पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३४५

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प्राणक: .. १४२२ ' चंग योग-वाणे द्रिय । घ्राणतपण- संचा पुं० [-] दुशबू । सौरभ । मुगंध [को० । 2. २. सूबने की शक्ति वा क्रिया। ३. गंध । सुगंध । घ्राणपाक-संज्ञा पुं॰ [मं०] नाक में होनेवाला एक रोग [को०] । प्राणक-संवा पुं० दिश०] उतना तेलहन जितना एक बार में पेरने घ्राणपुटक-- संज्ञा पुं० [सं०] नाक के छिद्र ! नासारंध्र फो०। के लिये कोल्हू में डाला जाय । पानी। घ्राणेंद्रिय-संडा नो [सं० प्रागन्द्रिव] नासिका । नाक [को०] ।' . विशेष--इस शब्द का प्रयोग संवत् १००२ के एक शिलालेख में प्रात–वि० [सं०] सूधा हुमा (को०] । .: आया है जिसमें लिखा है कि हर बाणक पीछे नारायणदेव मानव्य-वि० [सं०] सूधने योग्य । जिसे सूघा जा सके (को०] । यादि ने एक एक पली तेल मंदिर के लिये दिया' । इस शब्द घ्राता-वि० [मं० प्रातृ सूधनेवाला [को०] । की व्युत्पत्ति का सस्कृत में पता नहीं लगता, यद्यपि 'घानी' घ्राति-संवा संश[सं० प्राण] १. सूधने की क्रिया । २. सौरभ । या 'धान' शब्द अबतक इसी अर्थ में बोला जाता है। सुगंध । ३. नाक । नासिका (को०]। प्राणचक्षु-वि० [सं० प्राणचक्षुस्] १ नधकर किसी वस्तु का ज्ञान प्रानि-संत्री० [सं० प्राण सुगंध । उ०-सोरह दला कमल . प्राप्त करनेवाला (पगु) । २. अंधा (को०।। विगसाई। मधुकर प्रानि रहा लपटाई। -सं० दरिया, वारातर्पग'-वि० [२०] १, घ्राणेंद्रिय को तृप्ति देनेवाला । २. पृ० हैं। सुगंधित । सुगंधयुक्त [को०] । घ्रय-वि० [सं०] सूधने योग्य दि०)। इ-व्यंजन वर्ण का पांचवां और कवर्ग का अंतिम अक्षर । यह स्पर्श वणं हैं, और इसका उच्चारण स्थान कंठ और मासिका है। इसमें संवार, नाद, घोप और अल्पप्राण नामक प्रयल ङ-संच पुं० [मं०] १. सूधने की शक्ति । २. गंध । सुगंध। ३. शिव का एक नाम । भैरव । ४. इंद्रियों का विषय । इंद्रिय- विषय (को०)। ५. इच्छा । आकांक्षा । स्पृहा (को०)। लगते हैं। --संस्कृत या हिंदी वर्णमाला का २२ वा अक्षर और छठा व्यंजन चंक्रमा-संश श्री० [सं० चक्रमा ] १. इधर उधर जाना। २. .. जिसका उच्चारण स्थान ताल है। यह स्पर्श वर्ण है और घुमना । टहलना [को०] । - इसके उच्चारण में श्वास, विवार, चोप और अल्पप्राण प्रयत्न चंक्रमित-वि० [मं० चङ्क्रमित] बार बार घूमा या चक्कर खाया लगते हैं। हुया [को०। च -० [सं० चक्र] १. परा पूरा । समूचा । सारा । समम्न। चंक्रायण-संशा पुं० [० चायण] एक प्रवर का नाम । ... २. एक उत्सव जो उत्तर भारत तथा मध्यप्रदेश प्रादि में चंग-संशा स्त्री० [फा०] १. इफ के आकार का एक छोटा वाजा ... फसल कटने पर होता है। जिसे लावनीवाले बजाया करते हैं । लावनीवानों का बाजा। .. -क्रि० वि० [हिं० चौका या चहुघा] चारों ओर से । सब उ०-बजत मृदंग उपग चंग मिलि भजनन जति तति जास। - तरफ से । उ०-चक्रवती चकवा चतुरंगिनी चारिद चापि लई --भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ४७४ । दिसि चंका 1-भूपण ग्रं॰, पृ०६६। यो०-चंगनवाज-चंग बजानेवाला व्यक्ति । कुण-संज्ञा पुं० [सं० चङ्कुरण] १. रथ । यान । २. वृभ [को०] २. सितारियों की परिभापा में सितार का चढ़ा हुमा सुर। चकुर-संघा पुं० [सं० च र] १. रथ । यान । २. वृक्ष । पेड़। चंगर--संज्ञा पुं० [?] गंजीफे के पाठ रंगों में से एक रंग। चक्रम--संशा पुं० [सं० चक्रम] टहलने का स्थान । उ०-वाहर चंग-पंधा स्त्री० [देश॰] १. एक प्रकार का तिब्बती जी। २. एक - चंक्रम पर भिक्ष रिणयों का छोटा सा समूह प्रवारण के लिये . प्रकार की जो की शराब जो भूटान में बनती है। .... अपनी ओर से प्रतिनिधि भेजने का चुनाव कर रहा था। चंग-संशा सी दिश०] पतंग ! गुड्डी। उ०—रहे राति सेवा पर इरा०, पृ०१७। . भालू । चढ़ी चंनु जनु चचि खेलारू !--तुलसी (शब्द०)। .

पक्रमरण--संज्ञा पुं० [सं०चक्रमण ]१. धीरे धीरे इधर से उधर

. . घूमना । टहलना। २. वार बार घूमना । बहुत धूमना। मुहा०--चंग चढ़ना या उमहना=बढ़ी चढ़ी बात होना । खूब २. मंद गति से या टेढ़े मेढ़े जाना (को०)। ४. उछलना। जोर होना। उ० त्यों पद्माकर दीजे मिलाय क्यों बन ...: कूदना । फांदना (को०)। . बवाइन की उनही है-पाकर (शब्द०)। चंग पर चड़ाना=