पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/२९०

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ग्रंस १३६७ स-संशा पुं० सं० ग्रंथि कुटिलता] १. कुटिलता। छल कपट । उ०-सखी री मथुरा में द हंस । वै अऋ र ए उधौ सजनी जानत नीके गंस । -सूर (शब्द०)। २. वह जो छल कपट करता हो । कुटिल । ३. दुष्ट । उपद्रवी। ग्रजंत--वि० [सं० गर्जन्त] गरजता हुआ । उ०-हलमिलग सेन वे वाह वीर । वरस अनंग अज्जत धीर ।-पृ० रा०, १२६५६ । ग्रज्जना-क्रि० प्र० [सं० गर्जन] गर्जन करना। गंभीर और जोर का शब्द करना । उ०-झर सीस तुट्टी बिछुट्टै विहारं । कर गल्ल ग्रज्जे पिसाचं चिहारं ।-पृ० रा०, १२।१०४ । ग्रथन- संहा पुं० [सं०] १.ग्रंथन । गूथने की क्रिया । २.एक जगह नत्थी करना। ३.जमा का कार्य । गाढ़ा करना। ग्रंथ- रचना करना। लिखना [को०)। अथित'-वि० [सं०] १.एक जगह नत्थी किया हुआ या बांधा हुआ। ग्रंथित । उ०-प्रतिक्ष रण में उलझा है कल्पों का ग्रथित जाल । -अपलक०, पृ० ८७ । रचा हुना। रचित। ३. क्रमबद्ध । श्रेणीबद्ध । वर्गीकृत । ४. जमा हुआ। गाढ़ा किया हुआ। ५. पाहत । क्षत । ६.अधिकृत 1 ७.वजित । ८. गांठ युक्त। गांठवाला [को०)। ग्रथित - संज्ञा पुं॰ कठिन गाँठवाली गिल्टी [को । ग्रभ'-संज्ञा पुं० [सं० गर्भ] दे० 'गर्भ' । उ०-मास सपत अजमाल __मात ग्रभ वास महावल ।-रा०६०, पृ० २५। अभ -संज्ञा पुं० [सं० गर्व] दे० 'गर्भ' । उ०---गिरतनयापत सिख ग्रभ गंजण सुध निस बासर सेवं ।-रधु० रू०, पृ० २५ । गम्भनी--वि० सी० [सं० गाभणी] गर्भवती । हामिला । उ०-- पुरसान थान खलभल परिय । अम्भपात भय ग्रम्भनिय । -पृ० रा०११७१६ । असन--संघा पुं० [सं०] १.भक्षण। निगलना। २. पकड़ । ग्रहण । ३. खाने के लिये पकड़ना । इस प्रकार चंगुल में फाँसना जिसमें छूटने न पावे। ४.ग्रास । ५. एक असुर का नाम । ६. ग्रहण । ७. दस प्रकार के ग्रहणों में से एक जिसमें चंद्र या सूर्यमंडल पाद, अद्ध या त्रिपाद ग्रस्त हो । विशेष-प.लित ज्योतिप के अनुसार ऐसे ग्रहण का फल घमंडी राजाओं का धननाश और धर्मंडी देशों का पीड़ित होना है। ८. मुख। जवड़ा (को०)। ग्रसना-क्रि० स० [सं० ग्रसन] १. बुरी तरह पकड़ना । इस प्रकार पकड़ना कि छूटने न पावे । उ०--टेढ़ जानि शंका सव काहू । वक्र चंद्रमा ग्रस न राहू --तुलसी (शब्द॰) । २.सताना । ग्रसपति- संज्ञा पुं० [सं०] एक सीधी पंक्ति में पत्थरों पर खोदी हुई मनुप्यमुख की प्राकृतियाँ। विशेष—इसका व्यवहार प्राचीन काल में देवमंदिरों में शोभा के लिये होता था। ग्रसान-वि० [हि० ग्रसमा] 'दे० 'ग्रस्त' । उ०- तिन मुख सोम मिल चाहुवान । मानो कि रिष्पि दरिया नसान ।