पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४१९

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बालिका १४४० चांस त्रांचालिका संशा सी- [सं० चाण्डालिका] १. दे० 'चंडालिका'। २. दुर्गा का एक नाम हो । पांडालिनी-- संज्ञा ली [सं० चाएडालिनी ] तंत्र साधना की एक - देवी [को०)। चांडाली--संवा स्त्री॰ [सं चाण्डाली] १. चांडाल जाति की स्त्री। वह स्त्री जो त्रांडाल जाति की हो। २ चांडाल की - स्त्री (को०)। चांदनिक- वि० [सं० चान्दनिक] [वि० सी० चांदनिकी] १. वंदन . का बना हुआ । २. चंदन संबंधी । ३. चंदन से बासा हुअा। ४. चंदन में होने, रहने या पाया जानेवाला [को॰] । चांद्र-वि० [सं० चान्द्र] [वि० सो चान्द्री] चंद्रमा संबंधी। जैसे,-चाद्रमांस । चांद्रवत्सर । ___चांद्र-संक्षा पुं० १. चांद्रायण व्रत । २. चंद्रकांत मरिण । ३. अदरखा ४. मृगशिरा नक्षत्र । ५. लिंग पुराण के अनुसार प्लक्ष द्वीप - का एक पर्वत । चांद्रक-संचा पुं० [सं० चन्द्रिक ] सोंठ। .. चांद्रपुर-संशा पुं॰ [सं० चान्द्रपुर ] वृहत्संहिता के अनुसार एक नगर जिसमें एक प्रसिद्ध शिवमति के होने का उल्लेख है। 'चांद्रभागा----संथा की० [सं० चान्द्रनागा ] दे० 'चंद्रभागा' [को०] । चांद्रमस-वि० [सं० चान्द्रमस चंद्रमा संबंधी। - चांद्रमस-संज्ञा पुं०१. मृगशिरा नक्षत्र । २. चांद्र वर्ष (को०)। 'चांद्रमसायन--संश पुं० [सं० चान्द्रमसायन] बुध ग्रह । चाद्रमसायनि-संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रमसायनि] दे'चांद्रमसायन' (को०)। चांद्रमसी-वि० श्री. [सं० चान्द्रमसी] चंद्रमा की। चंद्रमा संबंधी (को०)। चांद्रमसी-संघा और बृहस्पति की पत्नी को। चाद्रमाण-संवा पुं० [सं० चान्द्रमाण) काल का वह परिमाण जो चंद्रमा की गति के अनुसार निर्धारित किया गया हो । चांद्रमास-संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रमास] वह मास जो चंद्रमा की गति के अनुसार हो। उतना काल जितना चंद्रमा का पृथ्वी की एक परिक्रमा करने में लगता है। विशेप-चांद्रमास दो प्रकार का होता है। एक गौण, दूसरा मुख्य । कृष्ण प्रतिपदा से लेकर पूणिमा तक का काल गौण या पूर्णिमांत और शुक्ल प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक का काल मुख्य या अमांत चांद्रमास कहलाता है । चाद्रयस्सर-संथा पुं० [पुं० चान्द्रवत्सर वह वर्ष जो चंद्रमा की गति के अनुसार हो। चांद्रवर्प-संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रवर्ष दे० 'चांद्रवत्सर' [को०) । चबितिक'-वि० [सं० चन्दिनतिक] जो चांद्रायण व्रत करे। चांद्रवतिक-संज्ञा पुं० राजा'! चांद्रास्य-संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रारुप अदरक [को। चाद्रायण-संवा पुं० [सं० चान्द्रायण] [वि० चान्द्रायणिक] १. मासिक 12. महीने भर का एक कठिन व्रत जिसमें