पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१४

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फहरानि
फाँदना
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फहरानि फाँदना जाय ।-कीर । (ख) घंट घरि-धुनि बरनि न जाहीं। (२) क्रम में बाँटा हुआ भाग । अलग अलग किए हुए कई मरय करहिं पायक फहराहीं।-तुलसी। (ग) चारिहूँ ओर भागों में से एक भाग । (३) दर या पड़ता जिसके अनु- ते पौन झकोर अकोरनि धोर धा धहरानी। ऐसे समय सार कोई वस्तु वाँटी जाय । पभाकर काह के आवत पीतपटी फहरानी।-पनाकर । मा 10 [ ? : (१) ओपधि को गरम पानी में औटाना । फहरानि*-संज्ञा स्त्री० दे० “फहरान"। काढ़ा बनाने की क्रिया या भाव । (२) काय । काढ़ा । फहरिस्त-संजा श्री. दे. "फेहरिस्त"। फाँटना-कि... जि.. कार ! (1) किसी वस्तु को कई भागों फहश-वि० अ० फुदश ! फूहड़ । अश्लील । में बाँटना । विभाग करना । (२) जड़ी बूटी आदि को फाँक-संज्ञा स्त्री० [सं० फलक ] (1) किमी गोल या पिंडाकार वस्तु पानी में आटाना । काढ़ा करना । का काटा या चीरा हुआ टुकड़ा। गोल मटोल वस्तु का वह फाँटबंदी-संभाग दि. फाट+फा. बदीवह कागज़ जिसमें ग्वंड जो किमी सीध में बराबर काटने से अलग हो। छुरी, किसी गांव में नामुकम्मल पट्टीदारों के हितों के अनुसार आरी आदि में अलग किया हुआ टुकड़ा। उ०—छोरी उस गाँव की आमदनी आदि की बॉट लिम्बा रहती है। बंदि विदा करि राजा राजा होय कि रॉको। जरासंध को फाँटा-1 ५० [हिं० फाटना ! लोहे वा लकड़ी का वह झुका जोर उधेयो फारि कियो है फाँको।-गोपाल । (२) किमी हुआ या कोणयुक्त टुकड़ा जो मिलकर कोण बनाती हुई दो फल का एक सिरे ये दूसरे सिरे तक काटकर अलग किया वस्तुओं को परम्पर जकड़े रखने के लिए जोर पर जह दिया हुना टुकड़ा । जैसे, नीबू, आम, अमरूद, खरबूजे आदि की जाता है। कोनिया। फाक । (३) वह । टुकड़ा। उ०-घरि घरि चामीकर के फाँड़-संजा ए० दे० "फोड़ा"। कंगूर गिरें फटकि फरम फूटि फूटि फीके फहराहि। फाँडा-संगा पु० [स. फोड-पेट ! दुपट्टे या धोती का कार विशेष-टूट फूट कर अलग होनेवाले टुकड़े के लिए इस में बँधा हुआ हिस्सा । शब्द का व्यवहार बहुत कम मिलता है। क्रि०प्र०-कम्पना ।-बांधना । (४) लकीरें जिनमे कोई गोल या पिंडाकार वस्तु सीधे मुहा०—कांदा पाँधना या करना किसी काम के लिये मुरतद टुकड़ों में बँटी दिखाई दे । जैसे, खरबूजे की फाँके । होना । कटिबद्ध होगा। फाँडा पकवना-11) म प्रकार फॉफड़ा-वि० [२० } () बौका । तिरछा । (२) हृष्ट पुष्ट। पकाना जिमम कोई मनुष्य भागने न पाव । (२) wit का किमी तगड़ा । मुस्टंडा । मजबुत । पुरुष को अपने भरण पापण आदि लिये जिम्गेटार सायनः । फौफना-कि०म० [हिं० फाका चराने या बुकनी के रूप की फाँद-संक्षा - [हिं० फांदना | उछाल । उचलने का भाव । वस्तु को दूर से मुँह में डालना । कण या चूर्ण को दूर मे कृदकर जाने की क्रिया या भाव । मुँह में फेंक कर खाना । जैम, चीनी फाँकना । उ.- मंज्ञा की पुं० [हिं. फटा (1) रस्मी, बाल, सून लपसी लोंग गर्न इकसारा। खाँड़ परिहरि फाँकै छारा ।- आदि का घेरा जिसमें पढ़ कर कोई वस्तु बँध जाय । कबीर । फदा पाश । (२) चिनिया आदि फँसाने का फंदा या मुहा०---धूल फाँकना=(१) खाने को न पाना । (२) ऐसे स्थान जाल । उ०—(क) तीतर गांव को फाँद है नितहि पुकार ___ में जाना या रहना जहां बहुत गर्द हो । (३) दुर्दशा भौगन।। दोष ।---जायमः । (ख) प्रेम फाँद जो पस न छूटा। फांका-संशा पुं० [हिं० फेंकाना ] (१) किसी वस्तु को तुर मे जीव दीन्ह पर फाँद न टूटा ।--जायगी। फेंक कर मुंह में डालने की क्रिया या भाव । का। विशेष-कवियों ने इस शब्द को प्रायः पुंलिंगही माना है। मुहा०—फाँका मारना किसी वस्तु को फांकना । फाँदना-कि. अ. | सं० फणन, हि० फालना] ओंक के साथ (२) उतनी वस्तु जो एक बार में फाँकी जाय । शरीर को ऊपर उठाकर एक स्थान ये दूसरे स्थान पर जा फॉकी-संशा त्रा० दे० "फॉक"। पड़ना । कृदना । उन्लना । उ०-दृग मृगनैननि के कहूँ फाँग, फाँगी-संशा श्री० [ ? ] एक प्रकार का माग । फाँदि न पाय जान । जुलुफ फंदा मुग्व भूमि पै रोये बाधिक उ०-(क) रुचि तल जानि लोनिका फाँगी । कह। कृपालु सुजान। रसनिधि। इपरे माँगी।-सूर । (ख) पोई परखर फाँग करी पनि। संयो० कि०-जाना । टेंटी देंट मो छोलि कियो पुनि ।—सूर । कि. म० (१) उछलकर पार करना । कृदकर लाँघना। फाँटा-संशा स्त्री० [हिं० फाटना, फटना वा सं० पट्ट ] (१) यथा. शरीर उछालकर किसी वस्तु के आगे जग पड़ना । डाँकना। क्रम कई भागों में बाँटने की क्रिया या भाव । जैये, नाली फाँदना, गडढा फाँदना । (२) नर (पशु) का क्रि० प्र०-बाँधना।—लगाना । मादा पर जोबा साने के लिए जाना ।