पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४३०

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थाभा १५०६ चाय - चुपचाप चटपट चाभ चूभकर चले भी पाते ।-प्रेमघन॰, चामरिक-संज्ञा पुं० [सं०] चंबर डुलानेवाला। भा २, पृ० ८५ चामरी'--संज्ञा स्त्री० [सं०] सुरा गाय । . मुहा०--माल चामना=(१) अनेक प्रकार के स्वादिष्ट और चामरी-संधा पुं० [चामरिन्] घोड़ा [को०)। . . पौष्टिक पदार्थ खाना । वढ़िया बढ़िया चीजें खाना । (२) चामिला-संशा श्री० [हिं० बबल]. दे० 'चंवल' । उ०-चामिल .. मौज करना । सुख से रहना । तेरे वाली प्राये ।-लाल (शब्द०)। चाभा-- संज्ञा पुं० [हिं० चचाना ] बैलों का एक रोग जिसमें उनकी चामीकर'-संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना । स्वर्ण । उ०-चारु चामीकर जीभ पर साँटे से उभड़ पाते हैं और उनसे कुछ खाते नंब नपला चमक चोखी, केसरि चटक कौन लेखे लेखिपति नहीं बनता। है |-घनानंद, पृ० १८१२. स्वर्ण संबंधी। चाभी-संचा मो० [हिं० चावी] दे० 'चावो' । चामीकर--वि० १. स्वर्णमय । सुनहरा । २. स्वर्ण संबंधी। चाम--संज्ञा पुं० [सं० चर्म] चमड़ा । खाल । चमड़ी। चामीकराचल, चामीकराद्रि--संया पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत [को०)। यो०-चाम के दाम - चमड़े के सिक्के । चामु डराज- संज्ञा पुं० [म० चामुण्डराज ] गुजरात का एक राजा वि०--ऐसा प्रसिद्ध है कि निजाम नामक एक भिश्ती ने हुमायू जो चापोत्पाट वंशीय सामंतराज का भांजा था। इसकी मृत्यु को डूबने से बचाया या और इसके बदले में आधे दिन की १०२५ ईसवी में हुई थी। बादशाही पाई थी। उसी आधे दिन की बादशाहत में उसने चाडराय-मश पुं० [सं० चामुण्ड+प्रा० राय] महाराज पृथिवी- चमड़े के सिक्के चलाए थे। राज का एक सामंत जो 'बयाणा' के 'राजा दाहर का पुत्र महा०-चाम के दाम चलाना = अपनी जबरदस्ती के भरोसे कोई और दाहिमा क्षत्रिय था। काम करना । अन्याय करना । अंधेर करना । उ०-(क) चामुंडा--सारा श्री० [सं० चामुण्डा ] एक देवी का नाम जिन्होंने ऊधो अब कछु कहत न पाव । सिर पं सौति हमारे कुवजा शुभ, निभ के चंड, गुड नामक दो मेनापति दैन्यों का वध चाम के दाम चलावै ।--सूर (शब्द॰) । (ख) बतियान किया था। सुनाय के सौतिन की छतियान में साल सलाय ले री । सपने पर्या०-चविका। चर्ममुंडा। माजोरफरिणका। कर्णमोटी। है न कीजय मान गए अपने जोबना वलाय ले री। परमेस महागंधा । भैरवी । फापालिनी ।

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ज रूप तरंगन सो अंग अंगन रूप रुलाय ले रीटिन चलि चाम्य-संप पुं० [सं०] खाद्य पदार्थकोगा तु पिय प्यारे के प्यार सों चाम के दाम चलाय ले री।- चाय--संवा चौ[चीनी० चा ] एक पौधा या झाड़ जो प्रायः दो परमेश (शब्द०)। से नार हाथ तक ऊचा होता है। . चाम'--संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] हल की नोक से चिरी हई भूमिती रेखा। ' विशंप-इसकी पत्तियाँ १०-१२ चंगुल लम्बी, ३.४ अंगुल चौड़ी उ०-एक दो चाम राचल ने खींचकर निकाली, वहाँ मोती और दोनों सिरों पर नुकीली होती हैं। इसमें सफेद रंग के पैदा हो गए। वाकी ०, भा० १. पृ०८१ । चार पाँच दलों के फूल लगते हैं जिनके झड़ जाने पर एक, दो, चामचोरी--संक्षा ली. [हिं० चाम+चोरी] गुप्त रूप से पर-स्त्री या तीन बीजों से भरे फल लगते हैं। यह पौधा कई प्रकार गमन। का होता है। इसकी सुगंधित और सुखाई हुई पत्तियों को चामड़ी-संवा मी० [हिं० चमड़ी दे० 'चमड़ी'। उबालकर पीने की चाल भव प्राय: संसार भर में फैल गई है। चामर-संशा पुं० [सं०] १. चौर । चंवर । चौरी । २. मोरछल । ३. चाय पीने का प्रनार सबसे पहले चीन देश में हुपा। वहां से एक वर्णवत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगरण, जगरण, रगण, क्रमशः जापान, बरमा, श्याम, नादि देशों में हुमा । चीन देश जगए और रगण होते हैं । जैसे,-रोज रोज राधिका सखीन • में कहीं पाहीं यह कहानी प्रचलित है कि धर्म नामफ कोई ..प्राह्मण चीन देश में धर्मोपदेश वारने गया। वहाँ वह एक संग पाई के । खेल रास कान्ह संग चित्त हर्ष लाइक । बाँसुरी समान बोल सप्त ग्वाल गाइक। कृष्ण ही रिझायही सु दिन चलते चलते थककर एक स्थान पर सो गया। जागने पर चामर डुलाई के। - उसे बहुत सुस्ती मालूम हई। इसपर ऋद्ध होकर वह अपनी चामरग्राह---संश्या पुं० [सं०] वह सेवक जो चंवर डुलाने का कार्य भी के बाल नोच नोचकर फेंकने लगा। जहाँ जहाँ उसने करता है [को०] । वाल फेंके, वहाँ वहाँ कुछ पौधे उग आए जिनकी चामरग्राहिक -संज्ञा पुं० [सं०] २० 'चामरग्राह' को . पत्तियों को खाने से वह आध्यात्मिक ध्यान में मग्न चामरग्राही--संज्ञा पुं० [सं० चामरग्राहिन्] दे० 'चामरनाह' को०] 1 हो गया । वे ही पौधे चाय के नाम से प्रसिद्ध में मग्न चामरपुष्प, चामरपुष्पक- संज्ञा पुं० [सं०] १. कांस । २. सुपारी - चीन में पहले प्रौपध के रूप में इसका व्यवहार चाहे बहुत ' का पेड़ । ३. केतकी । ४. प्राम। प्राचीन काल से हो रहा हो पर इस प्रकार उबालकर पीने चामरपाला-संक्षा पुं० [हिं० चामर---पाल तुर्फ । उ०--भाग की चाल वहाँ ईसा की सातवीं या पाठवीं शताब्दी के पहले

चले रिण भांजिया, चौड़े चामरपाल।-रा० रु०, पृ० २७४। नहीं थी। भारतवर्ष में प्रासाम तथा मनीपुर आदि प्रदेशों

चामरपुष्पक-देश पुं० [सं०] दे० 'चामरपुष्प' (को०] । में यह पौधा जंगली होता है। नागा की पहाड़ियों पर भी चामरव्यंजन-संज्ञा पुं० [चामर+व्यंजन] चवर [को०]। इसके जंगल पाए गए हैं । पर इसके पीने की प्रथा का प्रचार