पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३२०

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घाउ १३९७ 'घाट' . घाउ-संज्ञा पुं० [सं० घात, प्रा० घाय] १. दे० 'घाव' । २. प्रहार । चोट । उ०.-परेउ निसान हि पाउ राउ अवहिं चले । सुरगन वरपहिं सुमन सगुन पावहिं भले |—तुलसी ग्रं०, पृ० ६१ । घाऊघप-वि० [हिं० खाऊ-+-गप या घप] १. चुपचाप माल हजम करनेवाला । गुप्त रूप से दूसरे का धन खानेवाला । उ०- कौड़ी लाभे देनचा वगुचा घाऊघप्प ।-संतवाणी०, पृ० १५४ । २. चुपचाप अपना मतलब निकालनेवाला । जिसकी चाल जल्दी न खुले । जिसका भेद कोई न पाये । चप्पा.। घाएँ'-संज्ञा औ० [देश अथवा सं० घात] १. ओर । तरफ । २. अवसर । बार । दफा ! घाएँ-क्रि० वि० ओर से । तरफ से। घाग-संज्ञा पुं० [हिं०] १. चतुर ! काइयाँ । खुर्राट । उ०-अपने मिलनेवालों में से एक कोई बड़े पढ़े लिखे पुराने धुराने डाग बड़े घाग यह खटराग लाए । ठेठ०, पृ० २ । २. दे० 'घाघ' । घागरी-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० गगरी] दे॰ 'घड़ा' । उ०-हस्त विनोद देत करताली । चित सो धागरी राखिला ।-दक्खिनी०, पृ० ३३ । घागही -संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] सनई । पटसन । घाय' संज्ञा पुं० [हिं०] १. गोंड़े के रहनेवाले एक बड़े चतुर और अनुभवी व्यक्ति का नाम जिनकी कही बहुत सो कहावतें उत्तरीय भारत में प्रसिद्ध हैं । सेती बारी, तुकाल तथा लग्न मुहूर्त प्रादि के संबंध में इनकी विलक्षण उफ्तियाँ किसान तथा सर्वसाधारण लोग बहुत कहा करते हैं। जैसे.-मुए चाम से चाम कटावे, सकरी भुइयाँ सोव, कहे घाघ ये तीनों भकुना, उदरि जाय यो रोवें । २. अत्यंत चतुर मनुष्य । अनुभवी । गहरा चालाक । खुटि । सयाना । ३. इंद्रजाली। • जादूगर । बाजीगर । ज०--जसो तुम कहत उठायो एक गिरिवर ऐसे कोटि कपिन के बालक उठावहीं। काटे जो कहत सीस, काटत घनेरे घाघ, भगर के खेले कहा भट पद' पावहीं 1--केशव (शब्द०)। घाघ-संज्ञा पुं० [हिं० घुग्घू ] उल्लू को जाति का एक पक्षी जो चील के बराबर होता है । घाघस । घाघरइ@----संज्ञा पुं० [हिं० घाघरा लहँगा। घाघरा । उ०- घम्म घमंतइ घाघरइ उलट्यउ जाग गयंद । मारू चाली मंदिरे झीणे वादल चंद।-ढोला०, दू० ५३७ । घाघरा--मंचा पुं० [सं० घर्घर (=क्षुद्रघंटिका)] [ौ. अल्पा० घाघरी] वह चुननदार और बेरदार पहनावा जिसे स्त्रियाँ कमर में पहनती हैं और जिससे कमर से लेकर ऍड़ी तक का अंग ढका रहता है। लहँगा । . यो०-घाघरा पलटन =औरतों का दल या झुड -(बोल०)। घाघरा-संग पुं० [सं० घर्धर (:-उल्लू)] एक प्रकार का कबूतर । • घाघरा---संशा पुं० [देश॰] एक पौधे का नाम । घाघरा--संज्ञा स्त्री॰ [संघर्घर ] सरजू नदी का नाम । . घाघरा पलटन-संवा खो० [हिं० घाघरा+अं० प्लैटून] स्काटलैंड - देश के पहाड़ी गोों की सेना जिनका पहनावा, कमर से