-पृ० रा०, ११६६३ । . . . ग्रसित-वि० [सं० ग्रस्त दे० 'ग्रस्ता .... ग्रसिष्ण --वि० [सं०] निगलने का अभ्यस्त । २. ग्रसनशील [कोला असिष्ण-संशा पुं० ब्रह्म (को०)। अस्त--वि० [सं०] १. पकड़ा हुआ। २. पीड़ित। ३. खाया हुआ ! ४. प्राधे उच्चारण किए हुए । अर्ध उच्चारित (शब्द०) (को०)। ५ . ग्रहण युक्त (को०) । ग्रस्ता-वि० [सं० ग्रस्तु] ग्नास करनेवाला । भक्षक (को० ॥ ग्रस्तास्त-संगा पुं० [सं०] ग्रहण लगने पर सूर्य या चंद्रण का दिना मोक्ष हुए अस्त होना। अस्ति--संज्ञा सो० [सं०] ग्रसने की क्रिया । नमन [को०। ग्रस्तोदय-संघा पुं० [सं०] चंद्रमा या सूर्य का उस अवस्था में उदय होना जब उन पर ग्रहण लगा हो। . ग्रस्य-वि० [सं०] ग्रसने योग्य । खा जाने योग्य को०] ... ग्रह ---संज्ञा पुं० [सं०] १. वे तारे जिनकी गति, उदय और अस्त काल आदि का पता ज्योतिपियों ने लगा लिया था। . .. विशेष—(क) प्राचीन काल के ज्योतिषियों में इन ग्रहों की संख्या के संबंध में कुछ मतभेद था । वराहमिहिर ने केवल सात. ग्रह माने हैं; यथा-- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र और शनि । फलित ज्योतिप में इन सात ग्रहों के अतिरिक्त राहु और केतु नामक दो और ग्रह माने जाते हैं और अनेक मांगलिक अवसरों पर इन ग्रहों का विधिवत् पूजन होता है । एक विद्वान् के मत से ग्रहों की संख्या दस है; पर यह कहीं मान्य नहीं है। अधिकांश लोग फलित ज्योतिप के अनुसार ग्रहों की संख्या नौ ही मानते हैं और इसी लिये ग्रह नौ की संख्या का बोधक भी है। फलित ज्योतिप में प्रत्येक ग्रह को कुछ विशिष्ट देशों, जातियों, जीवों और पदार्थों का स्वामी माना है और उनका वर्ण विभाग किया गया है । उनमें गुरु और शुक्र को ब्राह्मण, मांगल और रवि को क्षत्रिय, वुध और चंद्रमा को वैश्य और शनि, राहु तथा केतु को शूद्र कहा गया है। मंगल और सूर्य का रंग लाल, चंद्रमा और शुक्र का रंग सफेद गुरु और बुध का रंग पीला और शनि, राहु और केतु का रंग काला बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त फलित ज्योतिप में जो कुडली बनाई जाती है, उसमें प्रत्येक ग्रह को दूसरे ग्रहों पर एक विशेष रूप से "दृष्टि' भी होती है । शुभ ग्रह की दृष्टि का फल शुभ और अशभ ग्रह की दृष्टि का फल अशुभ होता है । यह दृष्टि चार प्रकार की होती है । -पूर्ण, निपाद, अद्ध और एकपाद । पुर्ण दृष्टि का फल पूर्ण, विपाद का तीन चतुर्थाश, अर्द्ध का प्राधा और एकपाद का एक चतुर्थाश होता है। इस दृष्टि के संबंध में फलित ज्योतिष के ग्रथों में कहा गया है कि प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से तीसरे और दसवें धरों को एकपाद, पांचवें और नर्वे घरों के. ग्रहों को अद्ध, चौथे और नाठवें घरों के ग्रहों को त्रिपाद मार