पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४५२

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पित्त चित्तप्रसादनं .. अलग प्रकाशकमानते हैं जिसे प्रात्मा कहते हैं। उनके विचार में बैठना जी में जमना । हृदय में दृढ़ होना । मन में धंसना। प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई हृदयंगम होना । उ0---अब हमरे चित बैठ्यो यह पद . । वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती। योगसूत्र के होनी होउ सो होउ ।—सूर (शब्द०)। चित्त में होना या अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है--प्रमाण, विपर्यय, चित्त होना इच्छा होना । जी चाहना। उ० यह चित । विकल्प, निद्रा पौर स्मृति । प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्दप्रमाण होत जाउ' मैं अवहीं यहां नहीं. मन लागत । —सूर : एक में दूसरे का भ्रम--विपर्यय: स्वरूपज्ञान के विना कल्पना- (शब्द०)। चित्त लगना-मन लगना । जी न घबराना । । विकल्प; सब विषयों के प्रभाव का बोध-निद्रा और जी न ऊबना। मन की प्रवृत्ति स्थिर रहना । जैसे,- कालांतर में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है। पंच (क) काम में तुम्हारा चित्त नहीं लगता। (ख) अब यहाँ दशी तथा और दार्शनिक ग्रंथों में मन या चित्त का स्थान हमारा चित्त नहीं लगता । घिस लेना-इच्छा होना । जी हृदय या हृत्पद्मगोलक लिखा है । पर आधुनिक पाश्चात्य चाहना। जैसे-अपना चित्त ले चले जाओ। चित्त से विज्ञान अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में उतरना=(१) ध्यान में न रहना । भूल जाना। उ०- मानता है जो सब ज्ञानतंतुओं का केंद्रस्थान है । खोपड़ी के अंदर सूर श्याम चित ते नहिं उतरत वह बन कुंज थली।-सूर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों को सी बनावट होती है, वही अंतःकरण (शब्द॰) । (२) दृष्टि से गिरना । प्रिय या आदरणीय है। उसी के सूक्ष्म मज्जा-तंतु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा न रह जाना । विरक्तिभाजन होना। चित्त से न टलना: सारे मानसिक व्यापार होते हैं। भतवादी वैज्ञानिकों के मत से ध्यान में बराबर बना रहना । न भूलना । उ०--सूर चित । वित्त, मन या प्रात्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- टरति नाही राधिका फी प्रीति ।-सूर (शब्द०)। विशेप का नाम है, जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है पर बड़े जीवों में क्रमशः बढ़ता जाता है। इस व्यापार ३. नुत्य में एक प्रकार की दृष्टि जिसका व्यवहार शृंगार में का प्राणरस (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य प्रसन्नता प्रकट करने के लिये होता है। . . संबंध है। प्राणरस के ये विकार अत्यंत निम्न श्रेणी के जीवों विशेष...१० 'चित्त'। में प्रायः शरीर भर में होते हैं। पर उच्च प्राणियों में क्रमशः इन विकारों के लिये विशेष स्थान नियत होते जाते हैं और उनसे चित्त-वि० १. विचार किया हमा। विचारित । २. अनुभूत यो इद्रियों तथा मस्तिष्क की सृष्टि होती है। अनुभव किया हुआ। ३. इच्छित । चाहा हुआ । ४. इंद्रिय- २. वह मानसिक शक्ति जिससे धारणा, भावना प्रादि की जाती गम्य । गोचर [को०] । हैं। अंतःकरण । जी। मन । दिल । चित्तक -संक्षा पुं० [सं० चित्रक] ० "चित्रक' । मुहा०—चित उचटमा जी न लगना। विरक्ति होना। चित्त चित्तकलित-वि०सं०] चित्त में या चित द्वारा जिसका कलन । करना=इच्छा करना। जी चाहना । जैसे, ऐसा चित्त किया गया हो। अनुमति । अपेक्षित । अवकलित [को०) । करता है कि यहां से चल दें। चित्त चढ़ना-० "चित्त चित्तखेद-संज्ञा पुं० [सं०] शोक । दुःख [को०। पर चढ़ना' । उ०- तब चित चढ़ेउ जो उजा शकर कहऊ। चित्तगर्भ वि० [सं०] मनोहर । सुदर । शंकर कहे। —मानस, १ । ६३ । चित्त चिहुँ टना=(१) चित्त में पीड़ा चित्तचारी-वि० [चित्तचारिन ] दुसरे के इच्छानुसार प्राचरण होना । (२) चित्त के लिये आकर्षक होना । चित्त चुराना = मन मोहना। मोहित करना। चित्त याकर्षित करना। करनेवाला (को० । उ.-नन सैन दै चिहिं चुरावति यह मंत्र टोना सिर डारि। चित्तचौर--संक्षा पुं० [सं० दे० 'चित्तचोर' (को०] ! . ... -सूर (शब्द०)। चित्त देना-ध्यान देना । मन लगाना। चित्तज-संवा पुं० [सं०] चित्त से उत्पन्न, कामदेव । गौर करना। 30--चित दै सुनो हमारी बात ।-सूर चित्तजन्मा-संक्षा पुं० [सं० चित्तजन्मन् कामदेव [को०)। (शब्द०)। चित्त घरना=(१) ध्यान देना। मन लगाना। चित्तज्ञ-वि० [सं०] दूसरे की इच्छा या चित्त को जाननेवाला [को० . उ०-कहाँ सो कथा सुनो चित धार। कहै सनं मो लहै चित्तधारा-संवा स्त्री० [सं०] विचारधारा (को०] । सुख सार । --सूर (शब्द०)। (२) मन में लाना। चित्तनाथ -संज्ञा पुं० [सं०] स्वामी को। 10- हमारे प्रभु अवगुन चित न घरी।-सूर (शब्द०)। चित्तनाश--संक्षा पुं० [सं०] विवेक या चेतना का नाश की। चित्त पर चढ़ना=(१) ध्यान पर चढ़ना । मन में बसना। चित्तनिवत्ति--संका सी० [सं०]प्रसाद। हर्प । प्रसन्नता । शांति (को०)। .. बार बार ध्यान में माना । जैसे,—तुम्हारे तो वही चित्त चित्तप्रसादन-संवा ० [सं०] योग में चिरत का संस्कार जो मंत्रा, पर चढ़ा हुआ है। (२) ध्यान में पाना । स्मरण होना । करुणा, हर्ष, उपेक्षा प्रादि के उपयुक्त व्यवहार द्वारा होता है। याद पढ़ना। चित्त बंटना-चित्त एकाग्र न रहना । ध्यान जैसे, किसी को सुखी देख उससे मित्रभाव रखना, दुखी के दो पोर हो जाना । एक विषयं की ओर ध्यान स्थिर न प्रति करुणा दिखाना, पुण्यवान् को देख प्रसन्न होना, पापी के रहना । ध्यान इधर उधर होना । चित्त बँटानाध्यान प्रति उपेक्षा रखना । इस प्रकार के साधन से चित्त में राजस. इंधर उधर करना । ध्यानं एक पोर न रहने देना। चित्त मौरतामस की निवस्ति होकर केवल सात्विक धर्म का प्रादुभाव . में घसना या जमना-दे० 'चित में बैठना' । चित्त में होता है।