पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४२८

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पान १५०७ वापर. मा चात्र--संश पुं० [सं०] अग्नि मंथन यंत्र का एक अवयव । चानक'-@-कि० वि० [हिं० अचानक ] अचानक । सहसा । विशेष - यह वारह अंगुल की खैर की लकड़ी होती है जिसके अकस्मात् । उ०--हरिनी जनु चानक जाल परी जनु सोन: अगले छोर में लोहे की एक कील लगी होती है और पीछे चिरी अवहीं पकरी-गुमान (शब्द०)। .. .. की पोर छेद होता है। चानक-संवा स्त्री० [हिं०] गहरी चाह। प्रेम । चाव । उ०-मूरति । चात्रक -संशा पुं० [सं० चातक] दे० 'चातक' 13०- मनो चात्रक अनुप एक आय के अचानक मैं चानक लगाय अजों हिय · को मोर पानंद बने ।-हम्मीर०, पृ० १४४।। हरति है। -दीन० ०, पृ० १०॥ चात्रिक' संज्ञा पुं० [सं० चातक] दे॰ 'चातक' । चानण(५ --संज्ञा पुं० [हिं० चांदना] ६५ 'चांदना । 30-कवन खंड चात्रिग-संक्षा पुं० [सं० घातक] दे० 'चातिक' । उ० देह गेह नहिं बोले सो होय । नानक गुरुमुख चानण लोय !-प्राणः पृ०५॥ सुधि सरीरा । निसदिन चितवत चात्रिग मीरा -दादू०, पृ० " 2" चानणी--संक्षा पुं० [हिं० चांदनी] चांदनी अर्थात् शुक्ल पक्ष। उ०- मा भडभड़िया सादुल रा, वीस विखम्मी वार । चैत इग्यारस ' चात्वाल--संज्ञा पुं० [सं०] १. हवनकुड । २. उत्तर वेदी । ३.दर्भ। डाभ । कुश । ४. गड ढा। चानणी असुरा सुणी पुकार ।-रा० रू०, पृ० २४१ ।। चादर-संशा जी० [फा०] १. कपड़े का लंबा चौडा र कडा जो प्रोडने जानन-संज्ञा पुं० [सं० चन्दन] ३० 'चंदन' । उ०-चानन भरम सेवाल के काम में पाता है। हलका ओढ़ना। चौड़ा दुपट्टा। पिछोरी। हम सजनी पूछत सकल मन काम ।-विद्यापति, पृ०४६६ । • यो०-चादर छिपौवलम्-लड़कों का एक खेल जिसमें वे किसी चनायल-वि० [हि चान ] चांदना या प्रकाश । उ०—प्रोग्रंकार लड़के के ऊपर चादर डाल देते हैं और दूसरी गोल के लड़कों हुआ चनायल । तद तीन देव उपायल ।-प्राण, पृ०१। से उसका नाम पूछते हैं। जो ठीक नाम बता देता है वह चानसा-संक्षा पुं० [अ० चांस] तापा का एक खेल । २. दे० 'चांस । चादर से ढके लड़के को स्त्री बनाकर ले जाता है। चाप-संभा पुं० [सं०] १. धनुष । कमान । २. गणित में, प्राधा महा०-चादर उतरना-वेपर्द करना। इज्जत उतारना। वृत्तक्षेत्र। अपमानित करना । मर्यादा बिगाड़ना। विशेष-सूर्य सिद्धांत में ग्रहादि के चाप निकालने की क्रिया दी । विशेष--स्त्रियों के संबंध में इस मुहावरे को उसी अर्थ में बोलते हैं, जिस अर्थ में पुरुषों के लिये 'पगड़ी उतारना' वोलते हैं। ३. वृत्त की परिधि का कोई भाग । ४. धनुराशि। " चादर ओढ़ाना या डालना--किसी विधवा को रख