पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३१

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क्षीद्र खंगवीला क्षौद्र--संका पुं० [सं०] १. क्षुद्रे का भावं। क्षुद्रता । २. छोटी मक्खी .. का मधु जो पतला, ठंढा, हलका और फ्लेदनाशक होता है। क्षुद्रा नामक मक्खियों का इकट्ठा किया हुआ मधु । ३. जल। ४. चपा का पेड़। ५. घुल । ६. मागधी माता से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति । बौद्रक-संवा पुं०सं०] 1. शहद । मधु । २. क्षुद्रक नामक प्राचीन देश जो वर्तमान पंजाब के अंतर्गत था । शौद्रज-संज्ञा पुं० [सं०] क्षुद्रा मक्खी का मोम । शौद्रजा--संज्ञा स्त्री० [सं०] शहद की बनी शक्कर । मधु की पार्करा को०] । शौद्धातु-संशा पुं० [सं०] सोना मक्खी । क्षौद्रप्रमेह-संज्ञा पुं० [सं०] मधुमेह । क्षौद्रेय-संक्षा पुं० [सं०] मोम । क्षौद्रज । होम-संज्ञा पुं० [सं०] १. अलसी या सन आदि के रेशों से चुना हुमा कपड़ा। उ०--क्षौम के छत में लटकते गुच्छ हैं, सामने जिनके चमर भी तुच्छ हैं। -साकेत, पृ० १६ । २. वस्त्र । कपड़ा । ३. घर या प्रटारी के ऊपर का कमरा। ४. रेशमी या ऊनी वस्त्र (को०)।५. अलसी (को०)। . क्षोमक-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्षीमका'। चौमका-संधाबी० [सं०] चोवा । एक गंधद्रव्य । शौमिक-संवा पुं० [सं०] १. सन या अलसी के रेशे के तारों से बनी हुई करधनी। २. क्षोम वस्त्र की बनी हुई गुदड़ी या कथरी । शोमी-संशा स्त्री० [सं०] टाट की बनी गुददी। २. अलसी (को०)। रि-संशा पुं० [सं०] हजामत । क्षौरकर्म-संशा पुं० [सं० हजामत । क्षौर । धोरिक-संवा पुं० [सं०] नाई।हजामत । क्ष्मा-संवा मो० [सं०] १. पृथ्वी। धरती। यौ०-माघर= शूधर । पर्वत । माति, क्षमापति, क्षमापाल: राजा । २. एक की संख्या । स्वेड'-संघा पुं० [सं०] १. अव्यक्त शब्द या पनि । २. विष । जहर । उ०-गरल हलाहल क्ष्वेड गर कालकूट रस भास । रस में विरस न पोरि बल चलिये बन कर वास ।-नंददास (शब्द०)। ३. शब्द । ध्वनि । ४. यान का एक रोग जिसमें सनसनाहट भी सुनाई पड़ती है। ५. चिकनाई । चिकनाहट । . ६. त्याग । वंड-वि० [सं०] १. छिछोरा। नीच प्रकृति । २. कुटिल । कपटी। वेडा--संशा श्री० [सं०] १. बोस। २. युद्ध की ललकार । ३. . सिंहगर्जन (को०] । वेडित--संघा पुं० [सं०] सिंह की दहाड़ 1 सिंहगर्जन [को०] । वेला-संघा श्री० [सं०] कीड़ा । सेल । हंसी मजाक (को०] । ब-हिंदी वर्णमाला में स्पर्श व्यंजन के अंतर्गत कवर्ग का दूसरा खंखर+-वि० [हि खंख] दे० 'खंड। मक्षर । यह महाप्राण है और इसका उच्चारण कंठ से होता खंग-संवा पु० [सं० खङ्ग] १. तलवार । उ०-भट चातक दादुर है। क, ग, घ और ड इसके सवर्ण हैं । मोरन बोले । चपला चमकन फिरै खंग खोले ।-केशवं खं-संबापुं० [सं० खम्] १. पान्य स्थान । खाली जगह । २. बिल (शब्द०)। २. गैडा । ३. घाव । चीरा । . छिद्र । ३. आकाश । ४. निकलने का मार्ग । ५. इंद्रिय । ६ खंगड़ -संज्ञा पुं० [सं० सखट] शुष्क । निष्क्रिय । उ फिस्तान विदु । शुन्य । सिफर । ७. स्वर्ग । देवलोक । ८. सुख । ६. में ठिठरोगे । जम के खंगड़ हो जायोगे!-फिसाना०, भा० कर्म । १०. कुडली में जन्मलग्न से दसर्वा स्थान । ११. ३, पृ० १६३ । । मनक१२. ब्रह्मा । १३. मोक्ष । निर्वाण । खंगड़ --संवा पुं० [अनु॰] दे॰ 'अंगड़ खंगढ़' । खंका-वि० [सं० कङ्काल] १. दुर्वल । बलहीन । २. खंखा छूछा। खंगड -कि० उई। उन । उजड्ड । खकर संशा पं० [सं० खर] घूघर । बालों की लट । पलक [को०] 1 खंगनखार-संज्ञा पुं॰ [देश॰] पंजाब के पश्चिमी जिलों में होनेवाला खंख-वि० [सं० ] १ छूछा । खाली। २. उजाय। वीरान । एक प्रकार का पौधा जिसे जलाकर सज्जीखार तैयार करते ... ३. धनहीन । ..हैं । इसकी सज्जी सबसे अच्छी समझी जाती है। खंखड़-वि० [सं० खपत ठ या० अनु] (पदार्थ) सुखने के कारण खंगर-संक्षा पुं० [देश॰] अधिक पकने के कारण परस्पर सटी हुई कड़ा। मुरझाया हुआ । दुर्बल । क्षीण । उ०-पचास बरस कई ईंटों का चक | .: . . . . का खंखड़ भोला भीतर से कितना स्निग्ध है, यह वह न जानता खंगर-वि० बहुत सूखा । शुष्क क्षोण । . .. था।-गोदान, पृ० ६। मुहान-खंगर लगना= सुखंडी रोग होना । दुर्वलता का रोग खंखणा-संवा चौ- [सं• 'खणा] घूधरू, घंटो, नूपुर मादि की होना। ध्वनि [को०] । खंगलीला--संशा स्त्री० [सं० खङ्ग+ लीला] असयुद्ध । तलगार की खंखर'-संगापुं० [सं० खर] दे० 'खंकर' (को०] . . . . . . . लड़ाई। उ-खंगलीला खड़ी देखती रही मैं वहीं।--लहर, शंखर- संपुं० [देश॰] पलास का वृक्ष [को०] ।