पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१९७

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बृह बैंग मुख्य उपनिषदों में से और उसके अंतिम ६ अध्यायों या । हुए थे और इन्होंने सारा अंधकार नष्ट कर दिया था। ५ प्रशाठकों में है। यह भी कहा गया है कि ये देवताओं के पुरोहित हैं और बृहद्-वि० दे० 'हत्"। इनके बिना यज्ञ का कोई कृत्य पूर्ण नहीं होता । ये बुद्धि संज्ञा पुं० [सं०] एक अग्नि का नाम । और वक्तत्व के देवता तथा इंद्र के मित्र और सहायक बृहग्रह-संशा पुं० [सं०] करुष नामक प्राचीन देश। माने गए हैं। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में इनका जो बृहती-संशा वा० । सं०] एक प्रकार की दैती जिसके पत्ते . वर्णन दिया है, वह अनि के वर्णन से बहुत कुछ मिलता एरंड के पत्तों के समान होते हैं। दे. "देती"। जुलता है। वाचस्पति और सदसस्पति भी इनके नाम वृहद्दल-संज्ञा पुं० [सं०] (1) सफेद लोधा (२) सप्तपर्ण नामक । हैं। कई स्मृतियाँ और चार्वाक मत के प्रथइन्हीं के वृक्ष। बनाए हुए माने जाते हैं। पुराणानुसार इनकी स्त्री तारा वृहद्दली-संसात्री | सं० | लजालू । लजाती। को सोम (संद्रमा) उठा ले गया था जिसके कारण सोम बृहद्बला-संज्ञा पुं० सं०] (१) महाबला । (२) साद लोध ।। से इनका घोर युद्ध हुआ था। अंत में ब्रह्मा ने बृहस्पति (३) लजाल । लजावती। को तारा दिलवा दी । पर तारा को सोम से गर्भ रह चुका वृहद्बीज-संशा पुं० [सं०] अमड़ा। था जिसके कारण उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम बुध बृहद्भडी-संज्ञा झी० [सं०] श्रायमाणा लता । रखा गया था। वैदिक काल के उपरांत इनकी गणना नव वृहदभट्टारिका-संवा सी० [सं० 1 दुर्गा का एक नाम । ग्रह में होने लगी। गृहभानु-संज्ञा पु. [म. () अग्नि । (२) चित्रक । चीता पर्या०-सुराचार्य । गीस्पति । धिपण। गुरु । जीव । आंगि- वृक्ष । (३) सूर्य । (५) भागवत के अनुसार सत्यभामा के . रस । वाचस्पति । चारु । द्वादशरश्मि । गिरीश । दिदिव । पुत्र का नाम । वाकवति । वचसांपति । वागीश । द्वादशकर । गीरथ। बृहद्रथ-संभा पुं० | सं० ] (1) इंद्र। (२) पामवेद का एक (२) सौर जगत् का पाँचवाँ ग्रह जो सूर्य से ५४,३०, अंश । (३) यजपाय । (४) शतधन्वा के पुत्र का नाम । ००,००० मील की दूरी पर है और जिसका परिभ्रमण (५) देवराज के पुत्र का नाम । (६) मगध देश के राजा कार लगभग ४३३३ दिन है। इसका व्यास ९३,००० जरासंध के पिता का नाम । मील है। यह सब से बड़ा ग्रह है और इसका व्यास पृथ्वी वृहदवर्ण-संसा पुं० | सं0 ] सोना मक्खी । स्वर्णमाक्षिक । के व्यास से ११ गुना बढ़ा है। यह बहुत चमकीला भी है पृहद्वल्ली-संशा स्त्री० [सं० ] करेला । और शुक्र को छोड़कर और कोई मह चमक में इससे गृहद्वारुणी-संज्ञा स्त्री० [सं०] महेंद्रवारुणी नामक लता। बढ़ कर नहीं है । अपने अक्ष पर यह लगभग १० घंटे में बृहन्नल-संज्ञा पुं० [सं० । (१) अर्जुन का एक नाम। (२) धूमता है। दरबीन से देखने से इसके पृष्ठ पर कुछ याहु । बाँह । समानांतर रेखाएँ खिंची हुई दिखाई देती हैं। अनुमान बृहन्नला-संशा स्त्री० [सं० ] अर्जुन का उस समय का नाम जिस किया जाता है कि यह ग्रह बादलों की मेखलाओं से समय वे अज्ञातवास में स्त्री के वेश में रहकर राजा विराट घिरा हुआ है। यह अभी बालक-ग्रह माना जाता है। की कन्या को नाच गाना सिम्बाते थे। अर्थात् इसका निर्माण हुए अभी अधिक समय नहीं बीता गृहन्नारायण-संगा j० [सं०] एक उपनिषद का नाम जिस्पे है। अभी इस की अवस्था सूर्य की अवस्था से कुछ कुछ याशिकी उपनिषद् भी कहते है। मिलती जुलती है और पृथ्वी की अवस्था तक इसे पहुँचने वृहनिच-संज्ञा पुं० सं०] महानिध। में अभी बहुत समय लगेगा। यह अभी स्वयं प्रकाशमान गृहस्पति-संज्ञा पुं० [सं०] (१) एक प्रसिद्ध वैदिक देवता जो नहीं है और केवल सूर्य के प्रकाश से ही चमकता है। अगिरम के पुत्र और देवताओं के गुरु माने जाते हैं । इनकी इसका तल भी अभी पृथ्वीतल के समान ठोस नहीं है। माता का नाम श्रद्धा और स्त्री का नाम तारा था। ये सभी यह चारों और अनेक प्रकार के वायों के मंडल से घिरा विषयों के पूर्ण पंडित थे और शुक्राचार्य के साथ इनकी हुआ है। इसके साथ कम से कम पाँच उपग्रह या चंद्रमा स्पर्धा रहती थी। ऋग्वेद के ११ सूतों में इनकी स्तुति भरी है जिनमें से तीन उपग्रह हमारे चंद्रमा से बड़े हैं और हुई है। उनमें कहा गया है कि इनके सात मुंह, सुवर दो छोटे। जीभ, पैने सींग और सौ पंख हैं और इनके हाथ में बृहस्पतिस्मृति-संज्ञा स्त्री० [सं०] अगिरा के पुत्र बृहस्पति ऋषि धनुप-याण और सोने का परशु रहता है। एक स्थान में कृत एक स्मृति । यह भी कहा गया है कि ये अंतरिक्ष के महातेज से उत्पन्न । बैंग-संज्ञा पुं० [सं० भेक ] मेंढक । उ०-जैसे घ्याल बेग को