पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१६७

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बितना २४६० बिदरी बिततानी । बार बार ले कंठ लगावति अतिहि शिथिल भई' बिखरना । इधर उधर होना। उ०(क) हार तोरि विध. बानी।-सूर । (ख) ताको कति आप सुधि नाहीं सो : राइदियो । मैया पै तुम कहन चलीं कत दधि माखन सब पुनि जानत नाहीं । सूरश्याम रसभरी गोपिका बन में यों । छीन लियो।-सूर । (ख) पुहुप परे विथुरे पुनि वेही । वितताहीं।-सूर । (ग) प्रिया पिय लीन्ही अंकमलाय । ! तात मैं मानत अब येही।-पनाकर (ग) बीरी परी खेलत में तुम विरह बढ़ायी गई कहा बितताय । तुम ही । विधरि कपोल पर पीरी परी, धीरी परी धाय गिरी सीरी कयौ मान करिबे को आपुहि बुद्धि उपाय । काहे बिबस , परी सेज पर।-पभाकर । (घ) अबहु जियावहु के मया भई विन कारन ऐसी गई राय।-सूर । विधुरी हार समेटि । —जायसी । (२) अलग अलग होना। क्रि० स० संतप्त करना । सताना । दुःखी करना । खिल जाना । उ०-परा धिरति कंचन महँ सीसा । बिथरि बितना-संशा पुं० दे० "बित्ता" । उ०—इंद्र गरष हर सहज न मिल सावें पह सीसा ।—जायसी। में गिरि नग्ब पर घर लौन । इह इतना बितना भरा कहु बिथा*-संशा स्त्री० [सं० व्यथा ] दु:ख । पीडा । क्लेश । कष्ट । कितना दल कीन ।-रसनिधि । तकलीफ़ । उ०—(क) हृदय की कबहुँ न जरनि घटी। बितरना-कि० स० [सं० वितरण ] बाँटना । वितरण करना। बिनु गोपाल बिथा या तनु की कैसे जात कटी।- उ.--कहे पदमाकर सुहेम हय हाथिन के हलके हजारन के सूर । (ख) नैना मोहन रूप सौं मन कौं देत मिलाय । वितर बिचार ना।—पनाकर । प्रीति लगै मन की चिथा सकौं न ये फिर पाय ।- बितवना*-क्रि० स० दे. "विताना"। रसनिधि। बिता-संगा पुं० दे. "विता"। बिथारना-क्रि० सं० [हिं० बिथरना का संक्षिप्त रूप ] छितराना । छिट- बिताना-क्रि० स० [सं० व्यतीत, हिं . बीतना का संक्षिप्त रूप] (समय) काना । बिखेरना । उ०-(क) मनहुँ रविवाल मृगराज तन आदि व्यतीत करना। (वक्त) गुज़ारना । काटना। निकर करि दलित अति ललित मनिगन विचारे।-तुलसी। बिताल-संज्ञा पुं० दे. "बैताल"। (ख) रावणहि मारों पुर भली भाँति जारों, अंड मुंडन वितावना -क्रि० स० दे० "विताना" । बिथारों आज राम बल पाइकै। हनुमान । बितीतना-क्रि० अ० [सं० व्यतीत ] व्यतीत होना। गुजरना। बिथित-वि० [सं० व्यथित ] जिसे कष्ट पहुँचा हो। पीड़ित । उ.-(क) ज्यों ज्यों बितीतति है रजनी उठिस्यों य॑. ! दुःविता उनीदे से अंगनि ऐंठे। (ख)सात योग्य यहि रीति बितीते। बिधारना-क्रि० स० दे. "विधराना"। पंचम इंदिन के गुन जीते। लाल । (ग) विधिवत बारह बिदकना-क्रि० अ० [सं० विदारण ] (१) फटना। चिरना। विदीर्ण माय बितीते।-यमाकर । होना । (२) घायल होना । ज़रमी होना । (३) भड़कना। कि० स० बिताना । गुज़ारना । बिदकाना-क्रि० स० [सं० बिदारण ] (1) फाड़ना । विदीर्ण बितु-संशा ५० दे० "बित्त"। करना । (२) घायल करना । जामी करना । उ०—चोंच विस-संज्ञा पुं० [सं० वित्त ] (1) धन । दौलत । (२) हैसियत । चंगुलन तन विदकायो । मुर्छित है पुनि आरी लै धायो।- औकात । (३) सामर्थ्य । शक्ति । बूता । उ०—(क) किसी विश्राम। की भदी में आकर अपने बिस से बढ़कर काम मत करो। बिदर -संज्ञा पुं० [सं० विदर्भ ] (8) देश विदेष । विदर्भ देश। पर कोई यदि अपने बित्त के बाहर माँगे या ऐसी वस्तु बरार । उ.---दहिनइ बिदर चंदेरी बाएँ। दुहुँ को होत्र माँगे जिससे दाता की सर्वस्व हानि होती हो तो वह दे थाट दुहँ ठाएँ।—जायसी । (२) एक प्रकार की उपधातु कि नहीं ?-हरिश्चंद्र । (रब) दीन बित्त हीन कैसे दूसरी ! जो ताँबे और जस्ते के मेल से बनती है। (आरंभ में गढ़ाइहौं । -तुलसी। इसका बनना विदर्भ देश से ही आरंभ हुआ था, इसलिये विता-संज्ञा पुं० [?] हाथ की सब उँगलियाँ फैलाने पर अंगूठे के इसका यह नाम पड़ा।) सिरे से कनिष्टिका के सिरे तक की दूरी । बालिश्त । बिदरन*-संशा स्त्री० [सं० विदीर्ण ] दरार । दरज । शिगाफ़। विथकना-क्रि० अ० [हिं० थकना ] (1) थकना । (२) चकित वि० फादनेवाला । चीरनेवाला । उ-जोति रूप लिंग- होना । हैरान होना । स्तब्ध होना । उ.-अति अनूप जहँ मयी अगनित लिंगमयी मोक्षबितरनि जगजाल की।- जनक निवासू । विभकहि विबुध बिलोकि बिलासू।-| तुलसी। तुलसी । (३) मोहित होना । उ०—सूर अमर लालना गण ! विदरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० विदर । सं० विदर्भ ] जस्ते और तांबे के अमर विषकी लोक निसारी।-सर । मेल से बरतन आदि बनाने का काम जिसमें बीच बीच में विथरना, विथुरना -कि० अ० [सं० वितरण ] (1) छितराना । सोने या चौदी के तारों से नाकाशी की हुई होती है। विदर