पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१०७

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बलाराति २४०० बलित विशेष- स्त्रियाँ प्राय: बच्चों के ऊपर से हाथ धुमाकर और माई........"आए भरत दीन है वोले कहा कियो कैकयि फिर अपने ऊपर ले जाकर इस भाव को प्रकट करती है। माई। हम सेवक वा त्रिभुवनपति के सिंह को बलि कौवा उ.-(क) निकट बुलाप बिठाय मिरम्वि मुख आँचर लेति को बाई ?-सूर । (७) चहावा । नबंध। भोग । उ.- बलाय । चिरजीवी सुकुमार पवनसुत गहति दीन ह पाय। (क) पर्वत सहित धोइ ब्रज डारों देउँ समुद्र बहाई । मेरो -~-सूर । (ग्व) ले बलाय सुकर लगत्यो निरखि मंगल चार बलि औरहि लै पर्वत इनको करों सजाई। -सूर । (ख) गायो । नैन आरति अघं आँसू पुहुप तन मन धन चढ़ायो। बलि पूजा चाहत नहीं चाहत एकै प्रीति । सुमिर नहीं माने -सूर। भलो यही पावनी रीति ।-तुलसी।(4) वह पशु जो (६) एक रोग जिसमें रोगी की उँगली के छोर या गाँठ किसी देवस्थान पर वा किसी देवता के उद्देश्य से मारा पर फोड़ा हो जाता है। इसमें रोगी को बहुत कष्ट होता है जाय। और उँगली कट जाती या टेढ़ी हो जाती है। क्रि०प्र०-करना।—देना ।—होना । बलाराति-संज्ञा पुं० [सं०] (१) इंद्र । (२) विष्णु। मुहा०-पलि चढ़ना-मार। जाना। बलि चढ़ाना=बलि बलालक-संज्ञा पुं० [सं०] जलापला । दना । देवता के उद्देश्य से घात करना । देवार्पण के लिये बध बलावलेप-संज्ञा पुं० [सं०] गर्व । अहंकार । दर्प। करना। वलि जाना-निछावर होना । बलिहारी जाना । बलाश-संशा पु० दे. "बलास"। उ०-(क) तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव बलास-संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें कफ और वायु के | मधुर कछु खाहू।-सुलसी। (ख) अवधपुर आये दशरथ प्रकोप से गले और फेफचे में सूजन और पीड़ा होती है. राय । राम लच्छिमन भरत सत्रहन • सोभित चारों साँस लेने में कष्ट होता है। भाय। कौशल्या आदिक महतारी आरति करति बनाय । संज्ञा पुं० [सं० बलाय ] बरुना नाम का पौधा । यह सुख निरखि मुदित सुर नर मुनि सूरदास बलि जाय । बलासम-संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध । बलासी-संशा पुं० [सं० बलाय, बिलासिन् ] यहना । बन्ना नाम | मुहा०-बलि जाऊँ वा बलि ! तुम पर निछावर हूँ। ( बात- का पेड़। चीत में लियाँ इस वाक्य का व्यवहार प्रायः यों ही किया करती बलाहक-संशा पुं० [सं०] (1) मेघ । बादल । (२) एक दैत्य । है ) 30-छवै छिगुनी पहुँचौ गिलत अति दीनता दिखाय। (३) एक नाग। (४) सुश्रुत के अनुसार दर्वीकर जाति के बलि बावन कोब्योंत सुनि को बलि तुम्हें पताय।-बिहारी। साँपों के छब्बीस भेदों में एक का नाम । (५) कृष्णचन्द्र के (९) वर का दंडा। (१०) आठवें मन्वंतर में होने रथ के एक घोड़े का नाम । (६) मोथा । (७) लिंगपुराण वाले इंद्र का नाम । (११) विरोचन के पुत्र और के अनुसार शाल्मलि द्वीप के और मत्स्यपुराण के अनुसार प्रह्लाद के पौत्र का नाम । यह दैत्य जाति का राजा था। कुश द्वीप के एक पर्वत का नाम । (८) महाभारत के अनु विष्णु ने वामन अवतार लेकर इसे छलकर पाताल भेजा था। सार जयद्रथ के एक भाई का नाम । संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) दे. "वलि" । (२) चमड़े बलिंदम-संा पुं० [सं०] विगु । की अरौं। (३) एक प्रकार का फोड़ा जो गुदावर्त के बलि-संज्ञा पुं० [सं०] (१) भूमि की उपज का वह अंश जो। पारस अादि रोगों में उत्पन्न होता है। (४) अर्श का भूस्वामी प्रति वर्ष राजा को देता है। कर । राजकर । मस्या। हि धर्मशास्त्रों में भूमि की उपज का छठा भाग राजा का संज्ञा स्त्री० [सं० बला-छोटी बहिन ] सखी। उ०—(क) अंश ठहराया गया है। (२) उपहार । भेंट । (३) पूजा की ताकि रहत छिन और तिय लेत और को नाउँ । ए बलि सामग्री वा उपकरण। (५) पंच महायज्ञों में चौथा भूतयज्ञ ऐसे बलग को विविध भाँति बलि जाउँपमाकर । नामक महायज्ञ । इसमें गृहस्थों को भोजन में से ग्रास निकाल. (ब) ये अलि या बलि के अधरान में आनि चढ़ी कछ कर घर के भिन्न भिन्न स्थानों में भोजन पकाने के उपकरणों माधुरईसी ।-पनाकर । पर तथा काक आदि जंतुओं के उद्देश्य से घर के बाहर रखना ! बलिक-संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग का नाम । होता है । (५) किसी देवता का भाग। किसी देवता को बलिकर्म-संज्ञा पुं० [सं०] वलिदान । उत्सर्ग किया कोई खाद्य पदार्थ । (६) भक्ष्य । अन्न । खाने | बलित*-वि० [हिं० बलि ] बलिदान चढ़ाया हुआ।हत । मारा की वस्तु । उ०—(क) बैनतेय बलि जिमि चह कागू । जिमि हुआ। उ०-करि आदिस्य अदृष्ट नष्ट यम करों अष्टवसु । सस 'चहै नाग-अरि भागू। तुलसी । (ख) रामहि राखहु रुद्रनि बोरि समुद्र करों गंधर्व सर्व पशु । बलित अबेर कोऊ जाई। जब लौं भरत अयोध्या आवे कहत कौशल्या कुबेर बलिहि गहि देहुँ इंद्र अब। विद्या-धरन अघिद्य करौं