पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३४६

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१४२३ चंग (१) इधर उधर की बात कहकर किसी को अपने अनुकूल करना। किसी को अभिप्रायसाधन के अनुकूल करना । (२) पासमान पर चढ़ा देना । मिजाज बढ़ा देना। चंग-वि० [सं० चङ्ग] १. दक्ष । कुशल । २. स्वस्थ । तंदुरुस्त । ३. सुंदर । शोभायुक्त । रम्य । मनोहर । उ०-लही ललिता वन लोचन भंग । कही कहुँ कान्ह जुहे तुम चंग ।-पृ० रा०, २२३५७। चंगवाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० चंग+बाई) एक प्रकार का वात रोग जिसमें हाथ पैर जकड़ जाते हैं। चंगला--संश सी० [सं० चङ्गला] एक रागिनी जो मेघ राग को पुत्रवधू कही जाती है। चंगा-वि० [सं० चङ्ग] [वि०सी० चंगो] १. स्वस्थ । तंदुरुस्त । नौरोग जैसे----इस दघा से तुम दो दिन में चंगे हो जामोगे। क्रि० प्र०-करना । होना। २. अच्छा । भला । सुंदर । उ० भले जू भले नंदलाल, वेक भली चरन जायक पाग जिनहि रंगी। सूर प्रभु देखि अंग अंग वानिक कुशल मैं रही रीझि वह नारि चंगी ।--सूर (शब्द०)। ३. निर्मल । शुद्ध । जैसे-मन चंगा तो कठौतो मैं गंगा । 30-कथा मांहि एकसुना प्रसंगा। राम नाम मौका चित चंगा।-घट०, पृ० २२६।। चंगिम -नि० [सं० चर] सुदर । उ०-तुम मुख चंगिम अधिक चपल भेल कतिखन घरब लुकाइ।---विद्यापति, पृ० २१८ । चंगुल-संधा पुं० [हिं० चौ (चार)+अंगुल] १. चंगुल । पंजा। उ.--- चरग चंगु गत चातकहि नेम प्रेम की पीर । तुलसी परवस हाड़ पर परिहै पुहुमी नीर ।-तुलसी ग्रं०, पृ०१०७ । यो०-गुगत । २. पकड़ । वश । अधिकार । चंगुल--संज्ञा पुं० [हिं० चौ (चार) +अंगुल या फा० चंगाल] १. चिड़ियों या पशुओं का टेढ़ा पंजा जिससे वे कोई वस्तु पकडते या शिकार मारते हैं। उ०-(क) फिरत न वारहिं बार। प्रचारयो । चपरि चोंच चंगुल हय हति रथ खंड खंड करि आरयो।-तुलसी (शब्द॰) । (ख) चीते के चंगुल में फेसि के करसायल पायल हैं निबहै । -देव (शब्द०)। २. हाय के पंजों की वह स्थिति जो उगलियों को विना हथेली से लगाए किसी वस्तु को पकड़ने, उठाने या लेने के समय होती है। बकोटा । जैसे- चंगुल भर प्रौटा साई को। मुहा०. चंगुल में फंसना-पंजे में फैसना। वश या पकड़ में पाना। कान में होना। चंच'-संत पुं० [ सं० चच ] १. पाँच अंगुल की एक नाप । २. डलिया। चंगेरी (को०)। चंच -संणा पुं० [सं० चञ्चु दे० 'चंचु'। चंचक-वि० [सं० चञ्चत्क] १. उछलनेवाला। कूदनेवाला। २. गमनशील । चलनेवाला । ३. कांपनेवाला। हिलनेवाला (को०)। चंचत्पुट: संज्ञा पुं० [सं० चश्वत्पुट मंगीत में एक ताल जिसमें पहले दो गुरु, तब एक लघु, फिर एक प्लुत मात्रा होती है। द्विकल