पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/५४६

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छल्लेदार १६२४. छांदोग्य छल्लेदार-वि० [हिं० छल्ला+फा० दार] १. जिसमें छल्ले लगे छहरना -क्रि० न० सं० क्षरण, प्रा० खरण, छरण अथवा देश०] . हों। २. घु घराला या चदार (गल)। ३. जिसमें मंडलाकार छितराना। बिखरना । छिटकना । फैलना । उ०—(क) छवि विह्न या घेरे बने हों। केसरि की छहर तन तें कढि ाहर से तन चोलिन पै।- छच:-संघा पुं० [सं० छवि रूप । छवि । उ-घर कामची उर सुदरीसर्वस्व (शब्द०)। (ख) जनु इंदु उयो प्रवनीतल ते धाक, अपछर छव धरे, हावां भावकर मृदु हरे बोली सुग बहु पोर छटा छबि की छहरी।-सुदरी सर्वस्व (शब्द॰) । हरे।-रघु० रू०, पृ० १२८ । छहरा-दि० [हिं० छ+ हरा (प्रत्य॰)] १. छह परत का। छवना-संशा पुं० [सं० शाव, शावक] [स्त्री० छवनी] १. बच्चा। छह पल्लेवाला । २. उपज का छठा (भाग)। छौना। उ०—भई हैं प्रकट अति दिव्य देह धरि मानो छहरना' -क्रि० प्र० क्षरण, हि छहरना अथवा हिं. त्रिभुवन छवि छवनी ।-तुलसी (शब्द०)। २. सूपर छहरना का प्रे० रूप] छितराना । विखरना। चारों ओर का बच्चा। फैलना । उ०-(क) कंचुकि चूर चूर भड तानी । टूटे हार छवना@-क्रि० स० [सं० श्रवण, प्रा० सवरण, माग० सवन ] मीति छहरानी-जायसी (शब्द०)। (ख) नीरज तें सुनना। उ०-गुरु मुखि भवना, गुरुमुखि छवना, गुरुमुखि कढ़ि नीर नदी छवि छीजत छीरधि छहरानी । (ग) जेहि रवना रे।-दादू०, पृ० ५०० । पहिरे छगुनी धरी, छिगुनी छवि छहराहि (शब्द०)। छवा'-संवा पुं० [सं० शावक, प्र० सावय] किसी पशु का बच्चा। छहराना-क्रि० स० विखराना । छितराना। फैलाना। उ०- बछड़ा । उ०—(क) तैरन केहरि केहरी के बिदले परि सीखल संग सखी सुमुखी छवि कोटि छपाकर को छहरावनि । तुजर छल छवा से ।--तुलसी (शब्द०) । (ख) हय हंकि -देव (शब्द०)। घमंकि उठाइ रनं । जिमि सिंह छवा कढि सेन वनं ।-सुदन छहराना- क्रि० स० [सं० क्षार] क्षार करना । भस्म करना । (शब्द०)। उ.-न्यौछावर के तन छहरावहु । छार होहु संग बहुरि न छवा–संगा पुं० [देश॰] एंडो । उ०-(क) छवान की छुई न जाति प्रावह।-जायसी (शब्द०)। शुभ साधु माधुरी 1-केशव (शब्द०)। (ख) ऐसे दुराज दुह छहरीला--वि० [हिं० छरहरा] [वि॰ स्त्री छहरीली] १. छरहरा । वय के सब ही को लगे अब चौचंद सूझन । लुटन लागी प्रभा हलका । २.फुरतीला । चुस्त । ३. छहरनेवाला । बिखरने या कढ़ि के बढ़ि केस छवान सौं लागे अरूझन ।-रस कुमुमाकर फैलनेवाला। (शब्द०)। छहलनाt@-कि० अ० [हिं०] दे० 'छहरना' । उ०-रहो छवि छवाई-संशा श्री० [हिं० छाना, छावना] १. छाने का काम । २. छाए एह छके मुनि देखि के रूप छहलत मनि कौन हेरा।- छाने की मजदूरी। ___ सं० दरिया, पृ०७९ । छवाना-क्रि० स० [हिं० छानी का प्रे० रूप] छाने का काम छहियाँ-~मंशा स्त्री० [हिं० छांहीं] छह । छाया। उ०-दशरथ फागना । उ-पूछ बानि लोग कौने छाई हो? छवाई लीज, कौशल्या के आगे लसत सुमन को छहियाँ । मानो चारि हंस दी जोइ भावं. तन मन प्राण वरिय। -भक्तमाल (प्रि०), सरवर ते बैठे प्राइ सदहियाँ ।- सूर (शब्द०)। पृ०४६२. छही-मंशा स्त्री॰ [देश॰] वह चिड़िया (प्रायः कबूतर) जो अपने छवाली-संक्षा बी० [हिं० छ+वाला] छोटी जठवाली जो पत्थर अड्डे से उड़कर दूसरे के अड्डे पर जा रहे और फिर कुछ दिनों में हाँ की कुछ चिहियों को बहकाकर अपने प्रड्डे श्रादि उठाने के काम में प्राती है। पर ले पाए। कुट्टा । मुल्ला । छवि'--संशा श्री०सं० [वि. छबीला[१. शोभा। सौंदर्य । २. र छांदस'- वि० [सं० छान्दस] [वि० सी० छांदसी] १. वेदपाठी। - शि. 10 टास्टर] कांति । प्रभा । चमक । ३. त्वचा। चमड़ी। खाल (को)। वेदज्ञ । २. नेद संबंधी । वैदिक । ३. छंद या वृत्त संबंधी। ४. त्वचा का रंग (को०)। ५.सामान्यतः कोई भी रंग (को०)। ४.रटू । रटनेवाला । ५. मूर्ख । ६. प्रकाश की किरण (को०)। . छांदस-संछा पुं०१. वेद । २. वेद में निष्णात ब्राह्मण [को०] । छव--संघा नी० [अ०शवीह] चित्र । फोटो । प्रतियति । छांदसीय-वि० [सं० छान्दसीय छदशास्त्र का ज्ञाता । पिंगल का छवयः-संघ पुं० [हिं० छाना] वह जो छप्परमादि छाए। छाननेवाला। जानकार (को० । छहा-वि०. संधा पुं० [मं० षट्ष प् प्रा० छ, अपह] दे० 'छ'। छांदिक-वि० [सं० छान्दिक छद संबंधी। छंद के अनुरूप । उ०-- उ.- तब श्री गुसाई जी रामदास को प्राज्ञा करी जोत्त यह हमारे अनुभव की बात है कि निरर्थक शब्दों के प्रवाह 'दंडवती सिला' आगे वैठिं छह महीना ताई अण्टाक्षर मंत्र को से कवि ऐसी छांदिक गति पैदा कर देता है। -पा० स० जप करचो करि ।---दो सौ बावन०, भा०२, पृ०५६ । सि०, पृ०६।। . छहत्तर- वि० संज्ञा पुं० [सं० पट्सप्तति, प्रा० छस्सयरि, छहत्तर]- छांदोग्य--संज्ञा पुं० [सं० छान्दोग्य] १. सामवेद का एक ब्राह्मण दे० 'छिहत्तर' । उ०-ताके दम की छहत्तर हजार की हुंडो जिसके प्रथम दो भागों में विवाह आदि का वर्णन है और भई।दो सौ वाचन, भा० १, पृ० १६३ । अंतिम आठ प्रपाठकों में, उपनिषद् है । २. छांदोग्य ब्राह्मण ... छहर, छहरन-संघा स्त्री० [सं० क्षरण अथवा देश०] बिखरने का भाव का उपनिषद