लेना। चाप-संक्षा खी [हिं० चपना] १. दवाव । चादर रहना या लाज की चादर रहना-इज्जत रहना। क्रि०प्र०--पड़ना । । कुल की मर्यादा रहना । प्रतिष्ठा का बना रहना । उ०-- २. पैर की प्राहट । पैर जमीन पर पड़ने का शब्द । जैसे, इतन लाल बिनु कैसे ज चादर रहेगी नाज कादर करत में किसी के पैर को चाप सुनाई दी। .... आप बादर नए नए । - श्रीपति (शब्द०)। चादर से चापक-संज्ञा पुं० सं० चाप-12] धनुष। उ०-लखिन बतिस बाहर पैर फैला(१) अपनी हद से बाहर जाना। बहुतरि कला वाल वेस पूरन सगुन । क्रीड़त गिलोल जब लाल (२) अपने वित्त से अधिक खर्च प्रादि करना। चादर कर (तब) मार जानि चापक सुमन ।-पृ० रा० ११७२७ । हिलाना- युद्ध में शवों से घिरे हुए सिपाही का युद्ध रोकने चापजरबी-संज्ञा स्त्री० [हिं० चाप--कजरीव] किसी जमीन की या पात्मसमर्पण करने के लिये कपड़ा हिलाना । युद्ध रोकने सीधी नाप । लंबाई की नाप । .. ..: का झंडा दिखाना। चापट, संक्षा खी.[हिं० चिपटनादाने की वह भूसी जो माटा २. किसी धातु का बड़ा चौखूटा पत्तार । चद्दर । ३. पानी की पीसने पर निकलती है। चोकर । चौड़ी धार जो कुछ ऊपर से गिरती हो । ४. बढ़ी हुई नदी या चापट-वि० [हिं० चाप] दे॰ 'चापड़। . और किसी वेग से बहते हुए प्रवाह में स्थान स्थान पर पानी चापड़ --वि० [सं० चिपिट, हि० चियटा, चपटा] १. जो दबकर का वह फैलाव जो विलकुल वरावर होता है, अर्थात् जिसमें चिपटा हो गया हो । जो कुनले जाने के कारण जमीन के ...भवर या हिलोरा नहीं होता । ५. फूलों की राशि जो किसी देवता या पूज्य स्थान पर चढ़ाई जाती है । जैसे, मजार पर . बराबर हो गया हो। २. वराबर । समतल । हमधार । ३. मटियामेट । चौपट । उजाड़ । जैसे, ऐसी बाढ़ पाई कि कई चादर चढ़ाना । ६.खेमा । संखु । शिविर । उ०-दक्खिन की . गांव चापड़ हो गए। . और तेरे चादर की चाह सुनि, चाहि भाजी चांदबीबी चौंकि भाजे चक्कवै ।-गंग०, पृ० १.३। चापड़ संज्ञा सी० [हिं० चाट] चोकर । भूसी। चादरा--संज्ञा पुं० [हिं० चादर] मरदानी चादर । बड़ी चादर ।। चापदंड-संज्ञा पुं० [सं० चापदण्ड ] वह डंडा जिससे कोई वस्तु आगे की ओर वेली जाय । . चादरी--संशा पुं० [हिं० चादर ] एक प्रकार का हथियार । उ०----- .. " तोप, वाण, चादरि हथनालि, जंवूर बंदूक । तमंचा कमान, चापना---कि स० [सं० चाप (-घनुष)] दधाना । मीडना । 30- ' 'सेल इन नै त्यागो।--ह. रासो, पृ०१५६ ।। • चापत चरण लखन उर लाए.। समय सप्रेम परम सचुपाए । चान--संज्ञा पुं० [चाँद] दे० 'चाँद' 1 उ पाध बदन तन्हि देखल तुलसी । (शब्द०)। मौर । चान ग्रएछ करि चलल चकोर ।-विद्यापति, पृ० ५६४। चापर--वि० [हिं० चापड़ ] ३० 'चापड़'। . .