के अतिरिक्त यह चतुष्कल और अष्ट्रकल भी होता है। चंचनाना--कि०म० [हिं०] है 'चुनचुनाना' । । चंचनानारि-कि० अ०[ अनु०] १. झगड़ना । लड़ना। २. बुड़- दुडाना । बकना झकना। ३. तेजित होना । आवेश में - पाना। ४. मटर की फली का सूखकर विखरना । ५. ज्यादा पांच से दरार पड़ना । जैसे, नरिया या लालटेन का शीशा।। चंचनाना। चंचरा-संथा बी० [सं० चञ्चरा] एक वर्णवत । दे० 'चंचरी-४ : चंचरी-संशयी [सं० चचारको] १. अमरी। भवरी। २. चाचरि। होली में गाने का एक गीत । ३. हरिप्रिया छंद । इसी को भिखारीदास अपने पिंगल में पंचरी' कहते हैं। इसके प्रत्येक पद में १२+१२+१३+१० के विराम से ४६ मात्राएँ होती हैं। अंत में एक गुरु होता है । जैसे,- सूरज गुन दिमि : सजाय, अंत गुरु चरण ध्याय, चित्त दे हरि प्रियहि, कृष्ण कृष्ण गावो। ४. एक बर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में र स ज ज भ र (515 IS IS 151 155) होते हैं। इसे 'चंचरा', 'चंचली' और 'विवर्धाश्या' भी कहते. हैं । जैसे,-री सर्ज जु भरी हरी नित वाणि तु । प्री सदा लहमान संत समाज में न माहि तू । भूलि के जु विसारि रामहि मान को गुण गाइहै। चंपर्क सम ना हरी जन चंचरी मन भाइहै। ५. एक मांत्रिक छंद जिसके प्रत्येक पद में । २६ मात्राएं होती हैं। जैसे,-सेतु सीतहि शोभना दरसाइ पंचवटी गए । पाय लागि अगस्त्य के पुनि यत्रि प ते विदा भए । चित्रकूट विलोकि के के तवही प्रयाग-विलोकियो । भरद्वाज वसे जहाँ जिनते न पावन है वियो। चंचरी-संक्षा पु० [सं० चञ्चरिन्] भौंरा [को०] । चंचरीक--संक्षा पुं० [सं० चश्चरीकली चंचरीकी भ्रमर । भीरा। उ-तेहि पुर बसत भरत विनु रागा । चंचरीक जिमि चंपक वागा।-तुलसी (शब्द०)। चंचरीकावली-संशा स्त्री० [सं० चचरीकावली] १. भौंरों की पंक्ति। २. तेरह अक्षरों के एक वर्णवत का नाम जिसके प्रत्येक चरण में यगण, मगण, दो रगण और एक गुरु होता है (Iss sss SIS SIss)। जैसे,--यमौ रे। राग छड़ी यहै ईश भावं। न भूलो माधो को विश्व ही जो चलावै । लम्बी या पृथ्वी को वाटिका चंपकी ज्यो। वसो राग त्याग चंचरीकावली ज्यों। चंचल-वि० [सं० चञ्चल [ वि० सी० चंचला] १. नलायमान । अस्थिर। हिलता डोलता। एक स्थिति में न रहनेवाला । २.. अधीर । अव्यवस्थित । एकाग्र न रहनेवाला । अस्थितप्रज्ञा जैसे,-चंचलवुद्धि, चंचलचित्त । ३. उद्विग्न । घबराया हुमा। - ४. नटखट । चुलबुला । जैसे,---चंचल चालक। उ०-देखी ननवारी चंचल भारी तदपि तपोधन मानौ। केशव (शब्द०)। चंचल--संघा ५०१. हवा । था। २. रसिक । कामुक । ३. घाड़ा उ०- अतर मुकन कम ग्रापड़ियो चंचल सहित निज़र खल चडियो।-रा० रु०, पृ० ३३५। ४. [ली चंचला.! व्यभिचारी (को०)।