पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फल्गुनान्ट २३०६ फहराना फल्गुनाल-संशा ५० [सं० फाल्गुन माम । (२) अलवा । विद्रोह (३) ऊधम । उपद्रव । (३) झगड़ा फल्गुनी-संशा थी. दे. "फाल्नी "। लड़ाई। (५) विवाद। फल्गुनीभव-लशा पृ० [. | वृहस्पति का एक नाम । त्रि.०प्र०करना।-उठाना।-खड़ा करना।-देवना।- फल्गुटका-संज्ञा ग0 | सं0 1 बृहस्पंहिता के अनुसार वायु कोण दबाना।-मचना ।—मचाना । की एक नदी का नाम । फसादी-वि० [फा०] (1) फसाद खका करनेवाला । उपद्रवी । फल्गुवाटिका-संज्ञा स्त्र | स० ] कठूमर । (२) रगड़ाल । लदाका । (३) नटखट । पाजी । फल्गुवृत, फल्गुनाक- शाम. ] एक प्रकार का फसिल-संजा सी० दे० "फसल"। इयोनाक। फस्त-संजा स्त्री० दे० "फन्द"। फल्प-संः।। 1. सं. | फल । फम्द-सं-IT | अ० फन्द | नप को छेदकर शरीर का दूषित फल्लकी-4-1| 'Y | H., किन । एक प्रकार की मछली जिम्ये रक्त निकालने की क्रिया। फलई कहने है। मुहा०—फसद खोलना नम वा धमनी को छद्र कर रक्त निका- फल्ला-संशा ५०० | एक प्रकार का रेशम जो बंगाल के राम लगा। फस्द खुलवाना=(१) शरीर का दृषित रक्त निकलवान! । पुर हाट नामक स्थान से आता है । इसका रंग पीलापन (२) पागलपन का चिकित्सा कगना । होश की दवा कराना। लिए याद होता है और यह तेंदरी मं कुछ घटिया होता है। फस्द लेना .(१) शगर का दृपिन का निकलवाना । (२) फसकड़ा-सं। १० । अ• | पालथी। पलयी । जैसे, जहाँ पागलपन का चिकित्सा कराना । दग्वो वहीं फरपकड़ा मारकर बैठ जाते है। फहम-संशा स्त्री | अ ज्ञान । सम। विवेक । उ०—(क) क्रि० प्र०-मारना। फहम आगे फहम पाछे फहमै दहिने डैरी । फहमै पर जो फसफना-कि. . [ अनु !(१) कपड़े का मसकना या दबने फहम करत है सोई फहम है मेरी ।—कबीर । (ख) जल आदि के कारण कुछ फट जाना । मसकना । (२) बैठना । चाहत पावक लहों विष होत अमी को । कलिकुचालि धेसना। संतन कही पोइ सही, मोहि कछु फहम न तरनि तमी वि. (३) जो जल्दी मापक या फट जाय । (२) जो जल्दी को।-तुलसी । (ग) आये सुक सारन बोलाए ते कहन धम् या बैठ जाय। लागे, पुलके सरीर सेना करत फहम ही ।—तुलसी। फसकाना-नि. 90 | अन् ! (१) कपड़े को मपकाना या फहमाइस-संशा स्वा० [फा०] (1) शिक्षा । सीख । (२) दबाकर कुछ फाइना । (२) धुमाना। बैठाना। आज्ञा । हुकुम । फसल-स.. ग. | in फाल | (1) ऋतु । मौसम । (२) समय। क्रि० प्र०-करना।—देना ।—होना । काल । जैसे, बोने की फमल, काटने की फसल । (३) फहरना-वि० अ० [सं० प्रसरण ] फहराना का अकर्मक रूप । शस्य । स्वेत की उपज । अन्न । जैसे, म्हेत की फपल । (४) वायु में उड़ाना । फड़फड़ाना । उ०—(क) घरहि चली वह अन्न की उपज जो वर्ष के प्रत्येक अयन में होती है। यमुना जल भरि के । सखिन बीच नागरी बिराजति भई अन्न के लिए वर्ष के दो अयन माने गये हैं, खरीफ़ और प्रति उर हरि के । मंद मंद गति चलत अधिक छथि अंचल रब । सावन में पूस तक में उत्पन्न होनेवाले अन्नों को ग्रीफ रहेउ फहरि के । मोहन मोको मोहनी लगाई संगहि चले की फसल कहते हैं और माघ में आपाढ़ तक में उपजनेवाले डगरिके ।----सूर । (ख) फहरै फुहारे नीर नहरें नदी सी को रयां की फम्पल । बह, छह छबीन छाम छीटन की छाटी है।----पद्माकर । फसली-वि० | सं० | ऋतु संबंधी। ऋतु का । जैसे, फसली फहरान-संज्ञा स्त्री० [हिं० फहराना | फहराने का भाव या क्रिया। मुम्वार। उ.-(क) वा पट की फहरानि । कर धरि चक्र चरण की मंशा १० (१) एक प्रकार का संवत् । इसे दिली के सम्राट धावनि नहि विसरति वह वानि ।-सूर । (ख) अंचर की अकबर ने हिजरी संवत् को जिसका प्रचार मुसलमानों में फहरानि हिये थहरानि उरोजन पीन तटी की।--देव । था और जिसमें चंद्रमास की रीति से वर्ष की गणना थी, फहराना-क्रि० म० मे० प्रसारण ] उड़ाना । कोई चीज़ इस यदल कर मोर मास में परिवर्तन करके चलाया था। अब प्रकार म्बुली छोड़ देना जिसमें वह हवा में हिलने और ईपवी संवत् से यह ५८३ वर्ष कम होता है। इसका उबने लगे। जैसे, हवा में दुपट्टा फहराना, झंडा फहराना। प्रचार उत्तरीय भारत में फम्पल या हेती बारी आदि के मि.० अ० फहरना । वायु में पसरना। हवा में रह रह कर कामों में होता है । (२) हैजा। हिलना या उड़ना । उ०—(क) काया देवल मन ध्वजा फसाद-संज्ञा पुं० | अ० [वि० फसादी ] (१) बिगाव। विकार । विषय लहर फहराय । मन चलता देवल घले साको सरबस