पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/११७

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यहाथ २४१० वहीर अहिर विचार -वि० ० क्रि०प्र०-देना। यहिभूत-वि० [सं० ] (१) जो बाहर हुआ हो। (२) जो बाहर बहाव-संज्ञा पुं० [हिं० बहना ] (1) बहने का भाव । (२) बहने हो। (३) अलग । जुदा। की क्रिया। प्रवाह । (३) बहती हुई धारा । बहता हुआ । बहिभूमि-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) बस्ती से बाहरवाली भूमि । जल आदि । जैसे, बहाव में पड़ना। (२) झाडे जंगल जाने की भूमि । उ-गए है यहि- बहिः-अव्य० [सं० वहिम ] बाहर। उ.-बहिति सात अरु भूमि तहाँ कृष्ण शमि आए करी घड़ी धूम आफ बौडिन अंतर्रति सात सुन, रति विपरीतनि को विविध विचार सों मारि के।-प्रियादास ।। है।-केशव बहिर्मुख-वि० [सं०] विमुख । विरुद्ध । पराङ्मुख । जो प्रवृत्त बहिबर-संज्ञा स्त्री० [सं० वधूवर, हिं० बहुवर ] स्त्री। . या दत्तचित्त न हो। बहिक्रमः-संज्ञा पुं० [सं० वयःक्रम ] अवस्था । उम्र । उ०—(क) बहिरीति-संज्ञा स्त्री० [सं०] रति के दो भेदों में एक । बाहरी इते पर बाल यहिफम जानि । हिये करुना उपजै अति . रति या समागम जिसके अंतर्गत, आलिंगन, चुबन, स्पर्श, आनि । केशव । (ख) ग्यारह वर्ष बहिक्रम श्रीरयो। मर्दन, नखदान, रददान और अधरपान हैं। ( केशव ) खेलत आखेटक श्रम जीस्यो।-लाल । बहिलापिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] काव्य रचना में एक प्रकार की बहिन-संशा पुं० [सं० वहिन] नाव । जहाज । उ०—सोइ राम पहेली जिसमें उसके उत्तर का शब्द पहेली के शब्दों के कामारि प्रिय अवधपत्ति सर्वदा दास तुलसी त्रासनिधि-! बाहर रहता है, भीतर नहीं। अंतापिका का उलटा । वहितं ।-तुलसी। उ.-अक्षर कौन विकल्प को युवति बसति किहि अंग। बहिन-संज्ञा स्त्री० [सं० भगिनी, प्रा० बहिणी ] माता की कन्या। बलि राजा कौने छल्यो सुरपति के परसंग । उत्तर क्रमशः याप की बेटी । वह लड़की या स्त्री जिसके साथ बा, वाम और वामन । एक ही माता पिता से उत्पन्न होने का संबंध हो। बहिर्वासा-संज्ञा पुं० [सं० वहिर्वासम् ] बाहरी काड़ा। कौपीन भगिनी। __ के ऊपर पहनने का काया। विशेष—जिस प्रकार स्नेह से समान अवस्था के पुरुषों के बहिला-वि० [सं० बहुला=गाय । या हि बोश+ला (प्रत्य॰)] लिए 'भाई शब्द का व्यवहार होता है उसी प्रकार स्त्रियों . बंध्या। बाँझ । जो बचा न दे (चौपायों के लिए)। के लिए 'वहिन' शब्द का भी। । बहिष्कार-संज्ञा पुं० [सं०] [वि० बहिष्कृत ] (1) बाहर करना । यहिनापा-संज्ञा पुं० दे० "यहनापा"। निकालना । (२) दूर करना । हटाना। अलग करना । बहियाँ -संशा श्री. दे. "बाही", "बाहँ"। उ.- सूरदास | त्याग। हरि बोलि भगत को निरवहत दै बहियाँ।-सूर। क्रि० प्र०--करना । —होना । बहिरंग-वि० [सं०] (१) याहरी । बाहरवाला । 'अंतरंग' बहिष्कृत-वि० [सं०] (1) बाहर किया हुआ । निकाला हुआ। का उलटा । (२) जो गुट या मंडली के भीतर न हो। (२) त्यागा हुआ। अलग किया हुभा। बहिर-वि० दे० "बहरा"। उ...-अंधहु बहिर न कहहि बही-संज्ञा स्त्री० [सं० बद्ध, वि. बॅधी ? ] हिसाब किताब लिखने अस स्रवन नयन तब बीस ।--तुलसी। की पुस्तक । सादे कागज़ों का गड जो एक में सिला हो बहिरत*-अव्य० [सं० वहिः ] बाहर । 30-जोगी होइ जग और जिस पर क्रम से नित्य प्रति का लेखा लिखा जाता जीतता, यहिरत होह संसार । एक देसा रहि गया, पाछे हो । उ.--खाता खत जान दे वही को बहिजान दे।- परा अहार । —कबीर। पद्माकर। बहिराना-क्रि० स० [हिं० बाहर+ना (प्रत्य॰)] बाहर कर यौ०-बही खाता रोकड वही । हुंदी वही। देना । निकाल देना। मुहा०—वही पर चढ़ना या टकना=हिसाब की किताब में कि० अ० बाहर होना। लिख लिया जाना । बही पर चढ़ाना या टॉकना=बही पर बहिर्गत-वि० [सं०] (1) जो बाहर गया हो। बाहर आया ' लिखना। दर्ज करना। या निकला हुआ। (२) जो बाहर हो। (३) अला। बहीखाता-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] हिसाब किताब की पुस्तक । जुदा । जो अंतर्गत न हो। बहीर-संज्ञा स्त्री० [हिं० भीड] (1) भीड़। जन समूह । बहिर्जानु-अन्य [ सं० } हाथों को दोनों घुटनों के बाहर किए। उ.-जिहि मारग गे पंडिता तेही गई बहीर। ऊँची हुए (बीच में नहीं)। घाटी राम की तिहि चढ़ि रहे कबीर ।-कवीर । (२) विशेष-श्राख भादि कृत्यों में इस प्रकार बैठने का प्रयोजन | सेना के साथ साय चलनेवाली मीन जिसमें साईस, पड़ता है। सेक्क, दुकानदार आदि रहते हैं। फौज का लवाज ।