पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/१४९

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१५५ -पत्तियां- इसकी नरकट की पत्तियो से मिलती जुलती, पर , मानते हैं। उन्हीं की प्रार्थना करते हैं और उन्हीं के निमित्त - उनसे छोटी होती हैं। से ऊपर, की मोर, हरी पौर नीचे की । मदिर मादि बनवाते हैं। जिन २४ हुए हैं, जिनके नाम ये है 1 ...पोर सफेदी.लिए होती हैं। फूल छोटे छोटे होते हैं और ऋषभदेव, भजितनाथ, स भवनाथ, मभिनदन, सुमतिनाथ, गुच्छों में लगते हैं। फल, कचरी के से होते हैं। पश्चिम की . , पद्मप्रभ, सुपारवं, पद्रगम, सुविधिनाथ, पीतलनाथ, श्रेयास- प्राचीन जातियां इसे पवित्र मानती थी। रोमन और यूनानी नाथ, वासुपूज्य स्वामी, विमलनाय, अनंतनाथ, धर्मनाथ, विजेता इसकी पत्तियो की माला मिर पर धारण करते थे। मातिनाथ, कुंथुनाथ, मरनाथ, मल्लिनाय, मुनिसुव्रत स्वामी, अरववाले भी इसे पवित्र मानते थे जिस से मुसलमान, लोग नमिनाय, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ, महावीर स्वामी। इनमे से भवतक इसकी लॅकही की तसेवीह (मालो ) बनाते हैं। केवल महावीर स्वामी ऐतिहासिक पुरुष हैं जिनका ईसा इस पेह के फल मौर बीज दोनों काम मे पाते हैं। फल पकने से ५२७ वर्ष पहले होना यथो से पाया जाता है। शेष के परनीलापन लिए काले होते हैं। कच्चे फलों का- मुरख्या विषय में अनेक प्रकार की मलौकिक और प्रकृतिविरद्ध कथाएँ पौर भचार पड़ता है।, चीजों से तेल निकलता है। लकडी हैं। ऋषभदेव की कथा भागवत प्रादि कई पुराणों मे माई सजावट के सामान बनाने के काम में भाती है। इसकी लकडी है और उनकी गणना हिदुमों के २४ भवतारों में है। धूप से चिटकती नहीं। जिस प्रकार काल हिंदुमो में मन्दतर कल्प मादि में विभक्त हैं जैत्र'--वि० [सं०] [वि० श्री० जैत्री] १. विजेता। विजयी। उ०- उसी प्रकार जैन लोगो मे काल दो प्रकार का है-उत्सपिणी पाए चल चक्र चित्रित विचित्रित परम जगतः विजयी जयति . . मौर भवसर्पिणी । प्रत्येक उत्सपिणी भोर भवसर्पिणी मे चोवीस कृष्ण को जैन रथ। -भारतेंदु , भा०,२, पृ. ४४७ । । चौवीस जिन या तीथं कर होते हैं। पर जो २४ तीर्थ कर यौ०-जैत्ररय - विजयी। गिनाए गए हैं वे वर्तमान अवसपिणी के है। जो एक बार २ सर्वोच्च (को०), " -- - - तीर्थ कर हो जाते हैं वे फिर दूसरी उत्सपिणी या भवसपिणी में जन्म नहीं लेते। प्रत्येक उत्सर्पिणी, या भवसपिणी में नए नए जैत्र--सहा पु. १ पारा। २. भौषध । ३ विजयी व्यक्ति । विजेता जीव तीर्थकर हुमा करते हैं। इन्ही तीथ करों के उपदेशों को , पुरुष (को०)1४ विजय (को०)। ५ सर्वोच्चता (को०) लेकर गणधर लोग द्वादश भगों की रचना करते हैं। ये ही जैत्रीसमा श्री० [सं०] जयती वृक्ष । जैत का पेड़ । । । द्वादशाग जैन धर्म के मूल अप माने जाते हैं। इनके नाम ये हैं जैन-सा ([सं०] १ जिन 'का' प्रतिप्त धर्म/rभारत का एक -भाचारांग, सुत्रकृताग, स्थानाग, समवायाग, भगवती सूत्र, - धर्म संप्रदाय 'जिसमें हिंसा को परम धर्म माना जाता है भीर जाताधर्मकथा, उपासक दशाग, मतकृत दशाग, अनुत्तरोपपातिक कोई ईश्वर या सृष्टिकर्ता नही माना जाता। दशाग, प्रश्न व्याकरण, विपाकश्रुत, दृष्टिवाद । इनमें से विशेष-जैन धर्म "कितना प्राचीन है 'ठीक ठीक नहीं कहा जा ग्यारह मश तो मिलते हैं पर बारहवाष्टिवाद नहीं मिलता। सकता। जन ग्रों के मनुसार महावीर या वर्षमान ने ईसा से ... ये सब मग प्रमागधी प्राकृत में है और अधिक से अधिक वीस __५२७ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। इसी समय से पीछे कुछ बाईस सौ वर्ष पुराने हैं। इन मागमो या भगो को श्वेतावर जैन लोग विशेषकर यूरोपियन विद्वान् जैन धर्म का प्रचलित होना मानते हैं। पर दिगवर पूरा पूरा नहीं मानते। उनके ग्रंथ मानते हैं। उनके अनुसार यह धर्म बौद्ध धर्म के पीछे उसी के संस्कृत मे भलग हैं जिनमें इन तीर्थंकरों की कथा हैं मौर 'छ तत्वो' को लेकर और उनमे कुछ प्राह्मण धर्म की शैली - २४ पुराण के नाम से प्रसिद्ध हैं। यथार्थ में जैन धर्म के मिलाकर खड़ा किया गया। जिस प्रकार वौद्धो मे २४ बुद्ध तत्वो को सग्रह करके प्रकट करनेवाले महावीर स्वामी ही हुए ' है उसी प्रकार जैनों में भी २४ तीर्थकर है। हिंदू धर्म के ... हैं । उनके प्रधान शिष्य इंद्रभूति या गौतम थे जिन्हें कुछ अनसार जैनी ने भी अपने ग्रयों को पागम, पुराण मादि में युरोपियन विद्वानों ने भ्रमवश शाक्य मुनि गौतम समझा था।

