पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१६६

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बिट वितताना बिट-संशा पुं० [सं० विट् ] (१) साहित्य में नायक का वह सखा जो बिडवना*1-क्रि० स० [सं० विट्-जोर से चिल्लाना ] तोड़ना । सब फलाओं में निपुण हो । उ.-पीठमर्द बिट चेट पुनि ! उ०-यद्यपि अलक अज गहि बाँधे तऊ चपल गति न्यारे । बहुरि विदूषक होइ । मोचे मान तियान को पीठमर्द है : यूँ घट पट बागुर ज्यों बिसवत जतन करत शशि हारे।—सूर । सोइ । —पमाकर । (२) वैश्य । उ०-बस्त बसी ब्रह्म बिड़ायते-वि० [सं० बृद्धायते ] अधिक । ज्यादा । (दलाल) क्षत्री बिट शूद्र जाति अनुसारा ।-रघुराज । (३) पक्षियों बिडारना-क्रि० स० [हिं० बिडरना ] भयभीत करके भगाना । उ० की विष्टा । बीट । –(क) अर्जुन आदि वीर जो रहेऊ । दिये विदारि बिकल बिटरना-कि० अ० [हिं० बिटारना का अ० रूप ] (१) धंघोला सब भयऊ ।--विश्राम। (ख) कुंभकरन कषि फौज बिडारी। जाना । (२) गंदा होना । सुनि धाई रजनीचर मारी। तुलसी। बिटारना-कि० स० [सं० बिलोडन ] (1) घुघोलना । (२) घंधोल | बिडाल-संशा पुं० [सं०] (१) बिल्ली। बिलाव । (२) बिडालाक्ष कर गंदा करना । उ.-बगुली नीर विटोरिया सायर चदा नामक दैत्य जिसे दुर्गा ने मारा था। उ०—जै सुरक्त जै कलंक । और पखेरू पीबिया हंस न बोर चंच । -कवीर । रक्तबीज बिडाल, बिहं दिनि । (३) दोहे के बीसवें भेद का विटिनिया, बिटिया-संज्ञा स्त्री० दे० "बेटी"। नाम जिसमें ३ अक्षर गुरु और ४२ अक्षर लघु होते है। बिट्रल-संज्ञा पुं० [सं० विष्णु, महा० विठोबा ] (9) विष्णु का एक जैसे,-बिरद सुमिरि सुधि करत नित हरि तुव चरन नाम । (२) बंबई प्रांत में शोलापुर के अंतर्गत पंढरपुर निहार । यह भव जलनिधि तं तुरत कय प्रभु करिहहु पार । नगर की एक प्रधान देवमूर्ति । यह मूर्ति देखने में बुद्ध (४) आँख के रोगों की एक प्रकार की ओपधि । की मूर्ति जान पड़ती है। जैन लोग इसे अपने तीर्थंकर बिडालक-संज्ञा पुं० [सं० ] (1) आँस्त्र का गोलक । (२) आँखों की मूर्ति और हिंदू लोग विष्णु भगवान की मूर्ति बत | पर लेप चढ़ाने की क्रिया। लाते हैं। उ.-बाल दशा विट्ठल पानि जाके पय पीयो विड़ालपाद-संज्ञा पुं० [सं०] एक तौल जो एक कर्ष के बराबर मृतक गऊ जिआइपरचो असुरन को दियो। नाभा । होती है। विशेष—दे. "कर्ष" । बिठलाना-क्रि० स० दे. "बैठाना"। | बिहालवृत्तिक-वि० [सं०] बिल्ली के समान स्वभाववाला । लोभी, बिठाना-क्रि० स० दे० "बैठाना"। कपटी, दंभी, हिंसक, सब को धोखा देनेवाला और सब से बिडंब-संज्ञा पुं० [सं० विडंब ] आडंबर। दिखावा । उ०—कबहुँ टेदा रहनेवाला। मूद पंडित बिडवरत कबहुँ धर्मरत ज्ञानी । बिदालाक्ष-वि० [सं० ] जिसकी आँखें बिल्ली की आँखों के विडंबना-कि० अ० [सं० बिडंबन ] (1) नकल । स्वरूप | | समान हों। बनाना । (२) उपहास । हँसी । निंदा । बदनामी। बिड़ालाक्षी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] एक राक्षसी का नाम । उ.-ज्ञानी तापस सूर कवि कोविद गुन आगार । केहिक | बिडालिका-संशा स्री० [सं०] (1) बिल्ली। (२) हरताल । लोभ विडंबना कीन्द न एहि संसार ।-तुलसी। बिड़ाली-संशा स्त्री० [सं०] (1) बिल्ली । (२) एक प्रकार का बिड-संशा पुं० [सं० विट] (1) विष्टा । (हिं.) विशेष-दे. आँख का रोग। (३) एक योगिनी जो इस रोग की अधि- "बिट" । (२) एक प्रकार का नमक । विशेष—दे० छात्री मानी जाती है। (४) एक प्रकार का पौधा । बिड़िक-संज्ञा स्त्री० [सं०] पान का बीड़ा । गिलौरी । बिडर-वि० [हिं० बिडरना ] छितराया हुआ। अलग अलग । दूरदर। बिड़ौजा-संज्ञा पुं० [सं० इंद्र का एक नाम । वि० [हिं० बि-बिना+डर भय ] (१) जिसे भय न बिढ़तो*-संज्ञा पुं० [हिं० बढ़ना अधिक होना ] कमाई। नफा । हो। न डरनेवाला । निर्भय । निडर । (२) पृष्ट । दीठ। लाभ । उ०-दै पठयो पहिलो बिढ़तो ब्रज सादर सिर बिडरना-क्रि० अ० [सं० विद्=तीखे स्वर से पुकारना, चिलाना ] ! धरि लीजै।-तुलसी।। (१) इधर उधर होना । तितर बितर होना । उ०—भीर बिढ़वना*-क्रि० स० [सं० वृद्धि, हिं, बढ़ाना ] (1) कमाना । भई सुरभी सब बिडरी मुरली भली सँभारी।-सूर । (२) संचय करना। इकट्ठा करना । उ०—तात राउ नहि (२) पशुओं का भयभीत होना । बिचकना । उ. सोचन जोगू । बिदा सुकृत जस कीन्हेउ भोगू।—तुलसी। सिवसमाज जब देखन लागे । बिडरि चले बाहन सत्र | बिढ़ाना-कि० स० दे. "विदयना"। भागे |--तुलसी। | बित*-संज्ञा पुं० [सं० वित्त ] (1) धन । द्रव्य । (२) सामध्य । बिडराना-क्रि० स० [सं० विट-जोर से चिल्लाना ] (1) इधर उधर शक्ति । (३) कद आकार। करना । तितर बितर करना । (२) भगाना । उ०-~वाए | वितताना-क्रि० अ० [ईि. बिलखना] बिलखाना । म्याकुल होना । फल दल मधु सबन रखवारे पिडराय।-विश्राम । विशेष संतप्त होना। उ.-(क) रोवति महरि फिरति