पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४५३

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वित्तप्रमाथी १५३२ वित्ती विस्तप्रमाथी--वि० [सं० चितप्रमायिन्] उत्तेतना पैदा करनेवाला। चित्तविनम संशा पुं० [सं०] १. भ्रांति। भ्रम । भौत्रयकापन । २. - हृदय को मथनेवाला [को॰] । उन्माद। वित्तमंग-संदा पुं० [सै० चित्तमङ्ग] बदरिकाश्रम के एक पर्वत का चित्तविश्लेष संज्ञा पुं० [सं०] चित्त फटना । विराग । ... नाम। चित्तविश्लेषण-संशश पुं० [सं०] मैत्रीभंग । मनमुटाव (को०] । चित्ता -संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव । चित्तवृत्ति - मंशा स्त्री [सं०] १. चित्त की गति । चित्त की अवस्था । वित्तभूमि--संवा पुं० [सं०] योग में चित्त की अवस्थाएँ । विशेष—योग में चित्तवृत्ति पांच प्रकार की मानी गई है- - विशेष-व्यास के अनुसार ये अवस्थाएं पांच हैं-क्षिप्त,मढ़, विक्षिप्त प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । इन सबके भी ... . एकाग्र और निरुद्ध । क्षिप्त अवस्था वह है चिसमें चित्त रजो क्लिष्ट और प्रक्लिष्ट दो भेद हैं । मविद्या प्रादिकोशहेतुक वृत्ति .. गुण के द्वारा सदा अस्थिर रहे; मद वह है जिसमें चित्त तमो क्लिष्ट और उससे भिन्न पक्लिष्ट हैं। गुण के कारण निद्रायुवत या स्तब्ध हो, विक्षिप्त वह है जिसमें २. विचार । ३ मनःस्थिति । भाव । चित्त र स्थिर रहे, पर कभी कभी स्थिर भी हो जाय,एकाग्र वह चित्तवेदना - संग और पिं०] चित्त को वेदना सि011 है जिसमें चित्त किसी एक विषय की चोर लगा दी. और निट चित्तवैकल्य-संडा पुं० वित्त की विकलता कोना । .. वह है जिसमें सव वृत्तियों का निरोध हो जाय, संस्कार मात्र चित्तशुद्धि-संज्ञा स्त्री० [सं०] विकाररहित चित्त । निविकार रह जाय । इनमें से पहली तीन अवस्थाएं योग के अनुकूल चित्त [को०] । नहीं हैं। पिछली दो योग या समाधि के उपयुक्त हैं । समाधि वित्तसारी -संशा [हिं० चित्रसारी] २. 'चित्रसारी'। का भी चार भूमियाँ है-मधुमती, मधुप्रतीका, विशोका और चित्तहारी-वि० [सं० चित्तहारिन मन को लुभानेवाला [को०)। ऋतंभरा, जिनके लिये है 'समाधि'। चित्ताकर्षक-वि० [सं०] मनमोहक। चित्त को प्रापित करनेवाला। चित्तभेद-मंज्ञा पुं० [सं०] १. विचार संबंधी भेद । २. चंचलता। उ०-कई मंत्रों में पति पली के प्रेम का चित्ताकर्षक चित्र . अस्थिरता [को। ___ खींचा है ।--हिंदु सभ्यता, पृ० ११०।। तिभ्रम-संशा पुं० [सं०] एक प्रकार का सन्निपात जिसमें संताप, चित्तापहारक--वि० [सं०] मनोहर । सुदर। माह, विकलता, हँसना, गाना. नाचना. पतरा खाए जैसी चित्ताभोव-संशा पं० [सं०] १. पास पित । २. परी चेतनता को। अवस्था आदि उपद्व होते हैं। चित्तारना--क्रि० स० [हिं० चितारना } १० 'वितारना'। चित्तभ्रांति-संवा प्री० [सं चित्तभ्रान्ति] दे० 'चित्त भ्रम' (को०] । --चगइ चितारइभी चुगढ, चुगि चुगि चित्तारेह । फुरको चित्तंयोनि-संज्ञा पुं॰ [सं०] कामदेव (को०] । बच्चा मैल्हि कइ, दूरि यो पालेह ।---होला०, दू० २०२। वित्तर-संवा पुं० [सं० चित्र]:. 'चित्र' चिस्तासंग-संशा पुं० [सं० चित्तासङ्गा प्रेम । अनुराग [को०]। पित्तरसारो-संवा बी० [हिं० चिनसारी1 ६० चित्रसारी'। चित्ति-संज्ञा स्त्री० [मं०] १. वुद्धिवृत्ति । प्रशा। चितन । २. ख्याति । ३०-जह सोने के चित्तरसारी।वठि वरात जान फलवारी। ३. कर्म । ४ अथर्व पि की पत्नी का नाम । जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१२ । चित्ती --संज्ञा दी० [सं० चित्रिका, प्रा०चित्त, हि० चित (= सफेर वित्तराश-संशः पुं० [सं०] कामना । अनुराग [को०] । दाग अथवा मं० विवत्रिक] १. छोटा दाग या चिह्न । छोटा चित्तल-संगापु० [सं० या सं० चित्रल] एक प्रकार का मग । घम्बा ।बुदकी । उ०-पौले मीठे पमरूदों में घब लाल लाल वित्तियां पड़ीं।--ग्राम्या, पृ० ३६ । विसवान्-वि० [सं०] [वि० वी चितवती] उदार चित्त का ।। यौ०-चितीदार जिसपर दाग या घव्या हो। चित्तविकार-संज्ञा पुं० [सं०] विचार या भाव का परिवर्तन [को०] ' कि०प्र०-पटना । चित्तविक्षेप-संच पु०सं० चित्त की चंचलता या प्रस्थिरता जो योग मुहा०-चित्ती पटना-बढ़त बरी सेंकने के कारण रोटी में में बाधक है। म्यान स्थान पर जलने का काला दाग पड़ना । विशेप- इसके नौ भेद हैं-व्याधि, स्त्यान (अकर्मण्यता ), २. कुम्हार के बाक के किनारे पर का वह गट्ना जिसमें डंडा डाल- संशय, प्रमाद (टि ), आलस्य, अविरति ( वैराग्य का कर पाक घुमाया जाता है। ३. मादा लाल । मुनिया । ४. - यभाव), चांतिदर्शन (मिथ्या अनुभव), अलब्धभूमिकत्व अजगर की जाति का एक मोटा साँप जिसके शरीर पर चित्तियों ( समाधि की प्राप्ति), और प्रनवस्थित्व (चित्त का न होती है। चीतल । ५. एक पोर पुछ रगड़ा हुपा इमली का चिना जिससे छोटे लड़के ज पा रोलते हैं। वित्तविद्-संशा पुं० [सं०] १. वह जो चित्त की बात जाने । २. विशेष इमली के पीए नो लटके एक पोर इतना रगरते हैं कि ' बाद दर्शन के अनुसार चित के भेदों और रहस्यों को जानने- अपने ऊपर का काला छिनका नि कुल निकल जाता है पौर उसके अंदर से सफेद भाग निकल पाता है। दो तीन सटके मिलकर अपनी पनी निसीय में मिसाफर फेरते हैं और पन्नश-संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चित्तविनम' (को०। दांव पर दिए लगाते हैं । फेंकने पर जिस लड़के के विर का चीतल। टिकना)। वाला पुष्य । वित्तविप्लव-संश पुं० सं०] उन्माद। - बिलविनंश-संज्ञा पुं० [स