे राहुग्रह या राहुरत्न भा इसका आकार गाय के मुह का सा होता है। इसे जपमाली कहते हैं। या जलगुथलो भी कहते हैं। . पर्यो०--राहुमरिण । तमोमरिण । स्वभीनव। लिंगस्फटिक । विशेष-जप करते समय माला को सबकी दृष्टि की भोट में २. काकोल नामक विष जो काला होता है। ३. पत्रक नामक रखने का विधान है। इसी लिये गोमुखी का व्यवहार होता है। साग । ४. अंगराग लेपन (को०)। २. गी के मुह के आकार का गंगोत्तरी का वह स्थान जहाँ से गोमेध-संज्ञा पुं० [सं०] अश्वमेध के ढंग का एक यज्ञ। .. गंगा निकलती है । ३. राढ़ देश की एक नदी जिसे आजकल . विशेष--इसमें गौ से हवन किया जाता था। इसका अनु गोमुड़ कहते हैं । ४. घोड़ों की एफ भवरी जो उनके कारी प्ठान कलियुग में वर्जित है। मनु के अनुसार ला होठों पर होती है और जो अच्छी समझी जाती है। ...प्रायश्चित्त के लिये और गोभिल गृह्यसूत्र के अनुसार पुष्टि-:.1 . . गोमुद्री-संक्षा बी० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का वाजा . कामना से इस यज्ञ का अनुष्ठान होता है। इसे गोसव यन. ।

जिसपर चमड़ा मढ़ा रहता था।

गोमेदक मणि गोमेदकानी। भी कहते हैं। . .