घुटने तक लहगे की तरह का होता है।

घाघस-संधा पुं० [हिं० दे० 'घाघ। घाघस-संशस्त्री० [देश॰] एक प्रकार की बढ़िया और बड़ी: मुरगी। घाघी--संश्था सी० [सं० घर्घर] मछली फंगाने का बड़ा जाल । ... घाट --संमा० [सं० घट्ट] १. नदी, सरोवर या और किसी जलाशय का वह स्थान जहाँ लोग पानी भरते या नहाते घोते हैं। नदी, झील प्रादि का वह किनारा जिसपर पानी तक उतरने के लिये सीढ़ियां आदि बनी हों। मुहा०-घाट घाट का पानी पीना=(१) चारों ओर देश- देशांतर में घूमकर अनुभव प्राप्त करना। अनेक स्थानों में - या अनेक प्रकार के व्यापारों में रहकर जानकार होना। (२) इधर उधर मारे मारे फिरना।। २. नदी या जलाशय के किनारे का वह स्थान जहाँ घोवी कपड़े घोते हैं। जैसे,—धोबी का कुता न घर का न घाट का। ३. नदी या जलाशय के किनारे का वह स्थान जहाँ नाव पर - चढ़कर या पानी में हलकर लोग पार उतरते हैं। मुहा०-घाट धरना-राहकना । जबरदस्ती करने के लिये रास्ते में खड़े होना। उ०-घाट धरचो तुम यहै जानि के करत ठगन के छंद 1-सूर (शब्द०)। घाट मारना=नदी - को उतराई न देना। नाव या पुल का महसूल बिना दिए । चले जाना । घाट लगना=नदी के किनारे बहुत से प्रादमियों . का पार उतरने के लिये इकट्ठा होना । नाव का घाट । लगनाम्नाव का किनारे पर पहुँचना। (किसी का)... किसी घाट लगना-कहीं ठिकाना पाना . कहीं प्राथय । पाना । घाट नहाना= किसी के मरने पर उदकक्रिया करना। ४. तंग पहाड़ी रास्ता । चढ़ाव उतार का पहाड़ी मार्ग । उ०:.. (क) घाट छोड़ि यस पौवट रेंगहू कसे लगिहह पारा हो। कवीर (पाब्द०)। (ख) है पागे परबत की वाटें। विषम पहार: अगम सुठि घाट । जायसी (शब्द०)। ५. पहाड़। पर्वत । ६. अोर । तरफ । दिशा । ७. रंगढंग । चालढाल'। . . डौल । ढव । तौर तरीका । भेद । मम । उ---जो करनी...' अंतर वस, निकस मुंह को बाट । बोलत ही पहिचानिए.. चोर साहु को घाट ।-कवीर (शब्द०)। ८, तलवार की . धार जिसमें उतार चढ़ाव होता है। तलवार की, बाढ़ का . ऊपरी भाग। ६. अंगिया का गला। १०. जो की गिरी। ११. मोठ और बाजरे की खिचड़ी। उ०-उस जाट की - स्त्री ने गरम घाट उसके सामने रख दी। राज०, इति०', " पृ०६०२ । १२. दुलहिन का लहँगा। १३.. ठाट वाट। उ०-पाए गए तें रहै न कोऊ सकल देखतें घाटं बिलाव।. -सुदर ग्रं०, भा०२, पृ०६०१ । १४. गठन | आकृति ।। रूपरखा। उ०-मृगनयणी मृगपति मुखा मृगमद तिलक . निलाट । मृगरिपु कटि सुदर वरणी मारू अईहइ घाट।- माट-संवा स्त्री० [सं० घात या हि घट (कम)] १. धोखा . छल । कपट । उ जान बंध, विरोध: कोन्हों । घाद भई . .