पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पाचौं

चालक ।

प्राचीन है। इसका प्राविवि उसी समय से समझना चाहिए जव वैदिक कर्मकांडों की अधिकता लोगों को कुछ खटकने लगी थी चार्वाक ईश्वर और परलोक नहीं मानते । परलोकन मानने के कारण ही इनके दर्शन को लोकायत भी कहते हैं । सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक के मत से सुख ही इस जीवन का प्रधान लक्ष्य है । संसार में दुःख भी है, यह समझकर जो सुख नहीं भोगना चाहते, वे मूर्ख हैं। मछली में कांटे होते हैं तो क्या इससे कोई मछली ही न खाय ? चौपाए खेत पर जायंगे, इस डर से क्या कोई खेत ही न बोवे ? इत्यादि । चार्वाक प्रात्मा को पृथक् फोई पदार्थ नहीं मानते। उनके मत से जिस प्रकार गुड़ तंडुल आदि के संयोग से मध में मादकता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार भूतों के संयोगविशेष से चेतनता उत्पन्न हो जाती है। इनके विश्लेषण या विनाश से 'मैं' अर्थात् चेतनता का भी नाश हो जाता है। इस चेतन शरीर के नाम के पीछे फिर पुनरागमन आदि नहीं होता। ईश्वर, परलोक आदि विषय अनुमान के माधार पर हैं। पर चार्वाक प्रत्यक्ष को छोड़कर अनुमान को प्रमाण में नहीं लेने। उनका तर्क है कि अनुमान च्याप्तिज्ञान का प्राधित है। जो ज्ञान हमें बाहरी इंद्रियों के द्वारा होता है उसे भुत और भविष्य तक बढ़ाकर ले जाने का नाम व्याप्तिज्ञान है, जो असंभव है। मन में यह ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, यह कोई प्रमाण नहीं क्योंकि मन अपने अनुभव के लिये इंद्रियों का ही प्राश्रित है। यदि कहो कि अनुमान के द्वारा व्याप्तिज्ञान होता है तो इतरेतराश्रय दोष पाता है, क्योंकि व्याप्तिज्ञान को लेकर ही तो अनुमान को सिद्ध किया चाहते हो । चार्वाक का मन सर्वदर्शनसंग्रह, सर्वदर्शनशिरोमणि पौर बृहस्पति सूत्र में देखना चाहिए। नैषध के १७ सर्ग में भी इस मत का विस्तृत उल्लेख है। यौ---चार्वाक दर्शन - चार्वाक निर्मित दर्शन अथ । चार्वाक मत=चार्वाक का सिद्धांत या दर्शन । २. एक राक्षस जो कौरवों के मारे जाने पर ब्राह्मण वेश में युधिष्ठिर की राजसभा में जाकर उनको राज्य के लोभ से भाई बंधुमों को मारने के लिये धिक्कारने लगा। इसपर सभास्थित प्राहाण लोग हुंकार छोड़कर दौड़े और उन्होंने छद्मवेशधारी राक्षस को मार डाला। चार्वी-संया स्त्री० [सं०] १.बुद्धि । २. चाँदनी । ज्योत्स्ना। ३. दीप्ति । प्राभा । ४. सुदर स्त्री। ५ कुबेर की पत्नी । ६. दारु हुलदी। चाल-संमा लो० [हिं० चलना, सं० चार] १. गति । गमन । चलने की क्रिया। जैसे-इस गाड़ी की चाल बहुत धीमी है। २. चलने का ढंग । चलने का ढब । गमन प्रकार । जैसे,—यह घोड़ा बहुत अच्छी पाल चलता है। उ०-रहिमन सूधी चाल ते प्यादा होत वजीर । फरजी मीरन ह सकं, टेढ़े की तासीर ।- रहीम (शब्द०)। ३. आचरण । चलन । बर्ताव । व्यवहार । जैसे,--(१) अपनी इसी धुरी पाल से तुम कहीं नहीं टिकने पाते । (२) अपने सुत को चाल न देखत उलटी तू हम परिस ठानति ।-सुर (शब्द०)। यो०--चालचलन । चालढाल । मुहा०-चाल सुधारना=नाचरण ठीक करना। ४. प्राकार प्रकार । ढव । बनावट । प्राकृति । गढ़न । जैसे, इस चाल का लोटा हमारे यहां नहीं बनता । ५. चलन । रीति । रवाज ! रस्म । प्रथा । परिपाटी । जैसे, हमारे यहां इसकी चाल नहीं है । ६. गमन का मुहूर्त । चलने की सायत । चाला। उ०-पोथी काढ़ि गवन दिन देखें कौन दिवस है चाल । ---जायसी (शब्द०)। ७. कार्य करने की युक्ति । कृतकार्य होने का उपाय । ढंग। तदबीर । ढब । जैसे,—किसी चाल से . यहां से निकल चलो। ८. धोखा देने की युक्ति । चालाकी । कपट । छल । धूर्तता । उ०- जोग कथा पठई ब्रज को सब ___सठ चेरी की चाल चलाकी !- तुलसी (शब्द०)। . क्रि० प्र०-फरना। यौ०-चालबाली। मुहा०-चाल चलना (अकर्मक )= धोखा देने की युक्ति का कृतकार्य होना। धूर्तता से कार्य सिद्ध होना । जैसे,--यहाँ तुम्हारी चाल नहीं चलेगी। चाल चलना (सफर्मक)धोखा देने का प्रायोजन करना चालाकी करना । धूर्तता करना। जैसे,--हमसे चाल चलते हो, बचा ! चाल में प्राना-धोखे में पड़ना। धोखा खानी। प्रतारित होना। ६. ढंग । प्रकार । विधि । तरह । जैसे,-मैंने उसे काई चाल से समझाया पर उसकी समझ में न आया। १०. मातरंज। चौसर, ताश आदि के खेल में गोटी को एक घर से दूसरे घर में ले जाने अथवा पत्ते या पासे को दांव पर डालने की क्रिया । जैसे-देखते रहो, मैं एक ही चाल में मात करता हूँ। क्रि० प्र०--चलना। . ११. हलचल । धूम । प्रांदोलन 1 30-~-सातहू पताल काल सवद कराल राम भेदे सात ताल चाल परी सात सात में । तुलसी (शब्द०)। १२. पाहट । हिलने डोसने का शब्द । खटका। उ०-देखो सब बक्ष निश्चल हो गए, भृग और पक्षियों की कुछ भी चाल नहीं मिलती।-(शब्द०)। मुहा०--चाल मिलना=हिलने डोलने का शब्द सुनाई देना। पाहट मिलना। ११३. वह मकान जिसमें बहुत से किराएदार रहते हों। किराए का बड़ा मकान (बंबई)। चाल-संज्ञा पुं० [सं०] १. घर का छप्पर या छत । छाजन । स्वर्ण चुड़ पक्षी। ३. चलनः । गतिशील होना (को०)। ४. नीलकठ (को०)। चालक'-वि० [सं०] १. चलानेवाला । संचालक । चालक-संज्ञा पुं०१. वह हाथी जो अंकुश न माने । नटखट हाथा। २. नृत्य में भाव बताने या सुदरता लाने के लिये हाथ चलाने की क्रिया। चालक -संग्रा पुं० [हिं० चाल (धूर्तता)]. पाल चलनेवाला।. धूतं । छली । उ०-~-धरघाल, चालक, कलहप्रिय कहियत परम परमारथी |--तुलसी (शब्द०)।