पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१४१

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बाना २४३४ बानी तरु नाना । जनु बानत यने यहु बाना ।—तुलसी । (ग) बानात-संशा स्त्री० [हिं० बाना ] एक प्रकार का मोटा चिकना यह है सुहाग का अचल हमारे बाना । असगुन की मूरत . ऊनी कपड़ा । धनात । ख़ाक न कभी चढ़ाना ।—हरिश्चंद्र । (२) अंगीकार बानावरी*-संज्ञा स्त्री० [हिं० बाण+आवरी ( मा. प्रत्य॰)] बाण किया हुआ धर्म । रीति । चाला स्वभाव । उ०--(क) . चलाने की विद्या वा ढंग। 30--सुनि भालु कपि धाए राम भक्तवत्पल निज बानो। जाति, गोत, कुल, नाम कुधर गहि देवि सो मारन लगा । लखि तासु वानावरी सब गनत नहि रंक होय के रानो।—सूर । (ब) जासु अकुलाइ मरकट दल भगा ।-रघुनाथदास । पतितपावन बढ़ वाना । गावहि कवि श्रुति संत पुराना। बानि-संज्ञा स्त्री० [हिं० बनना वा बनाना] (१) बनावट । सजधज ।


तुलसी । (ग) शिव सनकादि आदि ब्रह्मादिक जोग जाप उ.-वा पट पीत की फहरानि । कर धर चक्र चरन

नहि आऊँ हो । भक्तबहल बानो है मेरो विरुदहि कहा की धावनि नहिं बिसरति वह बानि ।-सूर । (२) लजाऊँ हो।-सूर। टेव । आदत । स्वभाव । अभ्यास । उ.-(क) बन ते संज्ञा पुं० [सं० वाण ] (1) एक हथियार जो तीन साढ़े भगि बिहदे पर ग्वरहा अपनी बानि । बेदन खरहा कासों तीन हाथ लंबा होता है । यह सीधा और दुधारा, नल कह को ग्वाहा को जानि ?--कबीर । (व) पहले ही इन वार के आकार का होता है। इसकी मूठ के दोनों ओर दो हनी पूतना धाँधे बलि सो दानि । सूरनग्वा ताडुका सँहारी लट्टू होते हैं जिनमें एक लटटू कुछ आगे हट कर होता श्याम महज यह बानि-सूर । (ग) लस्किाई ते रघुबर है । इसे बानइत पकड़ कर बड़ी तेजी से घुमाते हैं। (२) बानी । पालत नीति प्रीति पहिचानी । तुलसी । (घ) सांग या भाले के आकार का एक हथियार । यह लोहे थोरेई गुन हरी झते बिसराई वह बानि । तुमहूँ कामह मनो का होता है और आगे की ओर बरावर पतला होता चला भये आजुकालि के दानि ।—थिहारी । जाता है। इसके सिरे पर कभी कभी झंडा भी घाँध देते संशा स्त्री० [सं० वर्णी रंग। चम्क । आभा । कांति । उ.-- हैं और नोक के बल ज़मीन में गाड़ भी देते हैं। उ.--- (क) सुवा ! बानि तोरी जस सोना । सिंहलदीप तोर कस (क) रोह मृगा संशय वन हांक पारथ बाना मेले।' लोना ।जायची । (ब) हीरा भुज-ताबीज में सोहत है सायर जरै सकल बन दाहै, मच्छ अहेरा खेले ।-कबीर। यहि बानि । चंद लखन मुग्व-मीत जनु लग्यो भुजा सन (ख) बाने फहराने घहराने घंटा गजन के नाहीं ठहराने आनि रसनिधि। राव राने देस देख के |-भूषण ।

  • संज्ञा स्त्री० [सं० बाणी ] बाणी । बचन । उ.---

संशा पुं० [सं० वयन=बुनना ] (1) बुनावट । बुनन । करति कछू न कानि बकति है कटु बानि निपट निलज बुनाई। (२) काई की बुनावट जो ताने में की जाती है। बैन बिलम्वहूँ।--सूर। (३) कपड़े की बुनावट में वह तागा जो आडेवल ताने बानिक-संज्ञा स्त्री० [सं० वर्णक वा हिं० बनना ] वश । भेस । सज- में भरा जाता है। भरनी । उ०-सूत पुराना जोड़ने धज । बनाव । सिंगार। उ०—(क) बानिक सैसी बनी न जेठ बिनत दिन जाय । बरन बीन बाना किया जुलहा बनावत केशव प्रत्युत हवै गइहानी । केशव । (ख) भाल पदा भुलाय ।-कबीर । (४) एक प्रकार का बारीक पलाल गुलाल गुलाल सो गेरिगरे गजरा अलबेलो। यो बनि महीन सूत जिससे पतंग उड़ाई जाती है। (५) वह . बानिक सों पदमाकर आग जु खेलन फाग तो खेलो।- जुताई जो रत में एक बार वा पहली बार की । पद्माकर । (ग) सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली, उरमाल। जाय। यहि बानिक मो मन सदा बसौ बिहारीलाल ।-बिहारी। क्रि० स० [सं० ज्यापन ] किमी सुकड़ने और फैलने वाले बानिन-संज्ञा स्त्री० [हिं० बना--बनिया ] बनिये की स्त्री। रोद को फैलाना । आकुंचित और प्रसारित होने- बानिया-संज्ञा स्त्री० [सं० बणिक ] [स्त्री० बानिन ] एक जाति धाले छिद को विस्तृत करना । जैसे, मुँह बाना । का नाम जो व्यापार तृकानदारी तपा लेन देन का काम उ०—(क) पुत्र कलन रहैं लव लाये जंबुक नाई रहे मुँह करती है । वैश्य । उ.---बैठ रहे सो बानियां, खड़ा बाये ।-कबीर । (ख) हा हा करि दीनता कही द्वार द्वार रहै सो बाल । जागत रहै सो पाहरू तीनहुँ खोयो बार बार, परी न छार मुँह बायो।-तुलसी। (ग) काल | कबीर। ध्यास नारि तबही मुख बायो। तब तनु तजि मुख माहिं बानी-संज्ञा स्त्री० [सं० वाणी ] (१) वचन । मुंह से निकला हुआ समायो।-सूर। शाम्य । (२) मनौती। प्रतिज्ञा । उ०-रह्यो एक द्विज नगर मुहा०-(किसी वस्तु के लिये) मुंह घाना-लेने की इच्छा कहुँ सो असि मानी बानि । देहु जो मोहि जगदीस सुत करना । पाने का अभिलाषी होना। तो पूजौं सुख मानि । -रघुराज ।