  • विभक्त किया है पर प्रोजेकोबीमादि के माधुनिक अन्वेषणों जैन धर्म में दो सप्रदाय हैं-श्वेतावर मोर दिगंबर । श्वेताबर

के अनुसार यह सिद्ध किया गया है कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से ग्यारह अगों को मुख्य धर्म मानते हैं और दिगवर पपने'२४ पहले का है । उदयगिरि, जूनागढ़ मादि के शिलालेखों से भी पुराणों को । इसके अतिरिक्त श्वेतांवर लोग तीर्थ करों को जैनमत की प्राचीनता पाई माती है ऐसा जोन पडता है कि मतियों को कच्छ या लंगोट पहनाते है और दिगवर लोग नंगी यज्ञो की हिंसा प्रादि देख जो विरोध का सूत्रपात बहुत पहले से } रखते हैं। इन बातो के मतिरिक्त तत्व या सिद्धातों में कोई होता पा रहा था उसी'ने' प्रागे चलकर जैन धर्म का रूप प्राप्त भेद नहीं है । महंत देव ने संसार को द्रव्याथिक नय की अपेक्षा किया। भारतीय ज्योतिष में यूनानियों की शैली का प्रचार से अनादि बताया है। जगत् का न तो कोई कर्ता हर्ता है मौर विक्रमीय संवत् से तीन सौ वर्ष पोचे हुना। पर जैनों के मूल । न जीवों को कोई सुख दुख देनेवाला है। अपने अपने को प्रय भगो में यवन ज्योतिष का कुछ भी मामास नहीं है। जिस के अनुसार जीव सुख दुख पाते हैं। जीव या मात्मा का मूल प्रकार ब्राह्मणो को वेद सहिता मे पचवर्षात्मक युग है और स्वभान शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानदमय है, फेवल पुद्गल या कर्म के कृतिका, सेनिक्षत्रो की गणना है उसी प्रकार जैनों के पग ,यो । . प्रावरण, से उसका मूल स्वरूप प्राचादित हो जाता है। जिस में भी है। इससे उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है। जैन लोग समय यह, पौगलिक भार हट जाता है उस समय पात्मा सृष्टिकर्ता ईपवर को नहीं मानते, जिन या पहुंद को ही ईश्वर परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त होता है। जैन मत स्याद्वार