पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४०१

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वरपरी चरता-संक श्री[सं०] १. चलने का भाव । २. पृथ्वी। . . सुनते ही राजा ने चरना काछकर उस देव को ललकारा - चरतिरिया-संवा स्त्री॰ [देश॰] मिर्जापुर के जिले में पैदा होनेवाली लल्लू (शब्द०)। . एक प्रकार की कपास जो मामूली होती है। चरना-संवा पुं०/देश०] सुनारों का एक औजार जिवसे नक्काशी - चरती-संशा पुं० [हिं० चरना (= खाना)] वह जो व्रत न हो । व्रत करने में सीधी लकीर या लंवा चिह्न बनाया जाता है। .. के दिन उपवास न करनेवाला। चरनायुधला-संहा पुं० [सं० चरणायुध] दे० 'चरणायुध' - 30--- ... यो-वरती चरती। पर न पहर चरनायुध कर न सोर पसर न प्राची और कर .... चरत्व-संवा पुं० [सं०] चलने का भाव। . दिनकर को 1- रघुनाथ (शब्द०)। .. .: चर-वि० [सं०] चलनेवाला । जंगम । चरनि --संशा को [सं०चर (= गगन)] चाल । गति । ८०-लसत घरय-संस पुं० १. वह जो चलनेवाला या गतिशील हो । २. गति कर प्रतिबिंब मनि आँगन घटुरवनि चरनि।-तुलसी (शब्द०)। चलनशीलता । ३. जीवन । ४. मार्ग को चरनी-संवा स्त्री० [हिं० चरना] १. पशुओं के चरने का स्थान चरदास-संक स्त्री० [देश॰] मथुरा जिले में होनेवाली एक प्रकार चरी । चरागाह । २. वह नाद जिसमें पशुओं को खाने के '.. की कपास जो कुछ घटिया होती है। लिये चारा दिया जाता है। ३. चौतरे के आकार का बना; चरद्रव्य-सक पुं० [सं०] वह संपत्ति जिसका स्थानांतर किया जा हुमा वह लंवा स्थान जिसपर पशुओं को चारा दिया जाता ... सके । चल संपत्ति [को०] ! . है। ४. पशुओं का पाहार, घास, चारा आदि । उ०—कमल: चरनंग -संका पुं० [सं० चरण+अङ्ग] पैर । बदन कुम्हिलात सवन के गौवन. छोड़ी तृन की चरनी। सूर, चरन -संच पुं० [सं० चरण] दे॰ 'चरण'। चूक परी सेन नहिं (शब्द०)। पाए, चरन सरोज पुनीत ।--पोहार अभि० ०. ०२३७। विशेष-कहीं कहीं चरही शब्द भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। विशेष-'चरन' के यौगिक यादि के लिये देखो 'चरण के चरन्नी-संक बौ [हिं० चार+प्राना] दे० 'चवन्नी'। .... यौगिक । चरपट-संश पुं० [सं० चपट] १. चपत । तमाचा। वप्पड़ । २. चरनक्षत्र-संज्ञा पुं० [सं०] स्वाती, पुनर्वसू, श्रवण और धनिष्ठा किसी की वस्तु उठाकर भाग जानेवाला । चाई । उचक्का । मादि कई नक्षत्र जिनकी संख्या भिन्न प्राचायों के मत से उ०-(क) जो लौ जीव तो लो हरि भजि रे मन और अलग अलग है। बात सब बादि । योस चारि के हला भला तू' कहा लेइगो चरनचर- पुं० [सं० चरण-+-चर] पैदल सिपाही। लादि । धनमद जोवनमद राजमद भूल्यो नगर विवादि । कहि चरनदासी-संबाबीसं०चरण-दासी] जूता। पनही । हरिदास लोभ चटपट यों काहे की लग फिरादि ।- स्वामी हरिदास (शब्द०)। (ख) चरपट चौर गाठि छोरी 'मिलें चरन धरन-संज्ञा पुं० [सं०, चरण+हिं० धरना खड़ाऊ ।। रहहिं तेहि नाच । जो तेहि हाट सजग रहइ गाठि ताकरि चरनपीठ -संवा पुं० [सं० चरणपीठ] दे॰ 'चरण पीठ'। उ०- गईवाच ।-जायसी (शब्द०)। ३. एक प्रकार का छंद । (क) तुलसी-प्रभु निज चरनपीठ मिस भरत प्रान रखवारो।-- चपंट । उ०-तोमर उनइस चरपट साता। हरियक पाठ तुलसी (शब्द०)। (ख) सिंहासन सुभग राम चरनपीठ भुजंगप्रयाता-विधाम (शब्द०)। .. घरत । चालत सय राज काण आयसु अनुसरत |-तुलसी लसी चरपनी-संक मौ० [देश॰] वेश्या का गाना । मुर्जरा। (वैश्यानी (शम्द०)। और सपर्दाइयों की परिभाषा)। परसबरदार -संक पुं० सं०चरण+फा० वरदार बडे प्रादमियों चरपर-वि० [हि० चरपरा] दे० 'चरपरा'। का जूता उठाने और रखनेवाला नौकर । चरपरा-वि० [अनु०] स्वाद में तीक्ष्ण । झालदार । तीता। चरनवस्त्र -संज्ञा पुं० [सं० चरण+वस्त्र] पांव के वस्त्र ! 70--- २०-(क) खंडहि, कीन्ह व चरपरा । लौंग इलाची सो जो जहाँ लौ श्रीगुसांईजी नारायनदास के घर विराजे तहाँ खंडवरा ।--जायसी (शब्द०)। (ख) मीठे चरपरे उज्वल लो नारायनदास नित्य नौतन सामग्री, धोती, उपरेना, बागा, कौरा । हाँस होइ तौ ल्याक प्रौरा ।—सूर (शब्द०)। विशेष-नमक, मिर्च, खदाई आदि के संयोग से यह स्वाद सिज्या, वस्त्र, चरनवस्त्र सब नए नराई करते।-दो सौ भावन०, भा० १, पृ० ११२ । उत्पन्न होता है। चरपरा-वि० [सं० चपल अथवा हि अनु०] चुस्त । तेज । फुरतीला। परना--क्रि० स० [सं० चर (=चलना) मि० फा० चर्रादन] पशुओं __ चरपराना-नि० अ० [हिं० चरचर] घाव का चरीना । घाव में का खेतों या मैदानों में घूम घूमकर घास चारा आदि खाना। खुश्की के कारण तनाव लिए हुए पीड़ा होना। मुहा०-अक्ल का धरने जाना=दे० 'अक्ल' के मुहावरे । चरपराहट-संशा खी० [हिं० च परा+ प्राहट (प्रत्यक)] १. ' धरना-क्रि०अ० [सं०चर (-चलना)धूमना फिरना । विचरना। स्वाद की तीक्ष्णता | झाल । २. घाव आदि की जलन । ३. उ०-जेहि ते विपरीत नित्या करिये । दुख से सुख मानि द्वप । डाह । ईर्ष्या। 'सुखी चरिये ।-तुलसी (शब्द०)। चरपरी-वि० [अनु॰] दे० 'चटपटी'। ३०-चरपरी बोली परना-संवा पुं० [सं० चरण (=पर)] काछा । उ--इस बात के द्वादस प्रकार के वचन साध के।-सहजी०,०१८1