पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४३९

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चासू ... तासु हिय चाव।—सूर (शब्द०। (ख) चही दीप वह . देखा, सूनत रन तस चाय!-जायसी (शब्द॰) । क्रि० प्र०-उठना ।-करना ।—होना । . . मुहा०-चाव निकालना-लालसा पूरी करना। -- .२. प्रेम । अनुराग । चाह । उ०-ज्यों ज्यों चवाव चल चोर रचित यावत्यों ही त्यों चोखे-(शब्द०)। ३ शौक। . . उत्कंठा । उ०-चाप घटी कि मिटी चित चाब, कि पालस - नीद, कि वेपरवाही।-(शब्द०)। लाड़४. प्यार। दुलार । नबरा। यो०-चावचोचला=नाजनखरा । चावमाव-प्रेमभाव । यो०--उमंग । उत्साह । यानद । उ०-यहि विधि जासु प्रभाव, श्री दसरथ महिपाल मरिण । और सर्व चित चाव, सुत विनु तपित .. रहत हिय । -रघुराज (शब्द०)। चाव-संज्ञा . [१० चय] एक प्रकार का बांस । वि० दे० 'चाय' । चावड़ा संज्ञा पुं॰ [चावरण] चावण । खत्रियों का एक वर्ग । - चावड़ी-संज्ञा - [देश॰] पथिकों के उतरने का स्थान । चट्टी। पड़ाव । जैसे, चावड़ी बाजार । चावरण-पंक्षा पुं० [देश॰] गुजरात का एक प्रसिद्ध और प्राचीन राज- पूत वंश जिसने कई शताब्दियों तक गुजरात में राज्य किया। इस वश की राजधानी 'अनहलवाड़ा थी। .. - विशेष-जिस समय महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर प्राक्रमण किया था उस समय सोमनाथ चावण राजा के अधिकार में था। इस वंश की उत्पत्ति का ठीक पता नहीं है। कोई को '. 'बड़ों को विदेश से आया वतलाते हैं पर अधिकांश लोग इन्हें विस्तृत प्रमार वंश की शाखा मानने हैं। इनके सबसे प्राचीन पूर्वज का नाम बछरा मिलता है। वछराज - दीव या दीउ . 'मामक स्थान में राज्य : तेथे बछराज के पुत्र वेणीराज ' 'समय जब दी जाप क. प्रधिकांश समुद्रमग्न हो गया तब उनकी गनी वहां से चद् नामक स्थान में भागी जहाँ उसके गर्भ से वनराज नामक पुत्र उत्पन्न हुपा । यह पुत्र बड़ा प्रको हुप्रा और डाकुनों का बड़ा भारी दल इक्ट्ठा करके इधर उधर लूट मार करने लगा । अन में अनहल नामक चरवाहे ने पट्टन नगर के खंडहरों में प्रमारों का बहुत सा सचित धन -- उसे दिखा दिया। इसी धन के बल से उसने उसी स्थान पर संवत्.८०२ में अनहलवाड़ा नामक नगर वसाया। चावर समः पुं० [हिं० चावल] दे० 'चावल'। चावार संशा सी० [हि. चावल चावल । १०- रतन मिलें . तिल चावरि कीनी । भरि भरि गोद सबनि को दीनी।- नंद००, पृ०२४१ । चावल- सं तण्डल प्रथा मुंडारी] १. एक प्रसिद्ध अन्न । . घान के बीज की गुठली । तंडुल । महाल-चावल चवदाना-जिन जिन पर किसी वस्त के चराने का संदेह हो उन्हें चारयारी रूपया भर चावल यह कहकर - पववाना कि जो चोर होगा उसके मुह से 'धूकने पर खून निकलेगा । यह वास्तव में एक प्रकार की धमकी है जिससे डरकर कभी कभी चोर चीजें फेंक देते हैं। '२. रांधा चावल । भात ।३. छोटे छोटे बीज के दाने जो किसी प्रकार खाने के काम में प्रावें । जैसे, लटजीरा के चावल, '" जवाइन के चावल, इत्यादि । ४. एक रत्ती का आठवां भाग - या उसके बराबर की तौल । साथ मुहा० चावल भर रत्ती के आठवें भाग के बराबर । माarma |हिं० चाहना 1 प्रसिद्ध । उ०—मछ महाबले मारियो चौड़े एकरण चोट । जवन अमायो जाणता जो चावी नवकोट!-रा०६०, पृ० २६३ ।। चाशना-सक्षा मा [फा०] १. चाना, मिन्ना चाशनी-संक्षा मी० [फा०] १. चीनी, मिन्नी या गुड़ का रस जो : पांच पर चढ़ाकर गाड़ा और मधु के समान लपीला किया गया हो। शीरा। मुहा०-चाशनी में पागना-मीठा करने के लिये चाशनी में डुवाना। २ किसी वस्तु में थोड़े से मी ग्रादि की मिलावट । जैसे,तमाकू __ में खमीरे की चाशनी । क्रि० प्र०-देना । ३.चसका । मजा । जैसे,—अब उसे इसकी चाशनी मिल गई है। ४. नमूने का सोना जो सुनार को गहने बनाने के लिये सोना देनेवाला गाहक अपने पास रखता है और जिससे ह बने हुए गहने के सोने का मिलान करता है। . . विशेप - जब किसी सोनार को बहुत सा सोना जेवर बनाने के .. लिये दिया जाता है तब बनानेवाला उसमें का यो: सा (लगभग १ माशा) सोना निकालकर अपने पास रख लेता . है और जब सोनार जेवर बनाकर लाता है तब वह उस जेबर .. के सोने को कसौटी पर कसकर अपने पास नमूने से मिलाता है। यदि जेवर का सोना नमूने से न मिला तो समझा जाता है कि सुनार ने मोना बदल लिया या उसमें कुछ मिला दिया। चाशनीगिर-संचा पुं० [फा०] बादशाहों या नवाबों का वह कर्मचारी जो भोज्य पदार्थ का निरीक्षण चखकर करता था। चाप-संज्ञा पुं० [सं०] १. नीलकंठ पक्षी। उ०-चारा चापु वाम दिसि लेई । मनह सकल मंगलं कहि देई।--मानस, १३०३ । २. चाहा पक्षी। . . . चाषण-संज्ञा पुं० [सं० /चक्षु] अाँख । नेत्र। उ०--अचरज देखि चाप लाग न निमेष कह।-प्रिया (शब्द०) चास--संधा श्री० [देश चासा] १. जोत । बाह । २. दे० 'चस' । चास-संशा पी० [फा०] किसी चीज की जांच के लिये उसमें मे निकाला हुमा भाग। चाशनी । उ०-चसकी चास लगापर्क, खूब रंगी झकझोरा ।---कबीर श०, भा॰ २, पृ० ८३ । चासना-क्रि० प्र० [हिं० चास] जोतना। चासनी -संज्ञा स्त्री० [हिं० चाशनी] दे० 'चाशनी'। चासा-सक्षा पु° [ग] १.चढ़ासा का एक जाति जा किसाना पर निर्वाह करती है। २. हलवाहाँ हल जोतनेवाला । ३. किसान | खेतिहर । चासू-वि० [हिं०] दे० 'चुस्त'। उ०-बांहे सुंदरि वहरवा, वासू