पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१७६

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सिखापर बिसहना जिसे ग्रह थोड़ी थोड़ी देर पर निकाला करता है। देखने में बिसगता*-संज्ञा पुं० [सं० वेशरः ] खचर । अश्वतर । उ.-- यह बड़ी भारी छिपकली सा होता है । (२) एक प्रकार की कूजत पिक मानहु गज माते । ढेक महोग्य ऊँट विस- जंगली बृटी जिसकी पत्तियाँ बनगोभी की सी परंतु कुछ राते। -तुलसी। अधिक हरी और लंबी होती हैं। यह औषध में काम आती । विसराना-क्रि० स० [हिं० बिमरना ] भुला देना । विस्मृत है। इसे 'बिसखपरी' भी कहते हैं। (३) पुनर्नवा । पथर करना । ध्यान में न रखना । उ०—(क) दच्छ सकल निज चटा । गदहपूरना । सुता बोलाई । हमरे बयर तुम्हउ विपराई । -तुलप्पी । सखापर-संज्ञा पुं० [सं० विष+खर्पर ] दं० "बिसखपरा"। (ख) बिसराइयो न ग्राको है मेवकी अयानी।-प्रताप । उ.-यी बिसवापरहि चांपत चरन वीच लपटें फनीज (ग) थोरेई गुन मते बिपराई वह पानि । तुम्हें कान्ह गहि पटकै पछार को।-रामकवि। भये मनी आज काल के दानि ।-विहारी। बसटी-संशा स्त्री० | देश०] बेगा। (डिं.) चिसगम-संज्ञा पुं० दे० "विश्राम" । उ०प्यारी की ठोड़ी सतग्मा*-क्रि० अ० [सं० विस्तरण] विस्तार करना । बढ़ाना। . को विंदु दिनेस किधी घिमराम गुरिद के जी को। चारु फैलाना । उ.--(क) एक पल ठाढ़ी के सामुह रही भ्यो कणिका मणिनील को कैधों जमाव जम्यौ रजनी को। निहारि फेरि कै लजीही भौहँ मोचे बियत्तरि के। रघु- : बिसरावना *-क्रि० म० दे० "विसराना" । उ०-~-करिक नाय । (ख) बिहँसि गरेसों लागी मिली रघुनाथ प्रभा उनके गुन गान सदा अपने दुख को बिसरावनो है।- अंगनि सौ गुन रूप ऐसो बिसतरि गो।-रघुनाथ । हरिश्चंद्र । बेसतार*-संज्ञा पुं० दे० "विस्तार"। बिसवार-संज्ञा पु० [सं० विषयवस्तु+हिं० वार (अन्य) ] हजामों बसद-वि० दे० "विशद"। की वह पेटी जिसमें वे हजामत बनाने के औज़ार रखते हैं। बेसन -संज्ञा पुं० दे० 'व्यसन"। दुरहँदी । किम्पबत । वसनी-वि० [सं० ध्यभन (1) जिसे किसी बात का ध्यान विसवासः-संज्ञा पुं० दे० "विश्वाय" । या शौक हो। (२) जो अपने व्यवहार के लिए सदा यढ़िया विनवासिनि-वि. स्त्री० [सं० विश्वामिन ] (१) विश्वाय बदिया चीजें ही हूँदा करे । जिसे चीजें जल्दी पसंद न करनेवाली । (२) जिस पर विश्वान हो। आएँ । जो व्यवहार की साधारण वस्तु सामने आने पर *वि० स्त्री० [सं० अविश्वासिन् ) (1) जिप पर विश्वास न नाक भी खिकोड़े। (३) जिसे सफाई सजावट या बनाव हो। (२) विश्वासघातिनी । सिंगार बहुत पसंद हो। छैला। चिकनिया। शौकीन । (४) विसवासी-वि० [सं० विश्वामिन् ] (1) जो विश्वास करे। (२) वेश्यागामी। रंडीबाज़। जिस पर विश्वास हो । जिपका एतबार हो। बेसमउ -संज्ञा पुं० दे. “विस्मय"। वि० [सं० अविश्वाग्निन् ] (१) जिस पर विश्वास ने किया बेसमरना-क्रि० स० [सं० विम्मरण | भूल जाना। उ०- जा पके । बेएतबार । (२) जिसका कुछ टीक न हो कि सुत तिय धन की सुधि घिसमरै।-सूर। कब क्या करे करावेगा । जैम,-बिस्वामी के कारण बसमव-संशा पु० दे० "विस्मय" । परदेस में पड़े हैं। (बोलचाल) बेसमिल-वि० [फा० बिरिमल ] घायल । जख्मी । विससना -क्रि० स० [सं० विश्वसन | विश्वाष्प करना । एतयार बसमिल्ला (ह)--संशा पुं० [अ० ] श्रीगणेश । आरंभ। आदि। करना । भरोसा करना । उ०-नये बिसमिये अति नये मुहा०-बिस्मिला ही ग़लत होना आदि हो से गलता का दुरजन दुबह सुभाव । आँटे परि प्रानन हरत कोटे लौं शुरू होना। किसी कार्य के आरंभ ही में विन्न दाथा वा भूल . लगि पाव ।-बिहारी। का होना । बिस्मिला करना-आरभ करना । लग्गा लगाना।' कि० म० [सं० विशसन ] (1) वध करना । मारना। शुरू करना। घात करना । 30-पुनि तुरंग को बिससि तहँ कोरल्या वेसयक -संज्ञा पुं० [सं० विषय ] (१) देश । प्रदेश । (२) कर दीन । कियो होम करि घ्राण वर दम्परय नृपति रियासत। प्रवीन ।-रघुराज । (२) शरीर काटना । चीरना फाइना । बेसरना-क्रि० स० [सं० विस्मरण, प्रा. बिम्हरण, बिस्सरण ] भूल बिसहना-क्रि० स० [ हि. विसाह ] (१) मोल लेना। जाना । विस्मृत होना। याद न रहना । ध्यान में न रहना।' खरीदना । दाम देकर कोई वस्तु लेना । क्रय करना । (२) उ.-(क) बिसरा भोग पेज सुख थासू।-जायसी । (ख) । जान बूझ कर अपने साथ लगाना । उ.-जो पै हरि जन विसरा मरन भई रिस गादी ।-तुलसी । (ग) सुरति के औगुण गहते । तो सुरपति कुरुराज अलि सों कत हठि स्याम धन की सुरति बिसरेह विसरै न ।-बिहारी। खैर विसहते ।—तुलसी। चार