पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३२

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संचना संचना -क्रि० स० [सं०/कृष्, प्रा०/खंच] १. तृप्त होना। पर्या-खंजखेल । मुनिपुत्र क । भद्रनामा - रत्ननिधि चर। . संतुष्ट होना । 30-करहा पाणी संच पिठ त्रासा घणा काकड़ । नीलकंठ । करणाटीर। . - सहेसि 1-ढोला०, दु. ४२६ । २.३० 'बींचना' । उ०- २. खंडरिच के रंग का घोड़ा। ३. 'गंगाधर' या 'गंगोदक' नामक (क) घायल ज्यू 'धन' ख चई अंग 1-वी० रासो, पृ० छंद का एक नाम । ४. लंगड़ाते हए चलना ।... १००। (ख) द्विप दोष लक्व धरि धातु वंचि।हरामो, खंजनक - संभा पुं० [सं० ख जनक] दे० 'खंजन' [को०] . पृ०६०

खंजनरत - संज्ञा पुं० [सं० ख जनरत] संत मंथन। क्वादाचित

खंज -संघा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का रोग जिस में मनुष्य का - मैथुन [को०] 1 . पैर जकड़ जाता है और यह चल फिर नहीं सकता । वद्य क के खंजनरति-संथा पुं० [सं०] (खंजन की तरह का) बहुत ही गुप्त मनुसार इस रोग में कमर की वायु जांय की नसों को पकड़ विहार । लेती है, जिससे पैर स्तमित हो जाता है । उ०-गूगे कुबजे खंजना-संवा पी० [सं० खजना] १. खंजन के सदृश एक पक्षी । 'बावरे बहिरे बामन वृद्ध । यान लये जनि पाइने खोरे खंज २. सर्पप। सरसो [को०] । प्रसिद्ध ।-शब (शब्द०)। २. लंगड़ा । पंगु । उ तारन. खंजनाकृति---संथा पी० [सं० खजनाकृति] खंजन के प्राकार से की तरलाई सुतौ तहनी खग खंजन खंज किए हैं 1 गंग कुरग मिलता जलता एक पक्षी । ... लजात जुदे जलजातन के गुन छीन लिये हैं।-गंग ग्र०, खंजनासन----संज्ञा पुं० [सं० खजनासन] तंत्र के अनुसार एक प्रकार . पृ० ११। का प्रासन | इस आसन से उपासना करने पर विजय नाम खंज-संज्ञा पुं० [सं० खञ्जन ] खंजन पक्षी। उ०-प्रालिंगन दै होता है। अधर पान करि खंजन खंज.लरे।-सूर (शब्द०)। खंजनिका--संबा श्री० [सं० सजनिका] खंजन के आकार की एक खंजक' वि० [सं० खञ्जक] लंगड़ा। पंगु। .. चिड़िया जो प्रायः दलदलों में रहती है। इसे 'सर्पग' भी खंजक-संक्षा पुं० [देश॰] पिस्ते की जाति का एक पेड़। . विशेष-यह बल चिस्तान में होता है और इसमें रुमी मस्तगी खंजर संहा पु० [फा० खंजर कटार । पेशकब्ज । . के समान ही एक प्रकार का गोंद निकलता है । यह गोंद मुहा०-खंजर तेज करना= मार डालने के लिये उद्यत होना । उतने काम का नहीं समझा जाता । इसकी पित्तयों के किनारे क्रि० प्र०--उठाना।-खींचना ।-चलाना ।-फेरना ।- घोड़े की नाल के प्राकार में लाही लगती है। पत्तियों रंगने और बांधना। ..: चमड़ा सिझाने के काम में पाती हैं। खंजर-संवा पु० दिश० अथवा सं० पज या खजक+हि० र . खंजकारि-संया पुं० [सं० खञ्चकारि] खसोरी। (प्रत्य०) सूखा हुना पेड़ [को॰] । खंजखेट-संसा पुं० [सं० खजखेट ] खंजन पक्षी। खंडरिच [को०] | खंजर - संझा पुं० [सं० खजन, प्रा. खंजण] दे० 'जन' । खंजखेल--संद्धा पुं० [सं० खजखेल] दे० 'खंजसेट' (को०] । 30-मुख सिसहर खंजर न्यण कुच घीफल फॅट वीण।- खंजड़ी-संधा स्त्री० [हिं०] दे० 'खंजरी' .. ढोला०,९०१३ । खंजन-संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध पक्षी । खेडरिच । - खंजरीटक-संज्ञा पुं० [सं० ख रीटव] खंजरीट । खंजन [को० । '. विशेष-इसकी अनेक जातियां एशिया, युरोप और अफ्रिका में खंजलेख-संपा पुं० [सं० खञ्जलेख] खंजनपक्षी (को०)। अधिकता से पाई जाती हैं। इनमें से भारतवर्ष का बंजन खंजा--वि० [सं० खजक] खंज । लँगड़ा। , मज्य और असली माना जाता है । यह काई रंग तथा प्राकार खंजार-संचा त्री० [सं० सजा] वणघि सम वृत्तों में से एक वृत्त का होता है तथा भारत में यह हिमालय की तराई, प्रासाम । जिसके विषम पादों में 10 लघु और अंत में एक गुरु तया सम और घरमा में अधिकता से होता है। इसका रंग बीच बीच पादों में २८ लघु और अंत में एक गुरु होता है। जैसे-नरधन में कहीं सफेद और कहीं काला होता है। यह प्रायः एक जग मह नित उठ गनपति कर जस बरनत प्रतिहित सों। चालिश्त लंबा होता है और इसकी चौंच लाल और दुम हलकी तन मन धन सन जपत रहन तिहिं भजन करत भल मति 'पाली झाई लिए सफेद और बहुत सुंदर होती है। यह प्रायः चित सों। किमि परसत मन भजतन किमि तिहिं भज भज निर्जन स्थानों में और अकेला ही रहता है तया जाके भज भज शिव परिचित हीं। हर हर हर हर हर हर हर हर प्रारंभ में पहाड़ों से नीचे उतर पाता है। लोगों का विश्वास हर हर हर हर कह नितहीं।-छंद:०, पृ०२७२। है कि यह पाला नहीं जा सकता, पीर जब इसके सिर पर खंड-संघा पुं० [सं० सण्ड] १. भाग । टुकड़ा हिस्सा। उ०- चोटी निकलती है, तब यह छिप जाता है और किसी को प्रभु दोउ पाप पंड महि टारे।-मानस, १०२६२ । सानों देता। यह पक्षी बहुत चंचल होता है इसलिये महा०-खंड खंड करना=चकनाचूर करना । टुकड़े टुकड़े कवि लोग इससे नेत्रों की उपमा देते हैं। ऐसा प्रसिद्ध है कि .. करना। यह बहुत काम भौर छिपकर रति करता है। कहीं कहीं लोग २. ग्रंप का विभाग या प्रश । ३. देश । वर्ष। -भरतवंड ..इसे इंडरिच' या 'ममोला' पाहते हैं । (पौराणिक भूगोल में एक एक द्वीप के अंतर्गत नौ नौ या