पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१८०

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बिहोरना २४७३ बीच जब तुलसी दोष बिहुन । तुलसी। (ख) बोल बाजता ना । असुवन भीजी बीजी डीजी और पसीजी मीजी पीजी सो सुनै सुरति बिहूना कान ।-कबीर। पतीजी राग रंग रौन रितई।। बिहोरना-क्रि० अ० [हिं० विहरना-फूटना ] बिछुड़ना । उ०- | बीका-वि० [सं० वक्र ] टेढा । उ.--तुम अपने नाश को देग्वा सीता के बिहोरे रती राम में न रह्यौ बल चूजे लछिमन : चाहती हो? तुम्हारा बाल तक बीका न होगा; परंतु मेघनाद ते क्यों जीसिहै। हनुमान । यदि तुम अपना जीवन चाहती हो तो मौन रहो।- बीड-संज्ञा पुं० दे० "बींबा"। अयोध्यासिंह । (दे० मुहा० "बाल बांका करना"।) __संज्ञा स्त्री० दे० "बीया"। बीखा-संज्ञा पुं० [सं० बाखा-गति ] पद । कदम । उग । उ०- बीड़ा-संज्ञा पुं० [हिं० बींबी+आ (प्रत्य॰)] (१) पेड़ की पतली (क) पूरा सतगुरु ना मित्या सुनी अधूरी सीख । निकया टहनियों से बुनकर बनाया हुआ मेंडरे के आकार का लंबा था हरि मिलन को वालि सकाया बीख । कबीर । (ख) नाल जो करचे कुएँ या चोंड में इसलिये दिया जाता है जरा आय जोरा किया नेत्रन दीनी पीठ । आँग्वों ऊपर कि उसका भगाद न गिरे। बींद। (२) धान के पयाल को आँगुरी बीख भरे पचि नीठ।-कबीर । बुन और सपेट कर बनाया हुआ गोल आसन जिस पर गाँव संज्ञा पुं० दे. "विष"। में लोग आग के किनारे बैठकर तापते हैं। (पहले पयाल बीगां-संज्ञा पुं० [सं० वृक] [स्त्री० बागिन ] भेदिया । उ०--नि को बुनकर, उसका लंबा फीता बनाते हैं। फिर उस फीते को लीजिए ब्रह्मज्ञानी । घुमरि घुमरि बरखा बरसावे परिया बूंद बर्तुलाकार लपेटकर ऊपर से रस्सी से कसकर बाँध देते हैं। न पानी । चींटी के पग हस्ती बांधे 2ी बीगहि खायो। यह गोल होता है और बैठने के काम में आता है।) (३) उदधि माँहि ते निकमि माळरी चौड़े गेह करायो।—कबीर । घास आदि को लपेटकर बनाई हुई गेंडरी जिस पर धड़े रक्खे बीगना-क्रि० स० [सं० विकीरण ] (1) छोटना। छितराना। जाते हैं। (१) वह गेंडरी जिसे सिर पर रखकर घड़े, टोकरे। (२) गिराना । आदि का भार उठाते हैं। (५) बड़ी बींदी । लुडा । (६) | बीगहाटी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बीघा-+-टी (प्रत्य॰)] वह लगान जो जलाने की लकड़ी या बाँस आदि का बाँधकर बनाया बीघे के हिसाब से लिया जाय । हुआ बोझ । (७) पिसी । पि। बीधा-संज्ञा पुं० [सं० विग्रह, प्रा० विग्गह ] खेत नापने का एक बीडिया -संज्ञा पुं० [हिं० नीकी ] वह बैल जो तीन बैलों की | वर्ग मान जो बीस बिस्व का होता है । गादी में सबसे आगे रहता है और जिसके गले के नीचे विशेष-एक जरीब लंबी और एक जरीब चौली भूमि क्षेत्र- बीड़ी रहती है। दिया। फल में एक बीघा होती है। भिन्न भिन्न प्रांतों में भिन्न बीड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० वेणी ] (8) वह मोटी और कपड़े आदि भिज्ञ मान की जरीब का प्रचार है। अत: प्रांतिक बीघे का में लपेटी हुई रस्सी जो उस बैल के आगे गले के सामने मान जिस देही वा देहाती बीघा कहते हैं, सब जगह समान छाती पर रहती है जो तीन बैलों की गाड़ी में सब से। नहीं है। पकावीघा, जिसे सरकारीधीधा भी कहते है,३०२५ आगे रहता है। (२) रस्सी या सूत की वह पिंडी जो वर्ग गज़ का होता है जो एक एकड़ का ५ वाँ भाग होता लकड़ी या किसी और चीज़ के ऊपर लपेटकर बनाई है। अब सब जगह प्रायः इसी बांधे का प्रयोग होता है। जाय । (३) वह लकदी जिस पर सूत आदि को लपेटकर | बीच -संज्ञा पुं० [सं० विच-अलग करना] (१) किसी परिधि, सीमा बीड़ी बनाई जाती है। (४) वह गेंडुरी जिसे सिर पर रखकर या मर्यादा का केंद्र अथवा उस केंद्र के आस-पास का घडा, टोकरा या और कोई बोझ उठाते हैं । (५) कॅसुला । कोई ऐसा स्थान जहाँ से चारों ओर की सीमा प्रायः समान बींधना*-क्रि० अ० [सं० विद्ध ] (1) बींधमा । (२) फँसना । अंतर पर हो। किमी पदार्थ का मध्य भाग । मध्य । उ०- उलझना । उ०—(क) कैसे करि आवत श्याम इती। मन (क) मन को मारों पटकि कर टूक टूक हो जाय । टूटे पाछे क्रम वचन और नहि मोरे पदरज स्यागि हिती । अंतर्यामी फिर जुरे बीच गाठि परि जाय ।-कबीर । (ख) जनम यही न जानत जो मों उरहि बिती। ज्यों कुजुवरि रस पत्रिका वर्ति के देखहु मनाहि बिचार । दारुन बैरी मीनु के बींधि हारि गथु सीचतु पटफि चिती ।-सूर । (ख) भूल्यो श्रीच विराजत नारि ।-तुलसी । (ग) जानी न ऐसी चढ़ा- भौंह भाल में चुभ्यो के टेकी चाल में, छक्यो के छरिजाल चढ़ी में किहिधौं कटि बीच ही लूट लई सी।–पमाकर । के बीभ्यो बनमाल में ।-पमाकर । । मुहा०-बीच खेत-(१) खुले मैदान । सबके सामने । प्रकट क्रि० स० विद करना । छेवना। बेधना । जैसे, कान । रूप मे । (२) अवश्य । जरूर । बीच यीच में=(१) रह रह बींधना। कर । थोड़ी थोड़ी देर में । (२) थोड़ी थोड़ी दूरी पर । थोरे बी-संशा सी० [फा० बीवी का संक्षिप्त रूप] दे. "बीबी"। उ. भोड़े अंतर पर।