पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१२३

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बांगुर बांदी बांगुर-संज्ञा पुं० [देश॰] पशुओं या पक्षियों को फंसाने का मुहा०-बाँट पड़ना-हिस्से में आना । किसी में, या किसी के जाल । फैदा । उ.--यांगुर विषम तोराइ, मनहु भाग पास बहुत परिमाण में होना । उ०—विप्रदोह जनु बाँट मृग भागवस । -तुलसी। पन्यो हठि सबसों और बहावों 1-तुलसी । योट में पदना-- बाँचना-क्रि० स० ( सं० वाचन ] पढ़ना । उ०-(क) जाइ दे. "बाँट पड़ना"। विधिहि तिन दीन्ह सो पाती। बाँचत प्रीति न हृदय (३) घास या पयाल का बना हुआ एक मोटा सा रस्सा समाती ।--तुलसी । (ग्व) तर झुरसी ऊपर गरी कजल जिसे गाँव के लोग कुवार सुदी १४ को बनाते हैं और जल हिस्काय । पिय पाती बिन ही लिखी बाँची विरह दोनों ओर से कुछ कुछ लोग इसे पकड़ कर तब तक खींचा- बलाय ।-बिहारी। तानी करते हैं जब तक वह टूट नहीं जाता। कि० स० [सं० बचना ] शेष रहना । बाकी रहना । बध यौ०-बाँटा चौदस-कुंवार सुदा १४ जिस दिन बॉट खींचा रहना । उ०—(क) सत्यकेतु-कुल कोउ न बाँचा । वित्र जाता है। साप किमि होय असाँचा ।-तुलसी । (ख) तेहि कारण खल अब लगि बाँचा । अब तव काल सीस पर माधा। संज्ञा पुं॰ [देश॰] (1) गौत्रों आदि के लिए एक विशेष तुलसी । (ग) महिमा मृगी कौन सुकृती की खल बघन प्रकार का भोजन जिसमें खरी, बिनौला आदि चीजे" विशिष में यांची।-तुलसी। रहती हैं। इससे उनका दृध बढ़ जाता है। (२) वेदर क्रि० स० [हिं० बचाना ] बचाना। छोड़ देना। उ.- नाम की घास जो धान के खेतों में उग कर उसकी फसल (क) बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब यह मरनहार । को हानि पहुँचाती है। भा साचा ।-तुलपी । (ब) सो माया रघुबीरहि बाँची। बाँटचूँट-संज्ञा स्त्री० [हिं० बॉट+चूद्र अनु.] (१) भाग। सब का मानी करि साँची।--तुलसी। हिस्सा बखग। (२) देन लेन । देना दिलाना। वांछना*-संवा स्त्री० [सं० वांछ। ] इच्छा । अभिलाषा । बाँटना-कि० स० [सं० वितरण ] (१) किसी चीज़ के कई भाग कामना । आकांक्षा। उ०—यह वांछना होर क्यों पूरन करके अलग अलग रखना । (२) हिस्सा लगाना । दासी हव बरु प्रज रहिये।-सूर। विभाग करना । जैसे,—उन्होंने अपनी सारी जायदाद त्रि० स० (१) चाहना । इच्छा करना । अभिलाषा करना ।' अपने दोनों भाइयों और तीनों लड़कों में बाँट दी। (३) उ.-महा मुक्ति कोऊ नहि बौछ यदपि पदारथ चारी। . थोड़ा थोड़ा सबको देना। वितरण करना । जैसे, चने सूरदास स्वामी मन मोहन मरति की बलिहारी।—सूर । बाँटना, पैसे बाँटना। (२) अच्छी या बुरी चीजें चुनना । छाँटना। संयोकि दालना।—देना । बांछा*-संज्ञा स्त्री० [सं० वांछ। 1इच्छा । कामना। अभिलाषा । क्रि० स० दे. "बाँटना"। आकांक्षा। बाँटा-संज्ञा पुं० [हिं० बांटना ] (1) बाँटने की क्रिया या भाव । बाँछित*--वि० [सं० यांचित ] अभिलषित । इच्छित । जिसकी (२) भाग। हिस्स। (३) गाने बजानेवालों आदि का इच्छा की जाय। बह इनाम जो वे आपस में बाँट लेते हैं। हर एक के बाँछी*-संज्ञा पुं० [सं० वांछिन् | अभिलाषा करनेवाला । चाहने हिस्से का मिला हुआ पुरस्कार । वाला। । क्रि० प्र०-लगना।—लगाना ।—पाना-देना । लेना। बाँझ-संज्ञा स्त्री० [सं० बंध्या ] (1) वह स्त्री जिसे संतान होती ही | बाँड-संज्ञा पुं॰ [देश॰] दो नदियों के संगम के बीच की भूमि न हो। बंध्या । (२) कोई मादा जिसे बा न होता हो। जो वर्षा में नदियों के बढ़ने से इव जाती है और फिर कुछ संशा स्त्री० [देश॰] एक प्रकार का पहादी वृक्ष जिसके फलों! दिनों में निकल आती है। इस भूमि पर श्वेती अरछी होती है। की गुठलियाँ बच्चों के गले में, उनको रोग आदि से बचाने वि० दे० "बाड़ा"। के लिये, बाँधी जाती है। बाँड़ा-संज्ञा पुं० [देश॰] (१) वह पशु जिसकी पूंछ कट गई बाँसककोली-संज्ञा स्त्री० [सं० बंध्याककर्कोटको ] वन ककोड़ा। हो। (२) परिवारहीन पुरुष। वह मर्द जिसके लड़के खेखसा । बन परबल। बाले न हों। (३) तोता। बाँझापन, बानपना-संज्ञा पुं० [सं० बंध्या+पन (प्रत्य॰)] बॉस वि. जिसके पूँछ न हो। होने का भाव । वंध्यास्व । बाँडी-संशा स्त्री० [देश॰] (1) विना पूँछ की गाय । (२) बाँट-संहा पुं० [हिं० बाँटना का भाव ] (1) बाँटने की क्रिया कोई मादा पशु जिसकी पूंछ न हो या कट गई हो (३) या भाष। (२) भाग । हिस्सा । वखरा। छोटी लाठी । छड़ी।