पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४३२

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चारपाई १५११ चारं प्राइना

(ख) भइ भापरि न्योछावरि राज चार सय कीन्ह ।--जायसी चारजामा--संधा पुं० [फा० चारजामह ] चमड़े या कपड़े का बना

(शब्द०)। (ग) और हु चार करायहु मुनिवर शशि सूरत हुमा वह ग्रासन जिसे घोड़े की पीठ पर कसकर सवारी करते हैं। जीन । पलान । काठी । गद्दी। सुत देखें।--रघुराज (शब्द०)। (घ) अर्ध रानि लौं समाल चार करि पाप जाहु जनदासे |--रघुराज (शब्द॰) । चारटा--संक्षा सी० [सं०] पक्षचारिणी वृक्ष । भूम्यामलकी। . चार आइना-संघा [फा०] एक प्रकार का कवच या चकतर चारप्टका-संघा सी० [सं०] नली नामक गंधद्रव्य । जिसमें लो की चार पटरियाँ होती हैं। एक छाती पर एक चारटी--संसानी [म० दे० 'चारटा' [को० । पीठ पर और दो दोनों बगल में (भुजा के नीचे)। चारण--संक्षा पुं० [सं०] १. वंश की कीति गानेवाला । भाट । चारक--संडा पुं० [सं०] १. गाय भैस चरानेवाला। चरवाहा । वंदीन । २. राजस्थान की एक जाति । २. चलानेवाला । संचारक । ३. गति | चाल । ४. चिरौंजी विशेप-सह्याद्रिखंड में लिखा है कि जिस प्रकार वैज्ञालिकों की का पेड़ । पियाल । ५. कारागार । ६. गुप्तचर । जासूस । उत्पत्ति वैश्य और शूद्रा से है, उसी प्रकार चारणों की भी है; ७. सहचर। साथी 1 5 अश्वारोही । सवार । ६. घूमनेवाला पर चारणों का वृषलत्य कम है। इनका व्यवसाय रामानों ब्राह्मण छात्र या ब्रह्मचारी । १०. मनुष्य । ११. चरक निर्मित और वाहाणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है। ग्रंथ या सिद्धांत । चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक मलौफिक कथाएँ चारक-- वि० चार एक । थोडे । उ----यह संपदा दियत चारक कहते हैं। की सोच समझ मन माहीं। सर सुनत उठि चली राधिका, ३. भ्रमणकारी। दै दूती गलवाहीं।-संतवाणी, भा० २, पृ० ६१ । चारण विद्या, चारणवैद्य--संचा पुं० [सं०] अथर्ववेद का अग। चारक--संज्ञा पुं० [सं०] वह पौद जिसमें न्यायाधीश विचारकाल में चारताल-- संहा पुं० [हिं० चारताल] दे० 'चौताला' । किसी को रखे हवालात । चारतूल-संशा पुं० [-] चयर [को०)। . चारदा--संपा पुं० [हिं० चार+दा (प्रत्य॰)] १. चौपाया। २. चारकर्म--संक्षा पुं० [सं० चारकर्मन्] जासूसी । गुप्तचर का काम (को०] । (कुम्हारों की बोली में) गदहा। चारकाने -संक्षा पुं० [हि चार+हाना मात्रा] चौसर या पासे का चार दिन हा [सं० चार+दिन] घोड़े दिन । एक दांव। ___यो०-चार दिन की चांदनी चंदरोजा चमक दमक । विशेष-यह उस समय होता है जब नई बाजी के तीनो पासे इस . प्रकार पड़ते हैं कि एक पासे में तो दो चित्ती और वाकी दोनों चारदिवारी-संशा सी० [फा० चहारदीवारी] १. वह दीवार जो पासों में एक एक चित्ती ऊपर की ओर दिखाई पड़ती है । किसी स्थान की रक्षा के लिये उसके चारो ओर बनाई जाय । घेरा। होता।२ शहर पनाह । प्राचीर । कोट । चारखाना-संघा पुं० [फा० चार खानह ] एक प्रकार का कपड़ा। जिसमें रंगीन धारियों के द्वारा चौखूटे घर बने रहते हैं। चारधाम- संशा पुं० 'सं.] हिंदुओं के चार तीर्थों का सामहिक नाम। इनका नाम इस तरह है-१. जगन्नाथपुरी, २.बदरिकाश्रम, चारचंचु--वि० [सं० चारचञ्चु] सुदरं गति या चालवाला (को०] । ३. रामेश्वरम्, ४. द्वारका। चारचंद--वि० [सं० चार+फा० चंद] चौगुना । चारमारग-संगा पुं० [सं० चार+मागं] व्यवहार आदि में धूर्तता। चारनी ...-संशा पुं० [हिं० चारण] दे॰ 'चारण। चारना--क्रि० सं० [सं०चारण ] चराना। उ०—(क) गो क्रि० प्र०--बूझना । लेना=भेद का पता लगाना । रहस्य की चारत मुरली घुनि कीन्हा । गोपी जन के मन हर लीन्हा। बात जान लेना। -गोपाल (शब्द०)। (ख) जहें गो चारत नित गोपाला।। चारचक्षु--संक्षा पुं० [सं०. चारचक्षुष] वह जो दूतों ही के द्वारा सब संग लिये ग्वालन की माला । बातों की जानकारी प्राप्त करे । राजा । चार नाचार-कि० वि० [फा०] विवश होकर । लाचार होकर । चारचण--वि० [सं०] दे० 'चारचंचु। मजबूरन् । चारचश्म---वि० [फा०] १. निर्लज्ज । २. नमकहराम । ३. चारपथ-संज्ञा पुं० [सं०] १. चौमुहानी । २. राजमार्ग (की। ___ असौजन्यवाला। चारपाई-संशा श्री [हिं० घार+पाया ] छोटा पलंग । खाट । चारज-संषा पुं० [अ० चार्ज] १. कार्यभार । काम की जिम्मेदारी । खटिया । मंजी । माचा।। . चार्ज। मुहा०-चारपाई पर पड़ना = (१) चारपाई पर लेटना । (२) - मुहा०-चारज देना= किसी काम को छोड़ते समय उसका भार बीमार होना । अस्वस्थ होना। रोगग्रस्त होना । चारपाई अपने स्थान पर आए हुए मनुष्य को सहेजकर देना। घरना, पकड़ना या लेना=(१) इतना बीमार होना कि चारज लेना- किसी कार्य के भार को उससे अलग होनेवाले चारपाई से उठ न सके । अत्यंत रुग्ण होना । (२) चारपाई . मनुष्य से सहेजकर लेना। पर लेटना । सोना । जैसे,-तुम खाते ही चारपाई पकड़ते २. सुपुंदंगी। निगरानी । संरक्षा का भारत हो। चारपाई में कान निकलना चारपाई का टेढ़ा होना।