पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१५६

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बासौंधी बाहिनी बासौंधी-संज्ञा स्त्री० ० "बसौंधी"। बाहर करना-अलग करना। दूर करना। हटाना। याहर बाहा-संक्षा पुं० [सं० वा रखेत को जीतने की क्रिया। खेत की। वाहर ऊपर ऊपर । बाहर रहते हुए। अलग थे। बिना किसी जोताई । चास। को जताय । जैसे,-वे कलकसे से आए तो थे, पर बाहर संज्ञा पुं० दे० "बाह"। बाहर दिल्ली चले गए। बाहकी*-संज्ञा स्त्री० [सं० वाहक-+-ई (प्रत्य॰)] पालकी ले : (२) किसी दूसरे स्थान पर । किमी परी जगह । अन्य चलनेवाली स्त्री। कहारिन । उ०—सजी बाहकी सखी नगर या गाँव आदि में । जैसे,—(क) आप बाहर मे कर सुहाई । लीन्हीं शिविका कंध उठाई।-रघुराज। लौटेंगे? (ख) उन्हें याहर जाना था, तो मुझसे मिल तो बाहड़ी-संशा स्त्री० [देश॰] वह खिचड़ी जो मसाला और कुम्ह लेते । उ०-जेहि घर कता ते सुखी तेहि गारू तेहि गर्न । होरी डाल कर पकाई गई हो। कंत पियारे बाहरे हम सुम्ब भूला खर्य। -जायची। बाहन-संशा पुं० । देश० ] (1) एक बहुत लंबा पंड, जिसके मुहा०-बाहर कासा आदमी जि किसी प्रकार का गपी न पत्ते जाडे के दिनों में अड़ जाते हैं। इसके हीर की लकड़ी हो । वेगाना । परागा। बहुत ही लाल और भारी होती है और प्रायः खराद और (३) प्रभाव, अधिकार या संबंध आदि मे अलय । जैसे,- इमारत के काम में आती है। (२) एक पेन जो बहुत ऊँचा हम आप मे किसी बात में बाहर नहीं है, आप जो कुछ होता और जल्दी बढ़ जाता है। यह काश्मीर और पंजान कहगे, वही हम करें। उ०-साई मैं तुझ साहरा काड़ी के इलाकों में अधिकता से पाया जाता है। इसकी लकड़ी हूँ नहि पार्न । जो पिर ऊपर तुम धनी महँग मोल प्रायः आरायशी सामान बनाने के काम में आती है। विकाँव ।-कबीर । (४) बगैर । सिवा । (क०) सुफ़ेदान संशा पुं० [हिं० याहा ] वह आदमी जो कुर की जगन पर बाहना-क्रि० स० [सं० वान ] (१) ढोना, लादना वा चढ़ा कर मोट का पानी उलटता है। ले जाना या ले आना । (२) चलाना। फंकना । (हथि- । बाहरजामी-शा १० [सं० पापयामा ] ईश्वर का सगुणरूप। यार)। उ.--(क) लम्बि रथ फिरत असुर बहु धाए । राम, कृष्ण, नृसिंह इत्यादि अवतार । बाहत अस्त्र नृपति पर आए।-पक्षाकर। (ख) यो कहि | बाहरी-वि० [हिं० बाहर+2 (40)(३) बाहर का। बाहर- तबहिं धनुप प्रभुताना । भे वाहत तेहि पर सर नाना ।--- ! वाला । (२) जो घर का न हो । पराया।और। (३) जो पद्माकर । (ग) नेही सनमुख जुरत ही तहँ मन को आपस का न हो। अजनबी। (४) जो केवल बाहर में गिरवान। बाहत है रन बावरे तेरे हग किरवान । देवने भर को हो । ऊपरी । जैसे,—यह सब बाहरी ठाठ है, रसनिधि । (३) गादी, घोडे आदि को किना। (४) अंदर कुछ भी नहीं है। धारण करना । लेना। पकड़ना । (५)हना । प्रवाहित बाहरीटाँग-संज्ञा स्त्री० [हिं० वाहग+टाग | कुश्ती का एक पंच होना। उ०-(क) तजै रंग ना ग केसरि को अंग जिसमें प्रतिद्वंदी के सामने आते ही उसे खींचकर अपनी धोक्त सो रँग बाहत जात । -देव । (ग्व) नातरु जगत बगल में कर लेते हैं और उसके घुटनों के पीछे की ओर सिंधु महँ भंगा। थाहत कर्म पीचिकन संगा।~-रघुनाथ । अपने पैर से आघात करके उसे पीठ की और केलते हुए (६) खेत जोतना। खेत में हल चलाना। उ०—आज गिरा देते हैं। तो उसने चार बीघा बाहके दम लिया । (७) गो, भैप बाहस-संज्ञा पुं० [हिं० ] अजगर । आदि को गाभिन कराना। बाहाँजारी-क्रि० वि० [हिं० वाह+जोड़ना | भुजा से भुजा मिला बाहनी-संशा सी० [सं० वाहिनी ] सेना । फौज। कर । हाथ से हाथ मिला कर । उ०—(क) बाहाँजारी बाहबली-संज्ञा पुं० [हि. बाह+बल ] कुश्ती का एक पेंच। निकसे कुंज ते प्राप्त राशि रीझि कहें वात ।-सूर । (ख) बाहम-कि० वि० [फा०] आपस में । परस्पर । एक दूसरे के! राजत है दोउ वाहाँजोरी दंपति अरु बजवाल।-सूर । साथ। 'बाहा-संशा पुं० [हिं० वॉधना ] वह रस्सी जिससे नाव का डाँद बाहर-कि० वि० [सं० बाघ ] (१) स्थान, पद, अवस्था या बंधा रहता है। संबंध आदि के विचार से किसी निश्चित अथवा कल्पित · बाहिज-संज्ञा पुं० [सं० वात्य ] ऊपर से। बाहर से । देखने में। सीमा (या मर्यादा) से हट कर, अलग या निकला उ.-(क) बाहिज नम्र देखि मोहि भाई। विप्र पढ़ाव हुआ । भीतर या अंदर का उलटा । उ०---तुलसी भीतर पुत्र की नाई।-तुलसी। (ख) बाहिज चिंता कीन्ह बिसेखी। माहरहुँ जो चाहेसि उजियार ।-तुलसी। -तुलसी। मुहा०-बाहर आना या होना सामने आना। प्रकट होना। बाहिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० वाहिनी] (1) वह सेना जिसमें तीन गण ६१३