पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१४८

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वारिज बारीक वाला । सिकलीगर । उ.-मदन वारिगर तुव दृगन धरी (घ) लग्यो सुमन है सुफल तह आतप-रोस निवारि । बाद जो मिल । याके हेरत जात है कटि कटि नेही चित्त। बारी बारी आपनी सोच सुहदता बारि ।-विहारी। -रसनिधि । (२) में आदि से घिरा स्थान । क्यारी । उ०-गेदा बारिज*-संज्ञा पुं.दे. "वारिज"। गुलदावदी गुलाब आबदार चारु चंपक अमेलिन की बारिद-संशा पुं० दे. “वारिद"। न्यारी करी बारी में।-प्रताप । (३) घर । मकान । बारिधर-संज्ञा पुं० [सं० वारिधर ] (१) बादल । वारिद । मेघ ।। दे. "बाड़ी"। (४) रिक्की । झरोखा । (५) जहाज़ों के उ.-हृदय हरिनख अति विराजत छवि न बरनी जाइ। ठहरने का स्थान । बंदरगाह । (६) रास्ते में पड़े हुए काँटे, मनो बालक बारिधर नवचंद लई छपाइ ।-सूर। (२) एक झाद इत्यादि । (पालकी के कहार) वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक घरण में रगण, नगण और दो भगण संशा पुं० एक जाति जो अय पत्तल दोने बना कर म्याह होते हैं। इसे केशवदास ने माना है। उ०--राजपुत्र इक बात शादी आदि में देती है और सेवा करती है। पहले इस सुनौ पुनि रामचंद्र मन माँहि कही गनि । राति दीह जमराज जाति के लोग बगीचा लगाने और उनकी रखवाली आदि जनी जनु । जातनानि तन जातन के भनु । केशव । का काम करते थे इससे काम काज में पत्तल बनाना उन्हीं बारिधि-संज्ञा पुं० दे० "वारिधि"। के सुपुर्द रहता था। उ०—(क) थारी बारी आपनी बारिबाह-संज्ञा पुं० [सं० वारि+वाह ] वादल । सींच सुहृदता बारि ।-विहारी। (ख) नाऊ, वारी, भाँट, बारिश-संशा स्त्री॰ [फा०] (१) वर्षा । दृष्टि । (२) वर्षाऋतु । नट समनिछावरि पाइ । मुदित असीसहिँ नाइ सिर हरण वारिस्टर-संज्ञा पुं॰ [ अं०] वह वकील जिसने विलायत में रह न हृदय समाइ। -तुलसी । कर कानून की परीक्षा पास की हो। ऐसे वकील दीवानी संज्ञा स्त्री० [हिं० बार ] बहुत सी बातों में से एक एक फौजदारी और माल आदि की सारी छोटी बड़ी अदालतों बात के लिये समय का कोई नियत अंश जो पूर्वापर फ्रम के में वादी या प्रतिवादी की ओर से मामलों और मुकदमों अनुवार हो । आगे पीछे के सिलसिले के मुताबिक आने- में पैरवी, बहस तथा अन्य कार्रवाइयों कर सकते हैं। ऐसे वाला मौका । अवसर । ओखरी । पारी । जैसे,-अभी दो वकीलों के लिये वकालतनामे या मुख्तारनामे की आत्र आदमियों के पीछे नुम्हारी बारी आएगी। उ०-(क) घरी श्यकता नहीं पड़ती है। सो बैठि गनह घरियारी । पहर पहर यो आरनि बारी।-- बारी-संशा मी० [सं० अवार ] (1) किनारा। तट । उ०- जायसी । (ग्व) काहू पै दुःख सदा न रयो, न रह्यो सुख जियत न नाई नार चातक धन तजि दुपरेहि। सुरसरि ह काह के नित्त अगारी । चक्रनिमी सम दोउ फिरें तर ऊपर की वारि मरत न माँगेउ अरध जल।-तुलसी। आपनि आपनि बारी।-लक्ष्मणसिंह। मुहा०-बारी रहो-किनारे होकर चलो। बच कर चलो।। मुहा०-बारी बारी मे काल क्रम में एक के पीछे एक इस (पालको के कहार काँटे आदि चुभने पर) रीति से । समय के नियत अंतर पर । जैसे,—सब लोग एक (२) वह स्थान जहाँ किसी वस्तु के विस्तार का अंत हुआ . साथ मत आओ, घारी बारी से आओ। वारी बँधना- हो। किसी लंबाई-चौड़ाईवाली वस्तु का बिलकुल छोर . आगे पीछे के क्रम से एक एक बात के लिये अलग अलग पर का भाग । हाशिया। (३) वगीये, खेत आदि के चारों समय नियत होना । उ.-तीनहु लोकन की तरुनीन की ओर रोक के लिये बनाया हुआ घेरा । बाड़ा । (४) किसी यारी बँधी हुती दंड दुहू की।-केशव । बारी बाँधना- बरतन के मुँह का घेरा या छिछले बरतन के चारों ओर : एक एक बात के लिये पररपर आगे पाछे समय नियत करना । रोक के लिये उठा हुआ घेरा या किनारा । औंठ । जैसे, । संशा स्री० [हिं० वारा छोटा ] (१) लबकी । कन्या। थाली की बारी, लोटे की बारी। (५) धार । याद। पैनी वह जा सयानी न हो। (२) थोड़े वयस की स्त्री । नव- वस्तु का किनारा। यौवना । उ.---बुनिया हसि कह में नितहि बारि । मोहि संज्ञा स्त्री० [सं० वार्टी, नाटिका बगीचा, घेरा, घर ] (1) अस तरुनी कहु कौन नारि ?-कबीर । पेड़ों का समूह या वह स्थान जहाँ से पेड़ लगाए गए हों।. वि. स्त्री. थोड़ी अवस्था की। जो सयानी न हो। उ०- बगीचा । जैसे, आम की बारी । उ०—(क) सरग . बारी बधू मुरमानी बिलोकि, जिठानी करै उपचार किते पताल भूमि ले बारी। एकै राम सकल रखवारी ।- की।--पनाकर। कबीर । (ख) उतुंग जमीर होई रखवारी । छुह को सके , संशा स्त्री० दे. "वाली"। राजा के बारी।-जायसी । (ग) जरि सुम्हारि वह बारीक-वि० [फा०] [ संशा बाराकी ] (1) जो मोटाई या सवति उखारी । बहु करि उपाय बर बारी । -तुलसी । घेरे में इतना कम हो कि छूने से हाथ में कुछ मालूम न