पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३८३

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..... तुर्णवत् .. १४६२ चतुर्भाव चतुर्णवत वि० [मं०] चौरानवेवां। चतुर्थीविद्या संज्ञा सी० [सं०] चौथा वेद । अथर्ववेद । उ०-किंतु चतुर्णवति -संज्ञा स्त्री० [सं०] चौरानवे की संख्या। . हमारी विशिष्ट दृष्टि में..चतुर्थी विद्या अर्थात् अथर्ववेद भी - अतुवति:-वि० चौरानवे । कम महत्वपूर्ण नहीं है।-सं० दरिया, पृ०५५ । वर्ष-वि० [सं०] चार की संख्या पर का 1 चौया । जैसे, चतुर्य चतुर्दष्ट्र--संज्ञा पुं॰ [सं०] १. ईश्वर । २. कार्तिकेय की सेना। ३. .. परिच्छेद। ... एक राक्षस का नाम । 6. चतुर्थ-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तिताला ताल। चतुर्दत-संज्ञा पुं० [सं०] ऐरावत हाथी, जिसके चार दाँत हैं। .. चतुर्थक-संज्ञा पुं० [सं०] वहबुखार जो हर चौथे दिन आए। चौथिया चतुर्दश-संज्ञा पुं० [सं०] चौदह । , बुखार। . - चतुर्दश-वि० दे० 'चतुर्दश' । उ०-धूरिहि ते यह तन भयो, धूरिहि .. चतुर्यकाल-संक पुं० [मं०] शास्त्र के अनुमार वह काल जिसमें भोजन सों ब्रह्मांड । लोक चतुर्दश धूरि के सप्त दीप नवखंड।-नंद० करने का विधान है। दोपहर या उसके लगभग का समय । ग्रं०, पृ० १७६ । भोजन का समय ।। चतुर्दशपदी-संज्ञा स्री० [सं०] अंग्रेजी की एक विशेष प्रकार की . चतुर्थभक्त-संशा पुं० [मं०] दे० 'चतुर्व काल' । कविता, जिसमें चौदह चरण होते हैं । उक्त भाषा में इसे चतुर्थभाज वि० [सं०] वह जो प्रजा के उत्पन्न किए हुए अन्न आदि सानेट कहते हैं। __में से कर स्वरूप एक चौथाई अंश ले ले । राजा। चतुर्दशी-संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी पक्ष की चौदहवीं तिथि । चौरस ! विशेष-मन के मत से कोई विशेष आवश्यकता या आपत्ति प्रा चटक-संधा पुं० [सं०] चारो दिशाए । - पड़ने के सपय, केवल प्रजा के हितकर कामों में ही लगाने के चदिकर-क्रि० वि० चारो ओर। लिये, राजा को अपनी प्रजा से उसकी उपज का एक चौथाई चतुर्दिश-संशा पुं० [सं०] चारो दिशाएँ। तक अंश लेने का अधिकार है। चदिश-क्रि० वि० चारो ओर । चतुर्थाश-संज्ञा पुं० [सं० चतुर्थ+अंश] १. किसी चीज के चार- चतर्दोल-संघा पुं० [मं०] १. चार डंडों का हिंडोला या पालना। . भागों में से एक चौथाई । २. चार अंशों में से एक अंश का २. वह सवारी जिसे चार यादमी कंधों पर रठावें । जैसे,-- अधिकारी । एक चौथाई का मालिक । पालकी, नालकी, आदि। चतुर्थाशी-वि० [सं० चतुर्थ अंशिन ] चौवा भाग पानेवाला किो०] । २. चंडोल नाम की सवारी। चतुर्थाश्रम---मंचा पुं० [सं०] संन्यास । चतुल-संज्ञा पुं० [सं० चतुर्दल] जिसमें चार दल या चार पंखुरिया चतुर्थिकम-संवा पुं० [सं० चतुर्थिकमन] २. 'चतुर्थी' । हों। उ०--शिव प्रथम चक्र प्राधार जानि । तहाँ अक्षर चारि चतुयिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] वैद्यक का एक परिमाण जो चार कर्ष चतुलानि ।- सुंदर ग्रं॰, भाग १, पृ०४५ के बराबर होता है । पल । चतुरि--संज्ञा पुं० [मं०] १. वह घर जिसमें चारो ओर दरवाजे हों। पता'-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी पक्ष की चौथी तिथि । चीय । २. चार दरवाजेवाला घर (को०)। -' विशेष-(क) इस तिथि की रात, और किसी किसी के मत । चतुर्या-प्रव्य० [सं०] चार तरह से। चार प्रकार से। उ०- । • से रात के पहले पहर में प्राप्ययन करना शास्त्रों में निपिद्ध घी कृष्ण भगवान् का लोक एक होकर भी लीला भेद से . बतलाया गया है। (ख) भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा के चतुर्धा प्रकाशित होता है ।—पोद्दार अभिनय, पृ० ६३३। दर्शन करने का निषेध है। कहते हैं, उस दिन चंद्रपा के दर्शन करने से किसी प्रकार का मिथ्या कलंक या अपवाद प्रादि __ चतुमि-संज्ञा पुं० [सं०] चारो घाम । चार मुख्य तीर्थ । 'वि० दे० 'घाम'। लगता है। २. वह विशिष्ट कर्म को विवाह के चौथे दिन होता है.और चतुर्वाह' संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । महादेव । २. विष्णु । ,जिससे पहले वरवधु का संयोग नहीं हो सकता। गंगा चतर्वाह- चार भूजायोंवाला [को०गा । प्रभृति नदियों और ग्रामदेवता आदि का पूजन इसी के चतुर्विस-वि० [सं० चतुर्विंश ]. चोवीस । उ०-चतुर्विस अध्याय अंतर्गत है। ३. एक रसम जिसमें किसी प्रेतकर्म करनेवाले यह कोउ चतुर सुनिहै जु। जै दिन बीते अनसुने, तिन कों के यहाँ मृत्यु से चौथे दिन बिरादरी के लोग एकत्र होते हैं। सिर धुनिहै जु।- नंद० ग्रं०, पृ० ३०७ । पौया । ४. एक तांत्रिक मुद्रा । ५. संस्कृत में व्याकरण में चतुर्वीज-संशा पुं० [सं०] दे० 'चतुर्वी ज' [को०] । संप्रदान में लगने वाली विभक्ति (को०)। चतर्भद्र--संशा पुं० [सं०] अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों - या' संशा पुं० तत्पुरुष समास का भेद जिसमें संप्रदान की विभक्ति का समुच्चय । लुप्त रहती है किो। चतर्भद्र-वि० [सं०] [स्त्री० चतुभुजा] चार भुजाओंवाला। जिसमें चतुर्थी क्रिया-संवा स्त्री० [सं०] दे॰ 'चतुर्थी'-३ [को० । चार भुजाएँ हों।.. चतुर्थी तत्पुरुप-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चतुर्थी" !: .. चतुर्भाव--संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०)।