पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/५४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

छर १६२१ छरा उपवाना। छर --वि० [सं० क्षर नश्वर । नाशवान् । उ०-छर ही नाद छरना'--क्रि० ० [सं० क्षरण, प्रा० छरिण] १. चूना । बहना । वेद अरु पंडित छर ज्ञानी अज्ञानी।-चरण बानी, पृ० १२७ ॥ टपकाना । झरना । उ० --ॐची घटा घटा इव राजहि छरति छरई-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक तरह का ठप्पा । नटा छिति छोर।- रघु राज (शब्द०)। . . छरकना'-कि०म० [अनु० छर छर] १ छर छर करके छिटकना संयो.क्रि.---जाना। या विखरना । २. किसी पदार्थ का कमी तल को स्पर्श करते २. चकचकाना । चुचबाना । उ०-बिथरी अलफ, शिथिल कटि , हुए और कमी उछनने हुए वेग से किसी पोर जाना । होरी नखछत छरितु मरालगामिनी ।--सूर (नद०)। ३. छरकनारे-क्रि० प्र० दे० 'छलकना। छंटना । दूर होना । न रह जाना । उ0---जब हरि मुरली छरकायल--वि० [हिं० छरकता] बिखरा हुपा । उ०-पाय लगों अधर धरत । थिर चर. पर थिर, पवन थकित रहैं जमुना छोरो न पत्र हायल नंद कुमार । छुट्त ही घायल करें जल नवहत खग । मोह, मृगजू थ भुलाही, निरति वदन छवि छरकायल ये बार --म सप्तक, पृ. २६६ । । छरत !--सूर०, १०१६ ० । चावल या फटफगर माफ छरकीला -वि० [हिं०/छरक+ईला (प्रत्य॰)] छिटकनेवाला । किया जाना । ५. छंटकर अलग होना । दूर होना । उ०--- दूर रहनेवाला । उ०-वे स्वभाव से ही छरकोले होते हैं जेहि जेहि मग सिय राम लपन गए तह तह नर नारि विनु और अपनी बातें छिपाने की व्याधि उनमें अधिक है। छट छरिगे |---तुलसी (शब्द०)। शुक्ल अभि० ०, (विविध) पृ०३६ । छरना-कि० स० [सं० क्षरण] वान्ना अलग करने के लिये चावल छरछंद -संक्षा पुं० [हिं० छलछद] दे० छलछंद'। उ०--इक को फटककर साफ करना । दे० 'छड़ना'। अंबर के टूक को निसि मैं प्रोढ़त नंद। दिन में प्रोढ़त ताहि छरना-मि० अ० [ हिछलना] भूत प्रेत भादि द्वारा मोहित रबि तू क्यों कर छरछद । ब्रज पं०, पृ० १०६ । होना। छरछंदीं।--वि० [हिं० छरछंद+ई (प्रत्य॰)] २० 'छरछंदी'। संयो० कि.--जाना। छरछर--संघा पं० [अनु० छर1 १. कारणों या छरों के वेग से छरना -क्रि० स० [हिं० छलग] १.छलना। धोखा देना। निकलने मोर दूसरी वस्तुओं पर गिरने का शब्द । उ०- ठगना । उ०-जोगी कौन बड़ी संकरते, तापों काम । तिहि फिर मंडल बीच परी गोली झर झर झर । तह पुट्टिय -सूर० ११३५१२. मोहित करना । लुभाना। उ०-- कर गौर श्रोन छुट्टिय छत छर छर -सदन (शब्द०)। तू' काँवरू परायस टोना । भूला योग छरा तोहि सोना ।-- जायसी (शब्द०)। २. पतली लचीली छड़ी के लगने का शब्द । सट सट । उ०- छरपुरी-संशा सी० [सं० शैल+हि फूल] १. छरौला । २. एक पुड़िया काहे को हरि इतनी बास्यो । सुनि री मैया मेरे भैया कितनी जिसमें छरपुरी आदि सुगंधित द्रव्य होते हैं जो विवाहों में गोरस नास्यो। जव रजु सौं कर गाढ़े बांधे घर छर मारी चढ़ाए जाते हैं। सौटी। सूने घर बाबा नंद नाहीं, ऐसे करि हरि डाँटी। छरभार -संज्ञा पुं० [सं० सार+भार] १ प्रबंध या. कार्य का सूर०, १०३७५ बोझ । कार्यभार । 30--(क) देस कोस परिजन परिवारू। छरछराना"-क्रि० अ० [म क्षार, हि० छार से प्रान्न डिस नामिक गुरु पद रहिं लाग छरभारु । -तुलसी (पन्द०)। (ख) धातु ] १. नमक या क्षार आदि लगने से शरीर के घाय लखि अपने सिर मन्त्र र भारू । कहि न सहि कछ करहि था छिले हुए स्थान में पीड़ा होना । जैसे, हाथ छरछरा रहा विचारू |--तुलसी (शब्द॰) । २. झंझट ! बखेड़ा। है। २. क्षार, नमक आदि का शरीर के घाव या कटे हुए छररा@t-- ५० [हिं० छर्रा ] दे॰ छर्रा' । उ०... डारति भरि स्थान पर लगकर पीड़ा उत्पन्न करना । जैसे-नमक घाव पर छरछराता है। भरि मूठि छूटि छररा ज्यों लागत ! सबही अंग अनग पीर छरछराना-कि० अ० [अनु० छर छर ] कणों का वेग से फिसी । प्रानन मैं जागत। - अज० ०. पृ० १७ ॥ वस्तु पर गिरना या बिखरना । छरहरा--वि० [ हिल+ हारा (प्रत्य॰)] [वि॰ स्त्री० छरहरी, छरछराहट-संचा स्त्री० [हिं०/ छरछरा + हट (प्रत्य॰)] १. छरों संग्रा छरहरापन] १. क्षीणांग। सूचुक। छलका । जो मोटा या करणों के वेगपूर्वक एक साथ निकलने और गिरने या भद्दा न हो । जैसे, छरहरा बदन । उ०-राधिका मग का भाव। २. धाव में नमका प्रादि लगने से उत्पन्न पीड़ा । मिलि गोप नाती। "जुबति आनंद भरी, भई जुरि के खरी. उ०-छरछराहट जब कलेजे में हुई। मुस्कराहट होंठ पर नई छरही सुठि बैस थोरी। सूर प्रभु सुनि स्रवन, तहाँ कीम्ही गवन, तरुनि मन रवन सब बज किसोरी। - सूर० छरद -संशा पुं० [सं० छ] दे० 'छ'। -जो छिया छरद १०।१७५१ । २. चुस्त । चालाक । तेज । फुरतीला । .... - करि सकल संतनि तजी तासु ते मकमति प्रीति ठानी।- छरहरा.वि० [हिं० छर (-छड़)+हारा (प्रत्य०) (-छड़) या - सूर०, ११११० । सं० क्षीर-भार] बहुरूपिया। छरन -संज्ञा पुं० [सं० क्षरण] विनाश । नाश । 'क्षरण। 30--- छरहरापन---संघा पुं० [हिं० छरहरा+पन ] १...क्षीणगिता । . तवही छरन जान अपछरा। भूपन लाग न बाँध छरा।- सुबुक्पना । २. चुस्ती । फुरती। ........" ... चित्रा०, पृ०७४ । छरा-संडा पुं० [सं० शर, हिं० छड़] १.छड़ा । उ०-कंचन पठ

- कैसे रहे।-चोखे० पृ० ५६ ।