पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/५४४

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छल १६२२ छलबल ४. कपट । दंभ । ५. युद्ध के नियम के विरुद्ध शत्र पर शस्त्र. प्रहार । ६. न्याय शास्त्र के सोलह पदार्थों में से चौदहवा पदार्थ जिसके द्वारा प्रतिवादी वक्ता की बात का वाक्य के अर्थ विकल्प द्वारा विधान या खंडन करता है। विशेष-न्याय में यह तीन प्रकार का माना गया है-वाक्छल, सामान्य छल और उपवार छल । जिसमें साधारणतः कहे हुए किसी वाक्य का वक्ता के अभिप्राय से भिन्न प्रर्थ कल्पित किया जाता है, वह वाक्छल कहलाता है। जैसे किसी ने कहा कि के से किसी ने कहा कि 'यह बालक नव कंबल लिए है'। इसपर प्रतिवादी या छलवादी नव शब्द का वक्ता के अभिमत प्रर्थ से भिन्न अर्थ कल्पित करके खंडन करता है और कहता है कि 'वालक नव कंबल कहाँ लिए है, उसके पास तो एक ही है' 1 जिसमें संभावित अर्थ का अति सामान्य के योग से असंभूत अर्थ कल्पित किया जाय वह सामान्य छल है । जैसे, किसी ने कहा कि 'ब्राह्मण विद्याचरण संपन्न होता है'। इसपर छलवादी कहता है-'हाँ विद्याचरण संपन्न होना तो ब्राह्मण का गुण ही है। पर यदि यह गुण ब्राह्मण का है तो व्रात्य भी विद्याचरण संपन्न होगा; क्योंकि वह भी ब्राह्मण ही है।' धर्म विकल्प (मुहाविरा, अलकार, लक्षणा व्यंजना आदि) द्वारा सूचित अभिप्रेत पर्थ का जहाँ पाब्दों के मूल आदि को लेकर निषेध किया जाय, वहाँ उपचार छल होता है। जैसे, किसी ने कहा 'सारा घर गया है । इसपर प्रतिवादी कहता है कि 'घर कैसे बायगा? वह तो जड़ है'। छल:- संशा पुं० [अनु०] जल के छीटों के गिरने का शब्द । पानी की धार जो पथिकों को ऊपर से पानी पिलाने में बंध जाती है। मुहा०-छल पिलाना कटोरे बजा बजाकर राह चलते पथिकों को पानी पिलाना। छलक' संघा की० [हिं० छलना] छलकने का भाव या लिया। उ०-गिर करारे टूट के नदी छलक मारे।-भारतद . भा०२, पृ०४८६ । छलक-वि०, संज्ञा पुं० [सं०] छल करनेवाला। छलकन--संक्षा श्री० [हिं० छलकना] १. छलकने का भाव । पानी प्रादि की उछाल । पानी या और किसी पतले पदार्थ के हिलने और डोलने के कारण उछलकर वरतन मे बाहर पाने का भाय । २. उद्गार । स्फुरण । उ०-छवि छलकन भरी पीक पल रून त्योंही श्रम जलकन अधिकाने च ।---पद्माकर (शब्द०)। छलकना-क्रि० स० [अनु०] १. पानी या और किसी पतली चीज का हिलने डुलने प्रादि के कारण वरतन से उछलकर बाहर गिरना । प्राघात के कारण पानी आदि का वरतन से ऊपर उठकर बाहर आना। विशेष—इस शब्द का प्रयोग पात्र और पात्र में भरे हुए जल प्रादि दोनों के लिये होता है। जैसे, अधजल गगरी छलकत जाय। २. उमड़ना । बाहर प्रकट होना । उद्गारित होना । उ०-(क) मनहुँ उमगि अंग अंग छवि छलके-तुलसी (शब्द०)। (ख) गोकुल में गोपिन गोबिंद संग खेली फाग राति भरि, प्रात समय ऐसी छवि छलक-पद्माकर (शाब्द०)। छलकाना-- क्रि० स० [हिं० छलकना] किसी पाय में भरे हुए जल आदि को हिला हुलाकर बाहर उछालना। छलछद-संश पुं० [हिं० छल+छंद] [वि० छलछदी ] कपट का जाल । कपट का व्यवहार । चालबाजी। धूर्तता। छलछदी-वि० [हिं० छलछध ] कपटी। धूर्त । चालबाज । धोखेबाज । छलछद्म--संशा पु० [सं० छल+छ दम] छल कपट । छल का बाना। छलछल--संज्ञा पुं० [अनु॰] छलछल का शब्द । जल के छिलकने की ध्वनि । छलकने का भाव । उ०—कल कल छलछल सरिता बहती छिन छिन ।--मधुज्वाल, पृ०४१ । छलछलाना-मि० अ० [अनु॰] १. आँखों में प्रासू पा जाना । प्राखें भर पाना। २. छल छल शब्द करना । पानी प्रादि योड़ा थोड़ा करके गिराना जिसमें छल छल शब्द उत्पन्न हो। छलछाया -- संपा० [सं० छल+छाया ] मायाजाल । छलावा । उ०-कोऊ छली छलौही मूरति छल छाया सो गयो दिखाइ। - वज० प्र०, पृ० १६२ । छलछिद्र-संज्ञा पुं० सं०] कपट व्यवहार । धूर्तता। धोखेबाजी। उ.-मोहि सपनेहु छनछिद्र न भावा ।-तुलसी (शब्द०)। छलछिद्री-संशा पुं० [हिं० छलछिद्र] धोखेबाज । लो । कपटी । छलन-संज्ञा पुं० [सं०] [वि० छलित] छल करने का कार्य । 10- . बिहरत पास पलास वास नहि मोहत कामै । निरस कठोर छलीक छलन की लाली जामै।-दीन ग्रं॰, पृ० २०५। । छलना'--क्रि० स० [सं० छन] किसी को धोखा देना । भुलावे में । डालना । दगा देना । प्रतारित करना । छलना-मंधा स्त्री० [सं० धोखा। छल । प्रतारणा। उ0-किंतु वह छलना थी, मिथ्या अधिकार की।-लहर, पृ ७८ । छलनी-संशा श्री [सं० चालनी, हिं० चालना या सं०क्षालिनी] महीन कपड़े या छेददार चमड़े से मढ़ा हा एक मंडरेदार बरतन जिसमें चोकर, भूसी प्रादि अलग करने के लिये प्राटा छानते हैं। प्राटा चालने का बरतन | चलनी । महा.--(किसी वस्तु को) छलनी कर डालना या फर देना== (१) किसी वस्तु में बहुत से छेद कर डालना । (२) किसी वस्तु को बहुत से स्थानों पर फाड़कर बेकाम फर डालना। (किसी वस्तु का) छलनी हो जाना=(१) किसी वस्तु में बहुत से छेद हो जाना । (२) किसी वस्तु का स्थान स्थान पर फटकर वेकाम हो जाना ! छलनी में डाल छाज में उड़ाना- बात का बतंगड़ करना। थोड़ी सी बुराई या दोप को बहुत । बढ़ाकर कहना। थोड़ी सी बात को लेकर चारों ओर बढ़ा चढ़ाकर कहते फिरना । (स्त्रियाँ) फलेजा छलनी होना= (१) दुख या झंझट सहते सहने हृदय जर्जर हो जाना । निरंतर कष्ट से जी ऊब जाना । (२) जी दुखानेवाली बात सुनते सुनते घबरा जाना । छलवल-संज्ञा पुं० [सं० छल+वल] १० 'छलर्छ' । ३०- महामत्त