पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१५०

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बालक २४४३ बालप्रह को कतरने से किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं वालकांड-संज्ञा पुं० [सं०] रामायण का वह भाग जिसमें होता । बाल का कुछ भाग स्वचा से बाहर निकला रहता। रामचंद्रजी के जन्म तथा बाल-लीला आदि का वर्णन है और कुछ भीतर रहता है। जिस गड्ढे में बाल की जद रहती है उसे लोमकूप कहते हैं। बाल की जर का नीचे । बालकाल-संशा पुं० [सं०] बालक होने की अवस्था । बाल्या- का सिरा मोटा और सफेद रंग का होता है। बाल के दो वस्था । बचपन । भाग होते हैं, एक तो बाहरी तह और दूसरा मध्य का बालकी-संज्ञा स्त्री० [सं० बालक ] कन्या । लड़की । पुत्री। सार भाग । सार भाग आड़े रेशों से बना हुआ पाया बालकृमि-संज्ञा पुं० [सं०] जूं। जाता है । वहाँ तक वायु का संचार होता है। बालकृष्ण-संज्ञा पुं० [सं०] उस समय के कृष्ण जिस समय के मुहा०-बाल बांका न होना-कुछ भी कष्ट या हानि न पहुँ- छोटी अवस्था के थे। बाल्यावस्था के कृष्ण । चना। पूर्णरूप से सुरक्षित रहना। उ-होय न बाँको | बालकेलि-संशा स्त्री० [सं०] (1) लड़कों का खेल। खिलवाद । बार भक्त को जो कोउ कोटि उपाय करै। तुलसी । बाल (२) ऐसा काम जिसके करने में कुछ भी परिश्रम न पड़े। न बाँकना-बाल बॉका न होना । उ.-जेहि जिय मनहि. बहुत ही साधारण या तुच्छ काम। होय सत भारू। परे पहार न बाँकै वारू ।-जायसी। बालक्रीडा-संज्ञा स्त्री० [सं०] वे कार्य जो छोटे छोटे बच्चे नहाते बाल न खिसना कुछ भी कष्ट या हानि न पहुंचना किया करते हैं। लड़कों के खेल और काम। उ.-नित उठि यही मनावति देवन न्हात खसै जनि बार। बालखंडी-संशा पुं० [?] वह हाथी जिसमें कोई दोष हो। -सूर । (किसी काम में) बाल पकाना=(कोई काम करते | बालखिल्य-संज्ञा पुं॰ [सं०] पुराणानुसार ब्रह्मा के रोण से उत्पन्न करत) बुड्ढा हो जाना । बहुत दिनों का अनुभव प्राप्त करना। ऋषियों का एक समूह जिसका प्रत्येक ऋपिढीलडोल में जैसे, मैंने भी पुलिस की नौकरी में ही बाल पकाए हैं। अँगूठे के बराबर है। इस समूह में साठ हज़ार ऋपि माने बाल बराबर-बहुत सूक्ष्म । बहुत महीन या पतला । बाल जाते हैं जो सब के सब बड़े भारी नपस्वी है । ये सब बराबर न समझना कुछ भी परवा न करना । अत्यंत तुच्छ अध्वरेता है। समझना। बाल बाल बचना कोई आपत्ति पड़ने या हानि बालखोरा-संशा पुं० [फा०] एक रोग जिनमें सिर के बाल सब पहुंचने में बहुत थोड़ी कसर रह जाना । जैसे,-पत्थर आया, न जाते हैं। वह बाल बाल बच गया। बालगोपाल-संज्ञा पुं० [सं०] (१) बाल्यावस्था के कृष्ण । (२) संज्ञा स्त्री. ] कुछ अनाजों के पौधों के डंठल का परिवार के लड़के लड़कियाँ आदि । वाल बच्चे। वह अग्र भाग जिसके चारों ओर दाने गुछे रहते हैं। जैसे, बालगोविंद-संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण का बालक-स्वरूप । जौ, गेहूँ या ज्वार की बाल । बालकृष्ण । संज्ञा स्त्री० [देश॰] एक प्रकार की मछली। बालग्रह-संज्ञा पुं० [सं०] बालकों के प्राणघातक नौ ग्रह जिनके संज्ञा पुं॰ [अं0 ] अंगरेज़ी नाच । नाम ये हैं-(१) स्कंद, (२) स्कंदापस्मार, (३) शकुनी, बालक-संज्ञा पुं० [सं०] (1) लड़का । पुत्र । (२) थोड़ी उन (४) रेवती, (५) पूतना, (६) गंधपूतना, (७) शीतपूतना, का बच्चा। शिशु । (३) अबोध व्यक्ति । अनजान आदमी। (८) मुख-मंडिका और (२) नैगमेय । कहते है कि जिस (४) हाथी का बच्चा । (५) घोड़े का बच्चा । बछेड़ा। घर में देवयाग और पितृयाग आदि न हो, देवता, ब्राह्मण उ.---जात बालका समुंद थहाए । स्वेत पूँछ जनु चँवर और अतिथि का सत्कार न हो, आचार विचार आदि का बनाए। -जायसी । (६) सुगंधवाला। नेत्रवाला । (७) ध्यान न रहता हो, उसमें इन ग्रहों में से कोई मह घुस कंगन । (८) बाल । केश । (९) अँगूठा । (10) हाथी कर गुप्त रूप से बालक की हत्या कर डालता है। यद्यपि की दुम। बालक पर भिन्न भिन्न ग्रहों के आक्रमण का भिन्न भिन्न बालकताई-संशा स्त्री० [सं० बालकता+ (प्रत्य०) ] (1) बाल्या परिणाम होता है, तथापि कुछ लक्षण ऐसे हैं जो सभी वस्था। (२) लड़कपन । नासमझी। उ०—तुव प्रसाद ग्रहों के आक्रमण के समय प्रकट होते हैं। जैसे, बच्चे रघुकुल कुसलाई । छमा करहु गुनि बालकताई।-रघुराज का बार बार रोना, उद्विग्न होना, नावनों या दाँतों से सिंह। अपना या दूसरों का बदन नोचना, दांत पीसना, होंठ बालकपना-संज्ञा पुं० [सं० बालक+पन (प्रत्य॰)] (१) बालक धयाना, भोजन न करना, दिल धड़कना, बेहोश हो जाना होने का भात्र । (२) लड़कपन । नासमझी । इत्यादि । बालग्रह का प्रकोप होते ही उनकी शांति के बालकप्रिया-संज्ञा स्त्री० [सं०1 () केला । (२) वारुणी | लिए पूजन आदि किया जाना चाहिए। ( साधारणतः