पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१०२

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बरेखी २३९५ (२) निमित्त । वास्ते । लिये । खातिर । उ.-हाजिर मैं | बरोरु*-वि० दे० "वरोरु"। हौं हुनर में रावरे सेवा बरे सहित लघु भाई।-रघुराज। | बरोह-संज्ञा स्त्री० [सं० बट+रोह उगनेवाला ] बरगद के पेड़ के बरेखी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बाई+रखना] स्त्रियों का भुजा पर ऊपर की डालियों में ₹गी हुई सूत या रस्त्री के रूप की पहनने का एक गहना। वह शाखा जो क्रमशः नीचे की ओर बढ़ती हुई जमीन पर संज्ञा स्त्री० [हिं० बर+देखना, बरदेखी] विवाह संबंध के जाकर जा पकड़ लेती है। बरगद की जटा। लिये वर या कन्या देखना । विवाह की ठहरौनी । उ. | बरोछी-संशा स्त्री० [हिं० बार+ओछना ] सूअर के बालों की बनी (क) जो मुम्हरे हठ हृदय विसेषी । रहि न जाय बिनु किए हुई कुँची जिससे सुनार गहना साफ़ करते हैं। बरेषी । तौ कौतुकियाह आलस नाहीं । बर कन्या अनेक | बरोखा-संज्ञा पुं॰ [ हिं. बड़ा, बड़+ऊख ] एक प्रकार का गला जग माहीं । तुलसी । (ख) घरघाल चालक कलहप्रिय | जो बहुत ऊँचा या लंबा होता है । बड़ोखा । कहियत परम परमारथी । तैसी बरेखी कीन्हि पुनि मुनि | बरौठा-संशा पुं० दे. "बरोठा"। सात स्वारथ सारथी। तुलसी । (ग) लोग कह पोच सो | बरौनी-संशा स्त्री० दे. “बरुनी"। न सोच न संकोच मेरे ब्याह न बरखी जाति पाप्ति न बहत बरौरी-संशा स्त्री० [हि० बड़ी, बरी ] बड़ी या बरी नाम का हौं।-तुलसी। पकवान । उ.-कड़ी सँवारी और फुलोरी । औ खरवाना बरेज, बरेजा-संशा पुं० [सं० वाटिका, प्रा० बाडिअ ] पान का लाय बरौरी। जायसी। बगीचा । पान का भीटा। | बर्क-संज्ञा स्त्री० [अ० ] बिजली । विद्युत । बरेत-संज्ञा पुं० दे. "बरेता"। वि० (१) तेज़ । चालाक । (२) घट उपस्थित होनेवाला । बरेता-संज्ञा पुं० [हिं० बरना, बटना+पत (प्रत्य॰)] सन का पूर्ण रूप से अभ्यस्त । मोटा रस्सा । नार। बर्कत-संज्ञा स्त्री० दे० "बरकत"। बरेदी-संज्ञा पुं॰ [देश॰] चरवाहा । ढोर चरानेवाला । बर्खास्त-वि० दे० "बरखास्त"। बरेषी-संज्ञा स्त्री० दे० "बरेखी"। बी-संहा पुं० दे० "बरछा"। बड़ा -संशा पुं० दे० "बरेंदा"। बर्ज*-वि० दे० "वर्य" । उ०-राम कथा मुनिवर्ज बखानी । बरो-संज्ञा स्त्री० [हिं० बार, बाल ] आल की जद का पतला रेशा। सुनी महेश परम सुख मानी।--तुलसी। (रंगरेज) | बर्जना-क्रि० स० दे० "बरजना"। संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक घास जिससे बागों को हानि बर्णना*-क्रि० स० [हिं० वर्णन] वर्णन करना । बयान पहुँचती है। करना। वि० दे० "बड़ा"। । बत-संज्ञा पुं० दे० "त"। बरोक-संज्ञा पुं० [हिं० अर+रोक ] वह द्रव्य जो कन्यापक्ष से वरपक्ष : बर्तन-संज्ञा पुं० दे० "बरतन"। को यह सूचित करने के लिये दिया जाता है कि संबंध की । बर्तना-कि० स० [सं० वर्शन-वृत्ति, व्यवहार ] (1) आचरण बातचीत पक्की हो गई। इसके द्वारा वर रोका रहता है करना । व्यवहार करना । जैसे, मित्रता वर्तना। (२) अर्थात् उससे और किसी कन्या के साथ विवाह की बात व्यवहार में लाना । काम में लाना। इस्तेमाल करना । चीत नहीं हो सकती । बरच्छा। फलदान । उ-रामा जैसे,—यह बरतन नया है, किसी ने इस बर्ता नहीं है। कहह गरब से हौं रेदर सिव लोक । के सरि मो से : वर्ताव-संशा पुं० दे० "वरता" । पावद केसे करउँ बरोक । —जायसी। बर्द-संशा पुं० [सं० बलद ] बैल । वृष ।

  • संज्ञा पुं० [सं० दलाक ] सेना । फौज ।

बर्दाश्त-संज्ञा स्त्री० दे० "बरदाश्त"। घरोठा-संज्ञा पुं० [सं० द्वार+कोठ, हि० बार+कोठा ] (1) ब्योड़ी। बर्न*-संशा पुं० दे० "वर्ण" । पौरी । (२) बैठक । दीवानवाना। 'बर्फ-संज्ञा स्त्री० [फा०] (१) हवा में मिली हुई भाप के अत्यंत मुहा०-बरोठे का चार-द्वारपूजा । उ०-बारोठे को चार सूक्ष्म अणुओं की तह जो वातावरण की तक के कारण करि कहि केशव अनुरूप । द्विज दूलह पहिराइयो पहिराये। आकाश में बनती और भारी होने के कारण ज़मीन पर सब भूप। केशव । गिरती है। गिरते समय यह प्रायः रुई की तरह मुलायम बरोधा-संज्ञा पुं० [देश॰] वह खेत या भूमि जिसमें पिछली | होती है और ज़मीन पर गिरकर अधिक ठंढक के कारण फसल कपास की रही हो। जम जाती है। जमने से पहले यदि चाहें तो इसे एकत्र बरोधर-वि० दे. "बराबर"। करके ठोस गोले आदि के रूप में भी बना सकते हैं।