पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३६४

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चकबस्त १४४१ चकला' चकबस्त'--संज्ञा पुं० [फा०] जमीन की हृदबंदी। किश्तवार । चकराना--क्रि० अ० [सं० चक्र ] १. (सिर का) चक्कर खाना। चकबस्त--संज्ञा पुं० काश्मीरी ब्राह्मणों का एक भेद । (सिर) घूमना । जैसे,-देखते ही मेरा सिर चकराने लगा। चकवाक-संज्ञा पुं० [सं० चक्रवाक] एक पढ़ी। उ०-उरज मठौना २. भ्रांत होना । चकित होना । भूलना । जैसे,--वहाँ जाते चकवाकन के छौना कंधों मदन खिलौना ये सलौनापान ।- ही तुम्हारी बुद्धि चकरा जायगी । ३. आश्चर्य से इधर उधर पजनेस०, पृ० २५ ताकना । चकपकाना । चकित होना। हैरान होना । घबराना। चकमक-- संज्ञा पुं० [ तु० चक्रमाक ] एक प्रकार का कड़ा पत्थर चकराना-क्रि० स० पाश्चयं में डालना । चापित करना। हैरान जिसपर चोट पड़ने से बहुत जल्दी प्राग निकलती है। करना। विशेष—पहले यह बंदूकों पर लगाया जाता था और इसी के चकराना३---क्रि० अ० [फा० चाकर] चाकर या सेवक होना । द्वारा आग निकालकर बंदूक छोड़ी जाती थी । दियासलाई चकरानी--संज्ञा स्त्री० [फा० चाफर] दासी । सेवकिनी । टहलुई। । निकलने के पहले इसी पर सूत रखकर और एक लोहे से चोट चकरिया-संशा पुं० [फा० चकरी + हा (प्रत्य॰)] चाकरी करने देकर आग झाड़ते थे। वाला। नौकर । सेवक । टहलुवा । चकमकना--- कि० अ० [हि-चपकाना] अचंभित होना । उ०-- चरिया- वि० नौकरी चाकरी फरनेवाला। अद्भुत कर्म कुवर कान्ह के। निरखि गोप सब अति चकरिहा-संशा पुं० [फा० चाफर दे० 'चकरिया। चकमके ।--नंद० ग्रं०, पृ० ३१०। चकरी'-संशा श्री० [सं० चक्रो] १. चक्की । २ चक्की का पाट । चकमा–संधा पुं० [सं० चक (= भ्रांत)] १. भुलावा । घोखा। उ.--जत इत के धन हेरिनि ललइच कोदइत के मन दौरा उ.----ल तो तुमने उसको गहरा चकमा दिया। हो। दुइ चकरी जिन दरन पसारहु तव पही ठिक ठौरा मुहा०-- कमा खाना-धोखा खाना । भुलावे मैं माना। हो ।- कबीर (शब्द०)। ३. चकई नाम का लड़कों का चकमा देना=धोखा देना । भलवाना । भ्रांत करना। बिलौना। उ---(क) बोलि लिये सर सखा संग के खेलत २. हानि । नुकसान। स्याम नंद की पौरी । तैसेइ हरि तैसेइ सब बालक कर भौरा क्रि० प्र०--उठाना ।-देना। चकरोन की जोरी ।--सूर (शब्द०)।(व) चकरी लों ३. लड़कों के एक खेल का नाम । सकरी गलिन छिन प्रावति छिन जाति । परी प्रेम के फंद में चकमा --संथा पुं० [देश॰] ववून नामक बंदर को एक जाति । वधू वितावति राति ।--१झाकर ०, पृ० १६६ । चकमाक-संच पुं० [तु० चकमाक] दे॰ 'चकमक' । चकरी-वि० चयकी के समान इधर उधर धूमनेवाला । भ्रमित । चकमाकी-वि० [तु० च कमाक ] चकमक का। जिसमें चकमक अस्थिर । चंचल । उ०--हमारे हरि हारिल की लकरी। मन लगा हो। कम बचन नंद नंदन उर यह दढ़ करि पकरी । जागत सोक्त स्वप्न दिवस निकि 'कान्ह कान्ह' जकरी। सुनत हिये लागत चकमाकी- संशा औ० वंदुक ।-(लश०) । हमैं ऐसो ज्यों कराई करी। सुनो व्याधि हमकों ले पाए चारखु:-संथा पुं० [सं० चक्र ] १. चक्रवाक पक्षी। चकवा । २. देखी सुनी न करी । यह तो सूर तिन्हें ले सौंपी जिनके मन ३० 'चक्कर'। च.करी।--सूर (शब्द०)। .

यौ०-चकरमफर:- धोखा। भुलावा । झांसा ।-(लश.)। चकरी---वि० सी० [हिं० च करा] चौड़ी। दे० 'चकरा'। चकरवा--संवा पु. [सं० चक्रव्यूह १. चक्कर । फेर। कठिन स्थिति। चकरोगिरह-संझा सी० [जहाजी] बेड़े में लगी हुई रस्सा का गा० ऐसी अवस्था जिसमें यह न सूझे कि धया करना चाहिए। जो उसे रोके रखती है। (लश०)। असमंजस । २. झगड़ा । बखेड़ा । टंटा। चकल--संसा पुं० [हिं० चमका] १. किसी पौधे को एक स्थान से क्रि० प्र०—में पड़ना। दूसरे स्थान पर लगाने के लिये मिट्टी समेत उखाड़ने की चकरसी--संज्ञा पुं० [ देश०] एक बहुत बड़ा. पेड़ जो पूरबी वंगाल, क्रिया। २. मिट्टी की वह पिंडी जो पौधे को दूसरी जगह लगाने आसाम और चटगाँव में होता है। के लिये उखाड़ते समय जड़ के आस पास लगी रहती है। विशेष—इसके हीर की चमकीली और मजबूत लकड़ी मेज, कि०प्र० उठाना। तुरसी आदि सामान बनाने के काम में आती है। इसकी छाल चकलई- संशा खी० [हिं० चकला] चौड़ाई। से.चमड़ा सिझाया जाता है। .. . चकला--संक्षा ५ [सं० चक्र, हि० चक+ला (प्रत्य०)].१. पत्थर चकरा -संशा पुं० [सं० चक्र] पानी का भंवर। या काठका गोल पाटा जिसपर रोटी बेली जाती है। चौका । चकरा--वि० [वि० स्त्री० चौड़ी] चौड़ा । विस्तृत । उ०--सौ योजन २. चक्की। ३. देश का एक विभाग जिसमें कई गांव या विस्तार कनकपुरि चकरी जोजन बीस ।--सूर (शब्द०)। . नगर होते हैं । इलाका । भिला। चकराई--संज्ञा स्त्री॰ [हिं० चकरा (चौड़ा)] चौड़ाई। उ०-- ..यो०--चकलेदार।-चकलायंदी। * . . . योजन चार की है चकराई, योजन चार लग गंध उड़ाई।--- ४. व्यभिचारिणी स्त्रियों का अड्डा । रंडियों के रहते का घर कवीर सा०, पृ० ४६११ या मुहल्ला । करायीवाना।