पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१९८

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बैंगत २४९१ बेघड़ा - ढके बैंग पखारी ताकै हो । जैसे सिंह आपु मुम्ब निरखै एशिया और उसके आस पास के टापुओं में जलाशयों के पर कूप में दाकै हो ।सूर। पास बहुत अधिकता से होती है। इसके पत्ते बांस के बेंगत -संज्ञा पुं॰ [देश॰] वह योज जो खेतिहरों को उधार पत्तों के समान और कॅटीले होते हैं और उन्हीं के सहारे दिया जाता है और जिसके बदले में फसल होने पर तौल यह लता ऊँचे ऊँचे पेड़ों पर चढ़ती है । इसकी छोटी में उससे कुछ अधिक अन्न मिलता है। बेग । बीट। बड़ी अनेक जातियाँ है । इसके इंठल बहुत मज़बूत और बेंगनकुटी-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] अबाली नाम का पक्षी । दे० लचीले होते हैं और प्राय: छड़ियाँ, टोकरियाँ तथा इसी "अबाली"। प्रकार के दूसरे सामान बनाने के काम में आते हैं । इन यंच-संज्ञा स्त्री० [ अं०] (1) लकड़ी, लोहे या पत्थर आदि की ढंठलों के ऊपर की छाल कुर्सियाँ, मोडे, पलंग आदि बनी हुई एक प्रकार की चौकी जो चौड़ी कम और लंबी खुनने के काम में भी आती है। हमारे यहाँ के प्राचीन अधिक होती है । इस पर बराबर बराबर कई आदमी एक कवियों आदि का विश्वास था कि बेंत फूलता या फलसा साथ बैठ सकते हैं। कभी कभी इसमें पीछे की ओर से ऐसी नहीं, पर वास्तव में यह बात ठीक नहीं है। इसमें गुच्छों में योजना भी कर दी जाती है जिससे बैठनेवाले की पीठ को एक प्रकार के छोटे छोटे फल लगते हैं जो खाए जाते हैं। सहारा भी मिल सके। (२) सरकारी न्यायालय के न्याय इसकी जड़ और कोमल पत्तियाँ भी तरकारी की तरह खाई कर्ता। जाती है। वैद्यक में इसे शीतल और सूजन, कफ, बवासीर, बेंचना-क्रि० स० दे० "बेचना"। यण, मूत्रकृच्छ, रक्तपित्त और पथरी आदि का नाशक बॅट, बैंठ-संशा स्त्री० [देश॰] औज़ारों आदि में लगा हुआ माना है। काठ या इसी प्रकार की और किसी चीज़ का दस्ता । मूठ । पा०-वेतस । निबुल । बंजुल । दीर्घपत्रक । कलन । बड़ा-संज्ञा पुं॰ [देश॰] (1) वह भेडा जो भेड़ों के झुंड में मंजरी नम्र । वानीर । विफल । रथ। शीतगंधपुष्पक । बच्चे उत्पन्न करने के लिए छूटा रहता है। (गड़रिये)। (२) सुषेण । नीरप्रिय । तोयकाम । अभ्रपुषक। नगद रुपया पैमा । सिक्का। (दलाल) (३) पाव । (क.) (२) बैंत के डंठल की बनी हुई छड़ी। संज्ञा स्त्री० [हिं० बेड़ा आदा] वह चीज़ जो किसी भार । मुहा०-बेत की तरह काँपना-थरथर कॉपना । बहुत अधिक को नीचे गिरने से रोकने के लिये उसके नीचे लगाई जाय। डरना । जैसे,---यह लड़का आपको देखते ही बंत की तरह घाँट। उ.-हनल नील आज ही देउँ समुंद महि काँपता है। मेड । कटक शाह कर टेकौ है सुमेर रण में ।—जायसी।। बदली -संज्ञा स्त्री० [हिं० बिंदी ] माथे पर लगाने की बिंदी। बैंडा-संज्ञा पुं० दे." वडा"। टिकली। वि० [हिं० आडा ] (1) आदा। तिरछा । (२) कठिन । बेंदा-संशा पुं० [सं० बिंदु ] (१) माथे पर लगाने का गोल मुश्किल । टेढ़ा। तिलक । टीका । (२) माथे पर पहनने का स्त्रियों का एक बेंडी-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] बाँस को वह टोकरी जिसमें चार आभूषण । बंदी। बिंदी। उ.-नाना विधि श्रृंगार बनाए रस्सियाँ बँधी रहती हैं और जिसकी सहायता से दो आदमी वेदा दीन्हों भाल ।--सूर । (३) माथे पर लगाने की बड़ी मिलकर किसी गड्ढ़े का पानी उठाकर स्खेत आदि सींचते गोल टिकली। (४) इस आकार और प्रकार का माथे पर हैं। डलिया। दौरी। पहनने का एक आभूषण । बेंडीमसकली-संज्ञा स्त्री० [ देश ] हँसिया के आकार का लोहे बेंदी-संज्ञा स्त्री० [सं० विदु, हि. विंदी ] (1) टिकली। बिंदी। का एक औज़ार जिसमें काठ का दस्ता लगा रहता है। (२) शून्य । सुना । 30-कहत सबै बैंदी दिए आँक दस इससे बरतनों पर जिला की जाती है। गुनो होत । तिय लिलार बेंदी दिए अगनित बढ़त उदोत बैंद-संज्ञा पुं० [ लश ] खंभे आदि के ऊपरी पतले भाग में -बिहारी । (३) दावनी या बंदी नाम का गहना जिसे पहनाया हुआ किसी चीज़ का पतला चौकोर पत्तर या इसी स्त्रियाँ माथे पर पहनती हैं। उ०-(क) कबहुक सेज रचत प्रकार का और कोई पदार्थ जिसका उपयोग यह जानने के बंदी कर हृदय होम धृत नन ।—सूर । (ख) बैंदी सँवारन लिये होता है कि हवा किस ओर बह रही है। यह चारों मिस पाइ लगी। 'चतुर नायकह पाग मसकी मन ही मन ओर सहज में घूम सकता है और सदा हवा के रुख पर | रोमे गुप्त भेद प्रीप्ति तन जागी।—सूर । (ग) बंदी भाल धूमता रहता है। फरहरा। नैन नित औजति निरखि रहति सनु गोरी ।—सूर । (७) बेंत-संज्ञा पुं० [सं० वेतस् ] (3) एक प्रसिद्ध लता जो साद या सरो के पेड़ का सा बेलबूटा । खजूर आदि की जाति की मानी जाती है। यह पूर्वी | बेघड़ा-संज्ञा पुं० [हिं० बेंडाआडा ] बंद किवादे के पीछे लगाने