पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/५०७

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चोया १५८६ चोदासा" मोदरि ले पहिरावल नयन भृनुटी र ३. उत्साह सकोप । मनहु मत्त) बीर के चोत्र चौबदार- संपा पुरुषप्रसंग की अथवा पुरुप को स्त्रीप्रसंग की प्रवल कामना। चोव- ली. [ फा०] १. शामियाना खड़ा करने का बड़ा . कामेच्छा! खंभा। २.नगाड़ा या तागा बजाने की लकड़ी। ३. साने या - क्रि० प्र०-लगना । । चाँदी से मड़ा हुअा डंडा। चोदासा वि० पुं० [हिं० चोदास] [वि० को चोदासी] जिने चोदास यो०-चौबदार। ....लगी हो। जिसे संभोग की प्रबल इच्छा हो। ४. छड़ी। सोटा । डंडा । चोटू-संश पुं० [हिं० चोदना] दे० 'बौदक्कड़। चोवकारी--संज्ञा शो- [फा०] एक प्रकार का जरदोजी का काम । चोड:-वि[हि चोदू ( =चतिया)] फायर । डरपोक । 30-- चोवचीनी--संद्धा खी० [फा०] एक काष्ठौषध । " . मंगण मिलियां रोष दे, चोद डूब कहाय !-बांकी० ०, विशेष--यह चीन और जापान में होनेवाली एक लता की जड़ ... भा॰ २, पृ० ३८! है जिसके पत्ते अश्वगंधा के पत्रों के समान होते हैं। इसका - चोद्य-वि० [सं०] जो प्रेरणा करने योग्य हो ! रंग कुछ पोलापन लिए हुए सफेद होता है। यह रक्तशोधक चोद्य-संवा पुं० १. प्रश्न । सवाल । २. वादविवाद में पूर्वपक्ष । होती है और गरमी तथा गठिया प्रादि की दवानों में पढ़ती चोप -संशा पुं॰ [हिं० चाव ] १. वाह ! इच्छा । बाहिश । है। वद्यक में इसे तिषत, उगवीर्य, अग्निदीपक, मलमूत्र २. चाव । शौक ! रुचि। ३०-दै उर जेय जवाहिर की पुनि शोधक और शूल, वात, फिरंग, उन्माद तथा अपस्मार मादि -'.. चौप सो दरि ले पहिरावत । - सुंदरी सिंदूर (शब्द०)। रोगों को दूर करनेवाली कहा है। ३. उत्साह । उमंग । उ०--(क) प्रल्न नयन भृकुटी कुटिल चोबदस्त, चाबदस्ती-संज्ञा स्त्री॰ [फा०] लाठी (को०)। '. चितवत नपन्ह सकोप। मनह मत्त गजगन निरदि सिंघ चाबदार- संपा पुं० [फा०] वह नौकर जिसके पास चौव या प्रमा - किसोरहि चोप-मानस १।२६७१ (ख) चीर के चौंत्र रहता है। साबरदार। .... चकोरन की मनो चोप ते चंग चुवावत चारे।--(शब्द०)। विशेष-ऐसे नौकर प्रायः राजों, महाराजों और बहुत से रईसों क्रि० Fo---चढ़ना। की उचौड़ियों पर समाचार यादि ले जाने और ले आने तया ... ४. बढ़ावा । उत्तेजना। इसी प्रकार के दूसरे कामों के लिये रहते हैं। सवारी या बारात आदि में वे आगे आगे चलते हैं। क्रि० प्र०-देना। चोटा-संश पुं० [हिं० द] दे० 'चोर'-१। - - चोप-संश पुं० [हिं० चना(-टपकना)] कच्चे ग्राम की ढेपनो का बोबी-संशा बी० [हिं० चौब] दे० 'चौब 150--छिमा भाव सहज

वह रस जो उसमें से सींके तोड़ते समय वहता है।

की चोवी झोरी ज्ञान की डोरी।--कवीर० श०, भा०३, विशेष-इसका असर तेजाव का सा होता है। शरीर में जहाँ पृ०४२। ... लग जाता है, वहां छाला पड़ जाता है। .चोप-संथा बी० [फा० चोव] दे० 'चोर'। चोभ-संज्ञा स्त्री० [हिं० चुनना] १. वृभने की स्थिति या भाव । चोपदार-संचा पुं० [फा० चोबदार] दे० 'चोवदार'। चुभन । २. चुभनेवाली वीउ । चोभना-कि० स० [हिं० चोन] दे॰ 'चुभाना'। - चोपन-वि० [सं०] हिलने डुलनेवाला [को०] । - चोभा -संश पुं० [हिं चोमना] १. वह पोटली जिसमें कई दवाएँ घोपन --मंश पुं० मंदगति । बँधी होती हैं और जिसमें शरीर के फिसी पीड़ित अंग चोपड़'@-संज्ञा पुं० [हिं० चुपड़ना 1 घी तेल इत्यादि स्नेह विशेषतः प्राख को सकते हैं। लोया। - पदार्थजो चुपड़ा जा सके । ८०-कापड़ चोपडं पान रस, महा.--चोमा देना=प्रौपध को पोटली में बांधकर उससे ...: देसह खाँच दाम।-बाँकी नं०, भा॰ २, पृ०६०। शरीर के किसी पीरित अग को सेंकना। चोपड़--संज्ञा पुं० [हिं० चौपड़] दे० 'चौपड़' । उ०-सोश्री गोवर्धन २. एक प्रकार का औजार जिसमें लकड़ी के दस्ते या लट्ट में - नाथजी श्राप वासों बात करें, चौपड़ खेलें।-दो सौ बावन०, अागे की ओर चार पाँच मोटी सूइयाँ रहती हैं। मा०पृ००२ विशेप-इस यौजार से प्रांवले या पेठे आदि का मुरब्बा बनाने चोपना--क्रि० स० हि. चोप] किसी वस्तु पर मोहित हो के पहले से इसलिये कोंचते हैं कि उसके अंदर तक रस या जाना । मुग्ध हो जाना। शीरा चला जाय। | चोपरना@-कि० स० [हिं० चुपड़ना] दे० 'चुपड़ना । २० चोभकारी--संद्धा सौ [हिं० चोनमा+पा.कारी बहुमूल्य पत्थरों |... फुलेल कहा चोपरना। समुझि देखि निर्थ करि मरना । पर रहनों या सोने आदि का ऐसा बड़ाब जो कुछ उभरा -सुंदर० ०, भा० १, पृ० ३३४ । हुना हो। .चोपी -विवाह चोप] १. इच्छा रखनेवाला । चाह रखने- चोभाना:-क्रि० स० [हिं० चुनाना] दे० 'चभाना . 1 . वाला। २.जिसके मन में उत्साह हो । उत्साही। चोम-संहासी० [पंजीम] १.जोश । उत्साह । २.गर्व 1 घमंड । ...चोपी--संवा सीहि .. चोप-६(प्रत्य॰)] फच्चे ग्राम की अभिमान (राज.)। . डेपी तोड़ देने पर निकलनेवाला रस । चोप। चोया-हा पुं० [हिं० चोप्रा] ३० 'चोमा'। - -