पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/२९४

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१३७१ ग्रामयाजक सात सात मूचनाएँ होती हैं । सा (पड़ज) से प्रारंभ करके लौं। प्रेमघन॰, भा० १, पृ० ३०। २. अभागा या दरिद्र (सा रे ग म प ध नि) जो सात स्वर हों, उनके समूह गांव (को०)। को पड़ज ग्राम; म (मध्यम) से आरभ करके (म प ध नि ग्रामणी'-संशा पुं० [सं०] १. गाँव, जाति, या समूह का मालिक या सा रे ग) जो सात स्वर हों, उनके समूह को मध्यम ग्राम मुखिया । २. प्रधान । अगुणा। ३.विप्रा । ४. यक्ष । ५. और इसी प्रकार गा (गांधार) या प (पंचम) से प्रारंभ नाऊ । हज्जाम । ६. कामी पुरुप । ७. एक यक्ष (को०)। करके जो स्वर हों, उनके समूह को गांधार अथवा पंचम ग्रामणी'- संधा धी०१. वेश्या । (जैसी अवस्था हो) ग्राम मानते हैं। इनमें से पहले दो यो०- ग्रामणीपुत्र-वैश्यापुत्र। ग्रामों का व्यवहार तो इसी लोक में मनुष्यों द्वारा होता है; २ नील का पेड़। पर तीसरे ग्राम का व्यवहार स्वर्गलोक में नारद करते हैं। ग्रामरणीसब-संगापुं० [सं०] एक प्रकार का याग जो एक दिन में .. वास्तव में तीसरा ग्राम होता भी बहुत ऊँचा है और उसके होता है। स्वर केवल सितार सारंगी, हारमोनियम यादि बाजों में ही ग्रामतक्ष-संशा पुं० [सं०] ग्रामीण चढ़ई । निकल सकते हैं, मनुष्यों के गले से नहीं । ग्रामदेव--संधा पुं० [मं०] दे० 'ग्रामदेवता'। ग्राम-संसा पुं० [अं॰] एक अंग्रेजी तौल ।। ग्रामदेवता-संधापु० [मं०] १. किसी एक गाँव में पूजा जानेवाला ग्रामकंटक-संग्रा पुं० [सं० ग्रामकण्टक] १. वह जो गांव के लिये देवता । २. गांव की रक्षा करनेवाला देवता। कष्ट का कारण हो । २.चुगलखोर (को०)। विशेप-भारत के प्रायः प्रत्येक गांव में एक न एक ग्रामदेवता ग्रामक-संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रामीण। २.ग्रानंददायक समूह [को०)। होता है। ग्राम काम-वि० [सं०] १. ग्राम पर अधिकार करने का इच्छक ग्रामद्रोही संज्ञा पुं० [सं० ग्रामद्रोहिन] ग्राम की मर्यादा या नियम का २. ग्रामवास का इच्छुक को०) । भंग करनेवाला 1 ग्रामपंटक। ग्रामकायस्थ-संज्ञा पुं० [सं०] ग्राम का कायस्थ या लेखक (को०] 1 विशेप - प्राचीन काल में ग्राम के प्रबंध और झगड़े आदि निवटाने ग्रामकुक्कुट--संज्ञा पुं० [सं०] पालतू मुरगा। का भार गांव की पंचायत पर ही रहता था। जो उक्त ग्रामकुमार-संज्ञा पुं॰ [सं०] [स्रो० ग्रामकुमारी] ग्राम का सुंदर पंचायत के निर्णय के विरुद्ध काम करते या उसका नियम ... तरुण । २. ग्राम का कुमार या वालक [को०] । तोड़ते थे, वे ग्रामद्रोही कहलाते और दंड के भागी होते थे। ग्रामकूट-संक्षा पुं० [सं०] १. शूद्र । २. गाँव का मुखिया या चौधरी। ग्रामघा ग्रामधर्म-संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रामीण परंपराएं। गांव की रीति-... नीति । २.स्त्रीसंभोग । मैथुन [को०] 1 विशेष-कौटिल्य के समय में इनके पीछे भी गुप्तचर रहते थे। इनकी ईमानदारी की जांच करते रहते थे। ग्रामपंचायत- संका सी० [ग्राम+हिं० पंचायत] ग्रामीण व्यक्तियों की यह आधिकारिक व्यवस्था जो गांव के झगड़ों का न्याय, ग्रामकूटक संज्ञा पुं० [सं०] १. शूद्र । ३. गांव का मुखियां या नौधरी गांव में सफाई, स्वच्छता की व्यवस्था करने प्रादि का कार्य , [को॰] । करती है। ग्रामगृह्य-वि० [सं०] गांव के बाहर होनेवाला । गांव के बाहर ग्रामधान्य-संशा पुं० [सं०] कृपि की उपज । खेती की उपज [को०] । __का [को०)। ग्रामपाल-संहा पुं० [सं०] १. गाँव का मालिक या स्वामी। २.गाँव ग्रामगृह्यक - संज्ञा पुं० [सं०] ग्रामीण बढ़ई (को० । की रक्षा करनेवाला सैनिक या सेना । ग्रामगेय-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम । ग्रामपुरुष- संज्ञा पुं० [सं०] ग्राम का मुखिया [को०] । .. . ग्रामनोदुह-संक्षा पुं० [सं०] ग्राम का ग्वाल कि० । ग्रामप्रेप्य-संज्ञा पुं० [सं०] वह जो गांव के सब लोगों की सेवा करता । ग्रामघात-संज्ञा पुं० [सं०] गांव को लूटना (को०] । हो । मनु के अनुसार ऐसे व्यक्ति को यज्ञ और श्राद्ध प्रादि . . ग्रामघोषी-वि० [सं० ग्रामघोषिन् ] १.जनसमूह या सेना में पोप या कायों में संमिलित न करना चाहिए। ध्वनि करनेवाला (जसे दु'दुभि) । २.इंद्र का विशेषण (को०] । ग्रामभृत्-संघा पुं० [सं०] बहुत से लोगों की सेवा करनेवाला मनुष्य । ग्रामचर-संज्ञा पुं० [सं०] गाँव का निवासी किो०)। विशेष-ऐसा मनुष्य यदि ब्राह्मण हो तब भी अब्राह्मण हो ग्रामचर्या-संचा बी. [सं०] स्त्री संभोग । रति (को०] 1 जाता है। ग्रामचैत्य-संवा स्त्री० [सं०] गाँव का पवित्र पीपल वृक्ष (को०] । ग्राममद्गुरिका-संज्ञा श्री० [सं०] १. झगड़ा। टंटा। कलह । २. ग्रामज, ग्रामजात--वि० [सं०] १. गाँव में उत्पन्न । ग्रामीण । २. एक मछली का नाम । ३. एका पौधा (को कृषि या खेत में उपजा हुमा (को०] 1 . ' ग्राममुख--- संशा पुं० [सं०] वाणार । हाट । ग्रामजाल-संक्षा पुं० [सं०] ग्रामों का समूह या मंडल (को ग्राममृग- संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता। ग्रामटिका- संज्ञा श्री० सं०] १. छोटा गांय । कुछ घरों का पूरा। ग्रामयाजक-संखा. [सं०] १. वह बाहारण जो ऊच नीच सभी 'वस्ती। उ०--ग्रामदिका वनिजात नगर वह उभय मास जाति के लोगों का पुरोहित हो।