पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/७०

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खस्ता खाँच खस्ता-वि० [फा०सस्तह] १. बहुत थोड़ी दाब से दृट जानेवाला । खांडविक-संया पुं० [सं० खाण्डधिक] मिठाई बनानेवाला हलवाई। खांडिक-संवा पुं० [सं० खाण्डिक) [हलवाई। खांडविक । .भुरभुरा यौ०-खस्ता कचौड़ी = एक प्रकार की छोटी कचौड़ी जो मोपन खांडो-संहा पुं० सं० पाडव] दे० 'पाडव' । ' टोलकर बनाई जाती है और बहुत भुरभुरी होती है। खा-संहा पुं० [हिं०] ० 'खान'। -: २.जन्नी। बायल (को०) ३. दुर्दशाग्रस्त ! ददहाल (को०)। . खांवहादुर--संज्ञा पुं० [फा० खा+तु० वहादुर] अंगरेजी राज्यकाल . थका हुया क्लिांत (को०)। . की एक उपाधि जो राज्यभक्त, वफादार मुसलमानों को दी जाती थी। . . यौं०-खस्तादिल = जिसका मन दुःखी हो। दुःखित हृदय । खाई-संथा सो [हिं०] दे० 'खाई। खस्ताहाल = दुर्दशाग्रस्त । अकिंचन। दरिद्र। खाँखा-संज्ञा स्त्री० [सं० खम् छेद । 'सुराब। खस्फटिक--संज्ञा पुं० [सं०] १:सूर्यकांत मणि । २.चंद्रकांत खांख-वि० [हिं० खाँख १. जिसमें बहुत छेद हों । सूराखदार । मणि । चंद्रमणि । [को०] । जैसे-खांखर बरतन । २. जिसकी बुनावट दूर दूर पर हो । खस्वस्तिक-संश पुं० [सं०] वह कल्पित विदु जो सिर के ऊपर जैसे-खांखर कपड़ा, खांखर खटिया ३.खोखला । पोला । - याकाम में माना गया है। शीपंविदु । पादविदु का उलटा । खाँग'-संज्ञा पुं० [सं० खङ्ग, प्रा० खग्ग] १. काँटा ! कंटक । खस्मो-संशा (म०] बकरा । उ०-देवी जी को खस्सा भड़ा . क्रि० प्र०-गडना ।--लगना। पीरन को नो नेजा।-कवीर शपृ०४१६ २.कोटा जो तीतर, मुर्गप्रादि पक्षियों के पैरों में निकलता है। ... महा०-खस्ती चढ़ाना=बकरे को वलिदान करना । ३.गैंडे के मुंह पर का सींग। ४ जंगली सूघर का वह दांत खस्सी-वि०१. बधिया । २. हिजड़ा। नपुंसक! .. जो मुंह के बाहर कांटे की तरह निकला होता है। सहखह-संगापु० [अनु०] खिलखिलाकर हंसने की प्रावाज । कह- क्रि० प्र०-चलाना । मारना। ... . कहा.। १०-कहकह सु वीर कहत खहवह सुसंभु हसत ।- सांग-संज्ञा पुं० [सं० खज] स रबाले पशुपों का एक रोग जिसमें परासी०, पृ० ५०1 उनके खरों में घाव हो जाता है। दरपका। खहदल-संचा पुं० [सं० खः] प्राकाश । उ०-धरण खहदल खाँग-संवा स्त्री० [हि खंगना] १. त्रुटि । कमी। 1०-राम कहा ___ यहढ़े।-रा० रु०पृ० २८० 1 कछुपाहि न खांगा। को राखं जो प्रापन मांगा।-चित्रा०, 'खहर-संज्ञा पुं० [सं०] गरिणत में वह राशि जिसका हर शून्य हो। पृ० २२७ । विशेष- इस राशि में कोई राशि जोड़ने या घटाने से भी यह , खाँगड़-वि० [हिं० खाँग+ड़ (प्रत्य॰)] १. जिसके खांग हो । खाँग- राशि ज्यों की त्रों बनी रहती है, घटती या वढ़ती नहीं। वाला। २... हथियारबंद ! शस्त्रधारी। ३. बलवान् । ४ .: . जैसे-४, इसमें यदि जोड़ दिया जाय तो भी योग अबखड़। रदद। होगा और यदि घटा भी दिया जाय तो भोहा गडा-- विदे० 'मांगह'। ....: शेप रहेगा। खाँगना'---क्रि०अ० [सं० खज:- खोंडा लगढ़ा होना या चलने में ... (४+३= +:381-%-:%3)। , असमर्थ होना । 30-हीं सब कुचल एक पं मागच प्रेम पंथ सं० खाण्ड] १.खंड खंड होने या अंतराल या संत बांधि न खाँग।- जायसी (शब्द०)। . . व्यवधान होने की स्थिति ! खंडित होने का कार्य । २. खांड खांगना--क्रि० प्र०सं० क्षीण, हि० छीजना] कम होना। का बना पदार्थ मिश्री आदि को०) । घटना । 10-कहहु सो पीर काह विनु खांगा। समुद सुमेर खांडव संज्ञा पुं० [सं० खाण्य] १. कुरुक्षेत्र का एक प्राचीन वना श्राव तुम मांगा।--जायसी न०, पृ० ४६। - महाभारत और तैत्तिरीय आरण्यक में इसका वर्णन खांगा-संशा पुं० [सं० खड्ग, प्रा. साग] खड़ा। बांडा । उ०-- ' पाया जाता है। यह वन इंद्र द्वारा रक्षित था । अर्जुन पौर खरदूपर विसर पल झाल खांगा. पूर तन पहरियाँ ।-रघु० . ... . कृष्ण की सहायता पाकर अग्नि ने अर्जुन के वाण से प्रकट ७०, पृ० १३१ । 'होकर इसे जलाया था। इंद्रप्रस्थ नगर इसी वन को भूमि में । खांगो-संक्षा बी० [हिं० खेंगना कमी। घाटा त्रुिटि । .:. बताया गया था। · खाँगोर-वि० न्यून । कम । छोटा । अटिपूर्ण।-सोरह नहस . . . .२. खांड़ का बना पदार्थ । पदुमिनी मांगी। सबही दोन्ह न काहू खांगी।-जायसी पं० खांडवप्रस्थ-संज्ञा पुं० [सं० साण्डवप्रस्थ] एका स्थान जो धुतराष्ट्र द्वारा पांडवों को मिला था। पीछे पांडवों ने यहीं पर इंद्रप्रस्थ (गुप्त), पृ० ३४५ ॥ ....: बसाया था। खांच संथा पुं० [हिं० खांचना] १. दो वस्तुणों के बीच की ...खांडवगंग-संघा पुं० [सं० खाण्यराग] बॉड़ से बना एक प्रकार जगह। संधि जोड़। २.खींचकर बनाया हमा निशान । . का मिष्ठान्न । ३०-मौर कंद, मूल, फल, दित, मधु, पुत पठना वचन । ... .... मला खादशगणार किया जा रहा था।-200, खाँच --संथा [हिं०] खोर: 1. ही मादि का मटीत नुकीता संवा शंभ। बम ह°14 a