पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४२३

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.. बाइ लगि वजि पाइल तुत्र पाइ । पुनि सुनि मुनि मुह मधुर .. धुनि क्यों न लातु ललचाइ।-बिहारी २०, दा० २१२॥ बाउ संशा पुं० [हिं० चाब] दे० 'चाब'। चाउर-संवा पुं० [हिं० चावल] दे० 'चावल'। चाळ -संत्रा पुं० [हिं० चाव] दे० 'बाय'। .वाऊ'--मंडा देग०] या बकरे का बाल ।-(पहाड़ी)। __ चाक-संवा पुं० [ मुं० चक्र, प्रा० चक्क ] १. पहिए की तरह का वह . गोल ( मंडलाकार ) पत्यर जो एक कील पर घूमता है और जिनपर मिट्टी का लोंदा रखकर कुम्हार बरतन बनाते हैं। कुनालयका विशंप इनके किनारे पर एक जगह रुप के बराबर एक छोटा सा गड्ढा होता है जिसे कुम्हार 'चित्तो' कहते हैं। इसी विती में दंडा अकोकर चाक धुमाते हैं । . .२. गाड़ी या रथ का पहिया । उ०-विविध कता के लगे पताके छुदै जे. रविश्य चाक ।-रघुराज (शब्द०)। ३. चरखी जिसपर कुएं में पानी खींचने की रस्सी रहती है । गराड़ी। चिरनी। ४. मिट्टी की वह गोल घरिया जिसमें मिनी जमाते हैं । ५. थापा जिससे लिपान की राशि पर छापा लगाते हैं। . वि० चाकना' । ६. सान जिनपर शुरी, कटार प्रादि की घार तेज की जाती है । ७. कली के पिछले छोर पर वोक ' के लिये रखी हुई मिट्टी की पिंडी। ८. मिट्टी का वह बरतन . जिसने कन्तु का रस कड़ाह में पकने के लिये डाला जाता है। ६. मंडलाकार चिह्न की रेखा । गोंडला । चाक-संवा पुं० [फा०] १. दरार । वीर। महा. चाक करना या देना=चीरना 1 फाड़ना। चाक होना = चीरा जाना। फाड़ा जाना। २. प्रास्तीन का बुला हृमा मोहा। यो०-चाके गरेवा=गवान का बला हुप्रा भाग। - चाक ---वि० [तु० चाक] १. दृढ़ । मजबूत । पुष्ट । २. हृष्ट पुष्ट । तंदुरुस्त । - यो०-चाक चौबंद =(१) हृष्ट पुष्ट । तगड़ा । (२) चुस्त । चालाक । फुरतीला । तसर। . चाक-संडा पुं० [अं॰] वरिया मिट्टी । दृदी। - या०-चाक प्रिंटिंग एक प्रकार की सफेद रंग की छाई जो . प्रायः पुस्तकों के टायटिल पेज (प्रावरणपत्र) आदि पर

होती है । इसकी स्याही वरिया के योग ने बनती है।

पिक-वि० [तु० चाक अनु० च ] चारों ओर से सुरक्षित। दृ । मजबूत । उ०-चाकत्रक चमके अचाकवक चह' पोर .. पाक सी फिरत धाक चंपति के लाल की। भूपण (शब्द)। चक्य-संहा की० [सं०] १. चमक दमक । चमचमाहट। .... उबलता । २. शोभा। सुदरता। चाकचित्य संशा पुं० दे० 'चाकवध' को ३-१२ .... ." चाकचिच्चा- देश ही [२०] बतिस्ता यो श्वेतबुहा नाम का एक- विशेष पौत्रा (को०] 1 चाकट-संशा पुं० [देश॰] एक प्रकार का कड़ा जो हाथ में पहना जाता है। चाक दिल–दा पुं० [फा०] एक प्रकार का बुलबुल ।, चाकना-जि० स० [हिं० चांक ] १. सीमा बाँधने के लिये किसी वस्तु को रेखा या विह्न नींवकर चारो ओर से घेरना । हृद न्हींचना । ३०-सकल मुवन शोभा अनु चाकी । तुलसी (शब्द०) २. बलियान में अनाज की राशि पर मिट्टी या राख से छापा लगाना जिसमें यदि अनाज निकाला जाय, तो मालूम हो जाय । १०-तुलसी तिलोक की समृद्धि सौंज संपदा सकेलि चाकि रानी राशि जाँगर जहान भो।-तुलसी (शब्द०)। ३. पहचान के लिये किसी वस्तु पर चिह्न डालना। चाकर-मंदा पुं० [फा०] [ी चाकरानी ] दास । मृत्य । सेवक। नौकर। चाकरनी-संघा मी० [हिं० चाकर+नी (प्रत्य॰)] दे' 'चाकराना । चाकरानी-शास्त्री० [हिं० चाफरानी (प्रत्य॰)] नौकरानी। दासी । लौंड़ी। चाकरी-संशा कौ० [फा०] सेवा । नौकरी । बहल । खिदमत । क्रि० प्र० करना। . महा०-चाकी बजाना सेवा करना । विदमत करना। चाला -वि० [हिं० चफला] दे० चकला' ' .. चाकलेट--संज्ञा पुं० [०] १. कायों के बीज को पीसकर तैयार किया गया पदार्थ । २. इस पदार्थ के योग में बनी मिठाई या मधुर पेय पदार्थ । एक विशेष विदेशी मिठाई। ३. मुंदर लड़का जिसके साथ प्रकृतिविन्द्ध संभोग किया जाय । लौंडा। चाकसू-संज्ञा पुं० [सं० चक्षप्या ] १. वनकुलथी का पौधा । २. वनकुजयी का बीज। विशेप-ये बीज बहुत छोटे और काले काले होते हैं। प्रौर के रूप में ये पीसकर आंख में डाले जाते हैं। ३.निमली का बृन या बीज। चाका-संगहि चाक] १. दे० 'चाक'। २. पहिया। चा@ि ---संज्ञा पुं० [हिं० चाक] दे० 'चाक' । २० काबीर हरि रस चौँ पिया बाकी रही न थाकि! पाका कलस कुंभार का बहुरि न चढ़ई चाकि ।-कबीर ग्रं०, पृ० १६॥ चाकी --संशा मौ० [हिं० चाक ] घाटा पीसने का यंत्र । चक्की। चाकी-धा नौ ० चक्र] १. विजली । वन:- क्रि० प्र०-गिरना-पड़ना। ... .. २. पटै की एक चोट जो सिर पर की जाती है। चाकू-उंडा पुं० [तु० चाकू] कलम, फल तथा छोटी मोटी चीजों को काटने, हीलने ग्रादि का प्रौजार । छुरी। ..