पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/६०

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खरशिला बरशिला-संशा पुं० [सं०] मंदिर प्रादि की कुरसी. का वह परी - भाग जिनपर सारी इमारत वही रहती है। खरस-संमा ए० [फा० ख्रिसं] रीछ । भालू । (कलदरों की .. बोली)... खरसा'-संभ श्री० [सं० पट्टस] एक प्रकार का भोज्य पदार्य । . २०-भई मिथोरी सिरका परा । साँठ राय के खरसा घरा-जायसी (शब्द०)। खरसा-संघाची दिश०] एक प्रकार की मछली जो पासाम पौर ब्रह्म देश की नदियों में पाई जाती है। खरसा-संशा दिश०] १. ग्रीष्म ऋतु । गरमी का दिन । २. ... अकाल । कहत । सरसा - संचाफा खारिया खाज खुजली खारिम।। ख सार-संवा मी हि.सर+सान] एक प्रकार की सान जो . अधिक तीक्ष्ण होती है। इस पर तलवार उतारी जाती है। 30-(क)शिष ग गुरु ममुकला चई मन खरसान । शब्द सबै सन्मुख है निपजे मिष्य सुजान 1-कबीर (शब्द०)। () आला रे नन की बिसाल साल सौतिन के बलभद्र साने हैं मुहाग परनान के।-बलभद्र (मन्द०)। खरसार-संह पुं० [सं०] लोहा । इस्पात [को०] । खरसुमा-वि० [फा० खर+सुम] जिस (पोई) के सुम गधे के सुमों की भाति विलकुल खाई हो। सरसैला-वि० [हिं० एरसा= साल+ऐल (प्रत्य॰)] जिसे खुजली विशेष--इस शब्द का प्रयोग प्रायः पशुओं के लिये होता है। खरस्कंध-संबा पुं० [सं० खरस्कन्य] १. पियाल या चिरोंजी का पेट । २. वजूर वृक्ष यो०] । सरस्पर्श-वि० [सं०] तीक्ष्य । गरम (वायु) [को०)। खरस्वरा-संवा मी [सं०] एक प्रकार की जंगली चमेली । बन- मल्लिका [को०] । खरहर-समा पुं० [देग०] बलत की जाति का एक पेड़। '. 'विशेष-यह हिमालय की तराई में होता है। इसकी पत्तियों बैर की पत्तियों से बड़ी होती हैं । फल बलून ही के से होते है। इसकी कच्ची लकड़ी, जो सफेद होती है पौर पकने पर गहरी भूरी हो जाती है, वेती के प्रौजार बनाने के काम में माती है । छाल से चमड़ा सिझाया जाता है। सरहरना-कि०० [हिं० खर = तिनका हरना] झाड़ देना। न खरहरना-कि० ए० थाहक शरार पर रह ... से घोड़े का शरीर साफ करना। खरहरनाल-क्रि०प्र० [सं० स्वलन, प्रा० खल+हिं० हिलना, . हलना या प्रा० खल खर) विचलित होना । कषित होना । सबढ़ाना । उ-ते ऊंचे चड़िक खरहरे । धमकि धमकि .:. नरकन मैं परे ।-मंद००, पृ० २२६ । बरहरा-शा पुं० [हिं० खरहरना] [ी अल्पायरहरी) १. ...रहट मा भरहर की दंटला से बनाः इमा. झाद जिसे खरा भी कहते हैं। एक चौकीर छोटी पटरी जिसमें धातु की ___बनी हुई, छोटे दांतों को कंधिया होती है। . विशेष-यह घोड़े का बदन खजलाने और उसमें से गर्द और धूल निकालने के काम में पाती है। चमड़े के टुकड़े में एक विशेष प्रकार से लोहे के तार जड़कर भी घरहरा बनाया जाता है। खरहरील'-संथा की [देश॰] एक मेवा (कदाचित् खजूरया छहारा।) 30-(क) तहरी पक बोने पो गरी। परी चिरौंजी और खरहरी।-जायसी (शब्द०)। (ब) नरियर फरे फरी नरहरी । फरें जानु इंद्रासन पुरी 1-जायसी (शब्द०)। खरहरी-वि० [हिं० खड़बड़ (बाट) जिसपर बिछावन न बिछाया गया हो। निवरहर (बोल०)। खरहा-संज्ञा पुं० [हिं० सर+हा (प्रत्य॰)] [स्रो० सरही] चूहे की जाति का, पर उससे कुछ बड़े श्राकार का एक जंतु । खरगोन । उ०-बीनी नाचे मुस मिरदंगी नरहा ताल बनाये। -मतः दरिया, पृ० १२६ । विशेष-इसके कान लंबे, मुंह और सिर गोल, चमड़ा नरम पौर रोएंदार, पूछ छोटी और पिछली टाँग अपेक्षाकृत बड़ी होती हैं। यह संसार के प्रायः सभी उतरी मम्मों में भिन्न भिन्न आकार और वर्ण का पाया जाता है । यह जगलों पौर देहातों- में जमीन के अंदर बिल खोदकर झुंड में रहता है और रात के समय पास पास के सेतों, विशेषतः अब के पैतों को बहुत हानि पहुंचाता है। यह बहुत अधिक डरपोक और प्रत्यंत कोमल होता है और जरा से पायात से मर जाता है। यह छलांगे मारते हुए बहुत तेज दौड़ता है। इसके दात व तेज होठे हैं। वरही छह मास के होने पर गर्भवती हो जाती है और एक मास पीछे सात पाठ बच्चे देती है। दस पंद्रह दिन पीछे वह फिर गर्मवती हो जाती है और इसी प्रकार बराबर बच्चे दिया करती है। किसी किसी देश के बरहे जाड़े के दिनों में सफेद हो जाते हैं। इनका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है। शास्त्रों के अनुसार यह भक्ष्य है और बंधक में इसका मांस ठंदा, लघु, घोथ, अतीसार पित्त पोर रक्त का नाशक और मलबद्ध कारक माना गया है। इसे चौगुड़ा, लमहा और खरगोश भी कहते हैं। इसका संस्कृत नाम 'शश है। खरही-संशा को [हिं० खर] (घास या पन्न आदि का ) हेर । समूहा राशि। खरडिक- [० खराण्डक] शिय के एक अनुचर का नाम । खराशु-संवा पुं० [सं०] सूर्य । खरकर । तिग्मरश्मि । खरा-वि० [सं० वरतीकरण] [वि०बी० खरी] १. तेज । तीया। चोखा । २. अच्छा । बढ़िया स्वच्छ । विशुद्ध। बिना मिलावट - का। 'पोटा' का उलटा । जं से, खग मोना । खरा रुपया। उ-राज नवीन निकाई भरी रतिहू ते खरी वे दुह परजंग __ में।-सुदरीसर्वस्व (शब्द०)। मुहा०-खरा खोटा-भला बुरा : खरा खोटा परखना = पच्छे । बुरे की पहचान करना । जी. खरा खोटा होना =चित पलायन