चंद्रमा के घटने, बढ़ने . के अनुसार आहार घटाना बढ़ाना पड़ता है। विशेप-मिताक्षरा के अनुसार इस व्रत का करनेवाला शुक्ल प्रतिपदा के दिन त्रिकालस्नान करके एक ग्रास मोर के अंड के बराबर का खाकर रहे। द्वितीया को दो ग्रास खाय । इसी प्रकार क्रमशः एक एक ग्रास नित्य बढ़ाता हुआ पूर्णिमा के दिन पद्रह ग्रास खाय । फिर कृष्ण प्रतिपदा को चौदह ग्रास बाय । द्वितीया को तेरह, इसी प्रकार क्रमशः एक एक ग्रास नित्य घटाता हुमा कृष्ण चतुर्दशी के दिन एक ग्रास खाय और अमावस्या के दिन कुछ न खाय, उपवास करे। इस व्रत में ग्रासों की संख्या प्रारंभ और अत में कम तथा बीच में अधिक होती है, इसी से इसे यवमध्य चांद्रायण कहते हैं । इसी व्रत को यदि कृष्ण प्रतिपदा से पूर्वोक्त क्रम से (अर्थात् प्रतिपदा को चौदह ग्रास, द्वितीया को तेरह इत्यादि) प्रारंभ करे और पूणिमा को पूरे पंद्रह त्रास खाकर समाप्त करे तो वह पिपि- लिका तमुमध्य चांद्रायण भी होगा। कल्पतर के मत से एक यतिचांद्रायण होता है, जिसमें एक महीने तक नित्य तीन तीन ग्रास खाकर रहना पड़ता है। सुभीते के लिये चांद्रायण व्रत का एक और विधान भी है। इसमें महीने भर के सब ग्रासों को जोड़कर तीस से भाग देने से जितने ग्रास पाते हैं, उतने ग्रास नित्य खाकर महीने भर रहना पड़ता है। महीने भर के ग्रासों की संख्या २२५ होती है, जिसमें तीस का भाग देने से ७२ ग्रास होते हैं। पल प्रमाण का एक ग्रास लेने से पाव भर के लगभग अन्न होता है अतः इतना ही हविष्यान्न नित्य खाकर रहना पड़ता है। मनु, पराशर, वोडायन, इत्यादि सब स्मृितियों में इस व्रत का उल्लेख है । गौतम के मत से इस व्रत के करनेवाले को चंद्रलोक की प्राप्ति होती है। स्मृितियों में पापों और अपराधों के प्रायश्चित्त के लिये भी इस व्रत का विधान है। २. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ११ और १० के विराम से २१ मात्राएँ होती हैं पहले विराम पर जगण और दूसरे पर रगण होना चाहिए । जैसे, हरि हर कृपानिधान परम पद दीजिए । प्रभू जू दयानिकेत, शरण रख लीजिए। चांद्रायणिक-वि० [सं० चांद्रायणिक] [वि० स्त्री० चांद्रायरिणको] चांद्रायण व्रत करनेवाला (को०] . चांद्रि-संज्ञा पुं० [सं० चान्ति] बुध ग्रह [को०] । चांद्रो - संज्ञा स्त्री० [सं० चान्द्री] १. चंद्रमा की स्त्री। २. चाँदनी। ज्योत्स्ना । ३. सफेद भटकटैया । बांद्री-वि० चंद्रमा संबंधी। चांपिला--संशा क्षी० [सं० चाम्पिला] चंपा नदी (सभ्यता, आधुनिक __ चंबल) [को०)। चांपेय-संक्षा पुं० [सं० चाम्पेय ] १. चपक । २. नागकेसर। ३. किंजल्क । ४. सोना । सुवर्ग । ५. धतूरा (को०)। चांपेयक-संक्षा पुं० [सं० चाम्पेवक] किंजल्क । येसर। कोला। चांस-संधा पुं० [सं०] अवसर । मोका 1 30-रानी 'साहन चदा १ को अापके मुकाबले में रुपये में एक आना चांस भी नहीं है। -गोदान पृ० १२६॥