पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१५८

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बिजन २४५१ बिकना को कस समुशत हॉही।-(ख) प्रेम प्रशंसा विनय विंग मंडल । (७) गिरगिट । (८) सूर्य । (डि.)। (९) जुत सुनि बिधि की बर बानी । तुलसी मुदित महेस झलक । आभास । उ०-विरह बिंब अकुलाय उर त्यों मनहि मन जगत मातु मुसुकानी । तुलसी । (२) पुनि कछु न सुहाय । चित न लगत कहूँ कैसहूँ सो उद्वेग आक्षेप-पूर्ण वाक्य । ताना। बनाय । पाकर । (१०) छंद विशेष । उ०—फल क्रि०प्र०-छोड़ना ।--बोलना। अधर बिंब जासो । कहि अधरनाम तायो। लहत यति बिजन-संज्ञा पुं० [सं० व्यंजन ] भोज्य पदार्थ । ग्वाने की कौन मूंगा । वर्णि जग होत गँगा ।-गुमान । सामग्री । उ०-मायामय तेहि कीन्हि रसोई। बिजन बहू संज्ञा पुं० दे० "बाँवी"। उ०—सा कट का मुख बिंब है गनि सकह न कोई।—तुलसी । निकसत वचन भुजंग । ताकी औषधि मौन है विष नहि बिंद-संज्ञा पुं० [सं० विदु] (9) पानी की बूंद। (२) दोनों। भ्यापै अंग ।-कबीर। भँवों के मध्य का स्थान । भ्रमध्य । (३) वीर्य बुंद । उ.- बिचक-संज्ञा पुं० [सं०] (1) चंद्रमा या सूर्य का मंडल । (२) जो कामी नर कृपण कहि करे आपनी रिद । तदपि अकार्थ। कुंदरू । (३) साँचा । (४) बहुत प्राचीन काल का एक न दीजिये विद्या विदरु जिंद।-रघुनाथदास । (9) बिंदी। प्रकार का बाजा जिस पर चमड़ा मढ़ा होता था। माथे का गोल तिलक । उ०—(क) मृगमद बिंद अनिंद बिंबट-संज्ञा पुं० [सं०] सरसों। सास खामिंद हिद भुव । -गोपाल । (ख) किधौं सु बिंबफल-संज्ञा पुं० [सं०] कुंदरू। अधपक आम मैं मानहु मिलो अमंद । किधों तनक है तम बिंबसार-संज्ञा पुं० दे० "बिंबिसार"। दुग्यौ के ठोदी को विद।-पमाकर । बिबा-संज्ञा पुं० [सं०] (8) कुंदरू। (२) विध। प्रतिच्छाया। बिंदा-संज्ञा स्त्री० [सं० श्रृंदा ] एक गोपी का नाम । उ०-~-ईदा (३) चंद्रमा या सूर्य का मंडल । बिंदा राधिका श्यामा कामा नारि । -सूर । बिबिसार-संज्ञा पुं० [सं० ] एक प्राचीन राजा का नाम जो अजात- संज्ञा पुं० [सं० बिंदु ] (१) माथे पर का गोल और शन के पिता और गौतम बुद्ध के समकालीन थे। कहते बड़ा टीका । बेंदा। बुंदा । बड़ी बिंदी। उ०—मृगमद है कि ये पहले शाक्कथे, पर पीछे बुद्ध के उपदेश से बीन्द्र, विंदा ता में राजे । निरखत ताहि काम सत लाजे ।- हो गए थे। सूर । (२) इस आकार का कोई चिह्न । | बि*-वि० [सं० द्वि० मि. गु० बे] दो। एक और एक । विदी-संशा प्री० [सं० विंदु ] (१) सुना। शून्य । सिफर। बिबहुता-वि० [सं० विवाहित ] (1) जिसके साथ विवाह बिंदु । (२) माथे पर लगाने का गोल छोटा टीका। संबंध हुआ हो । (२) विवाह-संबंधी। विवाह का । जैसे, बिंदुली । (३) इस आकार का कोई चिह्न । बिअहुता जोड़ा। बिदका-संज्ञा पुं० [सं० विदु] (1) बिंदी । गोल टीका । | विश्राज/-संज्ञा पुं० दे० "ब्याज"। उ.-लट लटकनि मोहन मिस बिंदुका तिलक भाल ! विश्राधि-संज्ञा स्त्री० दे० 'च्याधि"। उ.--परिहरि सोच रहहु सुखकारी।-सूर । (२) इस आकार का कोई चिह्न। तुम्ह सोई । बिनु औषध बिआध विधि खोई । —तुलसी । बिंदुरी-संज्ञा स्त्री० [सं० विंदु ] (१) माथे पर का गोल बिश्राधा-संशा पुं० दे० "व्याध" । उ०-जोबन पंखी विरह टीका । बिदी। बिंदुली । टिकुली । (२) इस आकार का | विभाधू । केह भयउ कुरंगिनि खाधू।—जायसी। कोई चिह्न। विधाना-क्रि० स० [हिं० ब्याह ] बच्चा देना । जनना। (विशे- बिंदुली-संज्ञा स्त्री० [सं० विंदु ] बिंदी। टिकुली। उ०-वंदन | पत: पशुओं आदि के संबंध में।) बिंदुली भाल की भुज आप बनाए ।-सूर । बिभापी-वि० दे० "ज्यापी"। विद्रावन-संज्ञा पुं० दे० "वृदावन"। विश्रासा-संज्ञा पुं० [सं० न्यास ] पौराणिक कथाएँ आदि सनाने- विधा-संज्ञा पुं० दे. "विंध्याचल"। वाला । व्यास । कथकद । बिंधना-कि० अ० [सं० वेधन ] (5) बींधना का अकर्मक रूप। विश्राहना-कि० स० दे० "व्याहना"। बींधा जाना । छेदा जाना । (२) फँसना उलझना। | विश्रोग-संज्ञा पुं० दे० "वियोग"। विधिया-संशा पुं० [हिं० बाँधना+श्या (प्रत्य॰)] वह जो मोती बिओगी -वि० दे. "वियोगी"। • बींधने का काम करता हो । मोती में छेद करनेवाला। बिकट-वि० दे० "विकट"। बिंब-संज्ञा पुं० [सं० विंब ] (1) प्रतिबिंब । छाया । अकम । विकना-क्रि० अ० [सं० विक्रय ] किसी पदार्थ का द्रव्य लेकर (२) कर्मबलु । (३) प्रतिमूर्सि । (४) कुंदरू नामक दिया जाना । मूल्य लेकर दिया जाना । बेचा जाना । फल । (५) सूर्य या चंद्रमा का मंडल । (६) कोई | विक्री होना।